कैसी बात करता है रे राजेश, क्या उल्टा पुल्टा लिखता है समझता नहीं है बच्चा है तू

Shivani Rathore
Updated on:

राजेश राठौर

बात उन दिनों की है जब..
पत्रकारिता के शुरुआती दिनों में मोती तबेला के कलेक्ट्रेट की पुरानी बिल्डिंग में मेरा रोजाना जाना हुआ करता था। यही कोई शाम चार बजे का समय होता था। उस दफ्तर के हर कमरे में देखने पर जो अफसर मिल जाता था उसी से खबरों की बात हुआ करती थी। नियमित रूप से बैठने वालों में डिप्टी कलेक्टर निर्मल उपाध्याय हुआ करते थे। जो तहसीलदार से नौकरी शुरू कर चुके थे। इसलिए सीधी भर्ती वालों की तुलना में वह व्यवहारिक कुछ ज्यादा थे। मेरी उम्र ज्यादा नहीं थी। पत्रकारिता में में नया था। खैर उस समय के कलेक्टर सुधीरंजन मोहंती के खास अफसरों में उपाध्याय गिने जाते थे। तीन चार मुलाकात के बाद ही उपाध्याय से अच्छी बातें होने लगी, और वह सब बातें मित्रता में कब बदल गई पता नहीं चला मुझे उपाध्याय जी कहते थे क्या करता है राजेश कोई भी खबर मिलती है, छाप देता है, जरा मेरे से बात कर लिया करो। मैं तेरी खबर ठीक करा दिया करुंगा। मुझे भी लिखने पढ़ने का बहुत शौक है। सरकारी नौकरी में हूं इसलिए लिख नहीं पाता।

अभी छोटा है रे राजेश समझता नहीं है। इस तरह के व्यंगात्मक स्टाइल से उनसे बात शुरू होती थी।में उनसे मजाक करने लगा था। बड़े अस्पताल का कायाकल्प हुआ तो उस समय के एडीएम सी बी सिंह को उपाध्याय जी ने मेरी शिकायत कर दी। उनको बोले यह लड़का आता है, कुछ ना कुछ कागज पढ़ कर चला जाता है और पता नहीं क्या लिखता है। आपके दफ्तर में भी बहुत बैठता है। इसको बोल दो यह प्रशासन के पक्ष में लिखा करें। अभी से नेगेटिव पत्रकारिता करेगा, तो आगे कैसे बढ़ेगा। अरे अच्छे काम भी तो होते हैं। सीबी सिंह ने मुझे कहा राजेश, निर्मल की बात सुना करो,यह अच्छी खबरें भी तुमको दिया करेगा। उसके बाद खबरों का सिलसिला और चलने लगा। बड़े अस्पताल का कायाकल्प हो या फिर जयपुर की तर्ज पर राजबाला के इलाके को एक कलर में करने का मामला हो। पहले एस आर मोहंती और उसके बाद गोपाल रेड्डी कलेक्टर थे। मोहंती के खास अफसरों को रेड्डी बिल्कुल पसंद नहीं करते थे।

एक दिन रेड्डी ने सीधे निर्मल उपाध्याय को बुलाकर कहा सराफा के एस डी एम हो राजबाडा की तरफ भी देखा करो। बताओ वहां क्या अच्छा कर सकते हैं। इंदौर की पहचान को और अच्छा बनाना है। बातचीत में मैं भी शामिल था यह तय हुआ कि जयपुर पिंक सिटी की तरह इंदौर के राजवाड़ा को भी एक कलर में किया जाए। कैसे होगा सबसे पहले राजवाड़ा का कलर बदलो। वहां के व्यापारियों से बात करो और इस काम को अंजाम दो। रेड्डी का फरमान था, उपाध्याय वहां से उठे और सीधे राजवाड़ा पहुंच गए। राजवाड़ा के गेट पर गाड़ी रोक कर चारों तरफ देखा और फिर प्लान को सक्सेस करने में लग गए। दुकानदार या बिल्डिंग मालिक कलर बदलने को तैयार नहीं थे। उनको भी मनाया कुछ मकान मालिक बोले कि हमने तो साल भर पहले ही पुताई कराई है। तो फिर उपाध्याय ने कलेक्टर रेड्डी से बात करके कहा कि एशियन पेंट वाले से बात कर लेते हैं। वह कलर उपलब्ध करा दें, तो फिर सब बिल्डिंग वाले तैयार हो जाएंगे।

