राजनीति में त्रिबिध बयार थे दवे जी

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जयराम शुक्ल

नर्मदा के नीर की तरह निर्मल निश्छल और पुराणकालीन अमरकंटक में बहने वाली त्रिबिध (शीतल,मंद,सुगंध)बयार से थे अनिल माधव दवे..जी हां उन्हें देखकर यही छवि उभरती थी।

मैं उनके निकट कभी नहीं रहा पर एक दूसरे को परस्पर जानने का क्रम चलता रहा। वजह चरैवेति..अनिलजी इस पत्रिका के कई वर्षों तक संपादक रहे। फिर ऐसा संयोग और स्थितियां बनी कि मुख्यधारा की पत्रकारिता छोड़कर ..मैंने चरैवेति के संपादन का दायित्व स्वीकार किया।

संपर्क के सेतु रहे एक कंपोजीटर जो मेरा लेख भी कंपोज करते थे और पार्टटाईम.. नदी का घर ..जाकर अनिलजी का भी। एकाधबार लेखों में गड्डमड्ड भी हुआ। बहरहाल मेरे संपादन में निकली चरैवेति को वे गंभीरता से पढ़ते और उनके विचार व प्रतिक्रियाएं तत्काल मुझतक आ जातीं।

मेरे संपादन में निकली चरैवेति के चौबीस अंकों में से बीस अंक राष्ट्रीय मीडिया की सुर्खियां बनी रहीं। वे अपनी अंतरंग बातचीत में कहा करते थे ..शुक्लाजी की स्पीड जरा ज्यादा ही तेज है ऐसे में भाई लोग उन्हें टिकने नहीं देंगे। उनका कहा सही रहा.. प्रकारांतर में माखनलाल राष्ट्रीय संचार और पत्रकारिता विश्वविद्यालय में मुझे मेरी रुचि का काम मिल गया। और स्वमेव चरैवेति से अलग हो गया।

दवेजी मेरे लिए हमेशा जिग्यासा और अध्ययन का विषय रहे..। उनके शांन्त सौम्य व्यक्तित्व के पीछे एक छापामार लडा़का भी है यह तब जाना जब वे दिग्विजय सरकार को ध्वस्त करने के लिए ..जावली..बनाया। जावली शिवाजी के वाँररूम का नाम था जहां उनकी युद्धरणनीति बनती थी। श्रीमान् बंटाधार..जुमला यहीं से निकला था।

शांत दवेजी राजनीति और चुनाव भी युद्ध के कौशल के साथ लड़ने पर विश्वास रखते थे उनकी नजर में प्रतिद्वंदी राजनीतिक सहधर्मी नहीं अपितु दुश्मन होता था जबतक कि हार-जीत का आरपार फैसला न हो जाए।

2013 के चुनाव की बात है। चुनाव के दौरान एक बार शिवराज जी के साथ ही दस बारह घंटे बिताने को मिले। उनसे भाजपा के एक नारे के बारे में पूछा..जो कि उस चुनाव में बहुत चर्चित हुआ था..ये युद्ध आरपार है बस आखिरी प्रहार है..क्या ऐसे नारे लोकतंत्र की भावना के लिए ठीक हैं? शिवराज जी ने जवाब दिया ..भला अनिलजी के सामने किसी की चलती है..। मतलब ये भी अनिल जी की जावली से निकला श्रीमान् बंटाधार की तरह एक मारक शब्दशस्त्र था।

अनिलजी वीर शिवाजी के परम अध्येता थे। उनपर किताब लिखी,,उनपर केंद्रित नाटक के भव्य मंचन करवाए। वे अपने काम में इतने डूबे रहते थे जैसे मछली पानी को ही अपनी दुनिया और जीवन समझती है। प्रचार, ब्रांडिंग से दूर ..दूर जहां यश की कोई लालसा नहीं।

सच्चे अर्थों में वे एक आदर्श स्वयंसेवक थे वही आचरण व संस्कार अंत समय तक ह्रदय में समाए रखेे। उनकी वसीयत उनके विशाल निश्पृह व्यक्तित्व का बयान है।

जब उन्हें केन्द्र में वन पर्यावरण मंत्री बनाया गया तो मुझे उम्मीद की किरण जगी कि एक समर्पित प्रकृतिप्रेमी और विषय विशेषग्य देश की वैदिक व पुरातन अरण्यसंस्कृति को समझेगा तदनुसार ही काम होगा। दवेजी ने उसका मंगलाचरण भी कर दिया था।

मुकुन्दपुर में बनी देश की पहली ह्वाईट टाईगर सफारी को लेकर वे उत्साहित थे। माननीय मंत्री राजेन्द्र शुक्ल से वे स्वभावतः बहुत स्नेह करते थे। दवेजी के मंत्री बनने के बाद जब वो पहली बार उनसे मिलने दिल्ली गए तो मेरी लिखी पुस्तक Tale of the white tiger भेंट की।

पुस्तक के लिए अनिलजी का काम्प्लीमेंट भी मुझे मिला। यह संदेश भी आया कि दिल्ली या भोपाल में मैं उनसे मिलूं। जीवन की आपाधापी में ऐसा संयोग ही नहीं मिल पाया कि अपने प्रेय से मिल सकूं तथा अमरकंटक को लेकर जो चिंता है उसे साझा कर सकूं।