भारत की हजारो वर्षो से यह मान्यता रही है कि प्रकृति के संतुलन को कायम रखा जाय ।
यह मनुष्य व प्रकृति दोनों के लिए बहुत अच्छा है ।
परंतु वर्तमान में तरक्की के नाम पर जिस ढंग से प्रकृति का शोषण हो रहा है ,इस सन्तुलन को अस्वाभाविक रूप से तोड़ा जा रहा है उससे ये लगता है कि लोभग्रस्त सभ्यता उसे रहने नही देगी ।
पूर्व में हम प्रकृति को माँ का दर्जा देते थे परंतु अब वैसा नही है अब प्रकृति केवल उपभोग का साधन बना दी गई है । ये भी सही है कि जब प्रकृति अपने पर आती है तो वो किसी का लिहाज नही करती ।
प्रकृति को मात्र विज्ञान के जरिये समझना मानव की भूल है उसे धर्म के साथ जोड़ कर भी समझना होगा और ये सनातन धर्म ने किया भी है ।
परंतु पश्चिम के दृष्टिकोण ने प्रकृति को केवल साधन समझने की भूल की है , प्रकृति को उन्होंने कभी माँ या मित्र नही माना ।
सनातन मत के अतिरिक्त जो भी मत वर्तमान में दुनिया मे प्रचलित है वे मतावलम्बी भी प्रकृति के संबंध में अधिक मुखर नही है । और वे प्रकृति को अपने अधीन करना चाहते है जो कि असंभव कार्य है ।
प्रकृति हमेशा समस्त जीवधारियों की स्वामी रही है और रहेगी । उसे अपना चाकर बनाने के चक्कर मे पश्चिमी मानव ने प्रकृति से दुश्मनी मोल ले ली है , ये भी कह सकते है कि कुल्हाड़ी पर पैर रख दिया है ।
पूर्व व पश्चिम में ये अंतर साफ दिखाई देता है जहाँ पूर्व का सनातनी प्रकृति को माता का स्थान प्रदान कर उसे विभिन्न रूपो में व अवसरों पर पूजता है ,वही पश्चिमी सभ्यता उसे दासी समझ उसका सिर्फ शोषण करना चाहती है , उस पर विजय पाना चाहता है ।
प्रकृति के दोहन व शोषण में अंतर है सनातनी ने प्रकृति को माँ मान कर उसका दोहन किया है अन्य लोगो ने उसे दासी समझ शोषण किया है ।
दोहन व शोषण को इस तरह समझना होगा ,जैसे बाल कृष्ण ने माता यशोदा का दूध पिया है यह दोहन कहलायेगा
और जब कृष्ण पूतना राक्षसी का दूध पीते है उसकी मृत्यु आने तक ये शोषण कहलायेगा ।
समझना होगा हमे प्रकृति का दोहन करना है शोषण नही ,हम जितना प्रकृति से उधार लेते है वो सब उधार उसे वापस लौटना हमारा कर्तव्य है । जिससे लेन देन का संतुलन बना रहेगा प्रकृति व मानव दोनों प्रसन्न रहेंगे ।
मनुष्य भी एक प्राकृतिक प्राणी है और उसका मन और बुद्धि भी प्रकृति का ही एक बहुत सूक्ष्म हिस्सा है ।जैसे फूल और फूल की सुगंध होती है जो प्रकृति से पोषित है ,वैसे ही मानव की बुद्धि व आत्मा से प्रकृति का संबंध है ।
सम्पूर्ण मानव जड़ व चेतन स्वरूप जिसे बुद्धि ,आत्मा और शरीर कह सकते है ,प्रकृति से ही पोषित व संरक्षित है । मानव अपने आप मे पूर्ण इकाई नही है ,अनंत प्रकृति का ही एक अंश मात्र है ।दो मिनिट सांस रोक कर देखिए समझ मे आ जायेगा हवा कितनी अनमोल है ।
परिवेश में जितने भी भौतिक तत्व है हवा पानी प्रकाश मिट्टी सब के साथ हमारा एक संतुलन होना चाहिए ।जितने भी जीवधारी है उनके साथ भी इसी संतुलन की आवश्यकता है इसे कहते है इकोलॉजी ।
इस इकोलॉजी पर पश्चिम आज शोध कर रहा है परंतु सनातनी की हजारो वर्ष पुरानी वैदिक सभ्यता इसके सूक्ष्मतम को जान चुकी थी और हैं ।
ईश्वर की अनंत रचना प्रकृति है और मनुष्य अंश भर है
मानव ईश्वर का स्थान नही ले सकता । प्रकृति मानव के सामने नतमस्तक नही हो सकती मानव को जरूर घुटनो के बल ला सकती है ।
धर्म सम्बन्धी हमारी धारणा में यह कहा जाता है कि आप धर्म की रक्षा करो धर्म आपकी रक्षा करेगा ।उसका अर्थ ये है कि हम पर्यावरण के इन विभिन्न स्तरों को शुद्ध बनाये रखे और उनमें आपस मे एक सामंजस्य बना रहे ,पर्यावरण के स्तरों में जब सामंजस्य टूटता हैं या विषमता उपजती है तो उसका सीधा सीधा प्रभाव मनुष्य पर पड़ता है ।
हमारी सनातनी शास्त्रीय परम्परा इस विषमता का कारणमानव को ही मानती है ,क्यो की मावन ही अपनी अच्छी बुरी इच्छाओं के कारण पर्यावरण को दूषित करता है , विषमता पैदा कर प्रकृति के संतुलन को बिगाड़ देता है । जिसके दुष्परिणाम मानव के साथ सभी जीवधारियों को भुगतना पड़ते है
मनुष्य जो प्रकृति व अपने आसपास के जीवधारियों से कुछ न कुछ पाता ही रहता है,एक प्रकार से मानव प्रकृति का ऋणी हो जाता है ,और ये ऋण उतारना उसका परम् कर्तव्य हो जाता है ,ताकि प्रकृति का सहज सरल संतुलन बना रहे
मानव का आर्थिक ,
सामाजिक ,सांस्कृतिक ,राजनैतिक उत्थान प्रकृति के सहयोग के बिना असंभव है ।
हम कितनी भी बौद्धिक ,नैतिक बातें करें अगर हम प्रकृति के प्रति असहिष्णु है तो हमारी की गई बातें व्यर्थ है ।
प्रकृति ही वो केंद्र बिंदु है जिसकी परिधि पर जगत के सम्पूर्ण जीवधारियों का जीवन निरंतर घूमता रहता है जब तक कि वो जीव अपने समयानुसार निष्प्राण न हो जाये ।
मानव अपनी कुत्सित वासनाओ के चलते असमय प्रकृति के निर्धारित गति व सन्तुलन में गड़बड़ी उतपन्न कर
अपने लिए संकट पैदा कर लेता है ,और दोषी प्रकृति को ठहराता है ।
मानव को समझना ही होगा उसे प्रकृति के अनुसार चलना है नकी प्रकृति उसके अनुसार चलेगी ।
चलाने का प्रयास करेगा तो नष्ट हो जाएगा ।
पर्यावरण से छेड़छाड़ का परिणाम हम भुगत ही रहे है ।
अब भी नही संभले तो विनाश निश्चित है ।
प्रकृति मंगलमय व कल्याणकारी है , बगैर उसे छेड़े उसकी शरण मे बने रहो ।
धैर्यशील येवले