इस काम को अंजाम देने के लिए एक बार सुबह और फिर शाम को उपाध्याय राजबाड़ा की टूटी – फूटी पुलिस चौकी में बैठकर सारे व्यापारियों को बुला लेते थे। आखिरकर लगभग महीने भर में काम पूरा हो गया। कलेक्टर रेड्डी खुश होने के बाद जो काम बोलते थे। वह सब काम निर्मल उपाध्याय बड़ी स्टाइल से करते थे। लगातार यह सिलसिला चलता रहा। इंदौर में ही रहने की मजबूरी के चलते लोक सेवा आयोग में भी पदस्थ हुए। बड़े अफसरों के प्रति वफादार थे। आम जनता से अच्छे से बात करते थे। किसी का काम करें या ना करें सामने वाले को नाराज होकर नहीं जाने देते थे। अपने सिर के बालों को संभालते हुए फाइल के पन्ने पलटते हुए कहते थे, क्या-क्या कर देते हैं ये सब। अब बताओ क्या करूं मैं, फिर घुमा फिरा कर फाइल का निपटारा कर देते थे। दंगे के दौरान लोगों को समझाना, शांति बनाए रखना। इस तरह के कई काम हंस – हंस के कर दिया करते थे। लगभग एक दशक तक उनके दफ्तर में आने-जाने का सिलसिला बना रहा। कई बार वह कहते थे बस रिटायर हो जाऊं फिर देखना, मैं बताता हूं कैसे लिखते हैं। कहानी, कविता और व्यंग पढ़ने के शौकीन थे।

साहित्यकारों का लिखा पढ़ते थे,और उनके बारे में बताने का भी शौक रखते थे। चाय हमेशा पिलाते थे, और ज्यादा कुछ कहो तो कहते थे घर आना बढ़िया खाना खिलाऊंगा। इंदिरा गांधी नगर में उनके घर भी जाना कई बार हुआ। फिर वे रिटायर हो गए। वह लगातार पुस्तक लिखने लगे। उनका ठिकाना बदल गया वह बाद में गुमास्ता नगर के नए घरौंदे में चले गए। वहां भी उनसे तीन- चार बार मुलाकात हुई। कई बार उन्होंने मुझे समझाया कहां सुबह से शाम तक तू इधर-उधर भटकता रहता है। तूने इंदौर में बहुत काम कर लिया। यहां पत्रकारिता में ज्यादा स्कोप नहीं है। तू भोपाल या दिल्ली चला जा। सही कह रहा हूं तेरे को मैं छोटा भाई मानता हुं। मेरी तू बात कम मानता है, वहां चला जाएगा तो पूरे देश में नाम होगा।

मैं उनकी बात को हमेशा हंस कर टाल देता था, लेकिन कई बार मुझे लगता था कि निर्मल उपाध्याय जी की बात मानना चाहिए। पर फैसला नहीं ले सका। कुछ दिनों पहले की बात है उनका मैसेज आया कि तेरे घर का पता भूल गया हूं। मेने कुछ किताबें लिखी है। में तेरे को पुस्तक भेजता हूं तेरे को,और सुन पुस्तक मिल जाए, तो फोन करना। उसके बाद जब उनको किताब भेजने के लिए धन्यवाद दिया कहने लगे पढ़ना जरूर। मैंने कहा अभी तो कोरोना से निकले हैं। समय मिलने पर जरूर पढ़ लूंगा। इस बीच आज ही मनहूस खबर आ गई की निर्मल उपाध्याय जी नहीं रहे। उनके बेटे निहित उपाध्याय इंदौर में परदेशीपुरा सीएसपी है। उपाध्याय जी आप हमेशा यादों में रहोगे और आपकी सीख भी मैं कभी नहीं भूल सकता। शायद आपकी मैं बात मान लेता और दिल्ली भोपाल चला जाता।

(श्री निर्मल उपाध्याय की अंतिम कविता )
दुखों की खुशामद है,,,
***
बेहयाई चलन की,
रिवायत  है,
उम्र कमाई नहीं,
सिर्फ लागत है।।
**0**
छुपाए रख सलाहियत से,
ज़ख्मों को,
यही अब ख़ुद्दारियों का,
स्वागत  है।।
**0**
ख़ुद ही की दहशतों में,
ज़िन्दा  हैं,
ज़िन्दगी जिनके लिए,
शराफ़त  है।।
**0**
क्या ग़रीबी क्या अमीरी,
हर  तरफ,
सुख तो यहाँ दुखों की,
ख़ुशामद  है।।
**0**
चलन में अब आदमीयत,
के  लिए,
झूठ की सच्चाई से,
हिफाज़त है।।
**0**
कर दिया है तरन्नुम ने,
साफ  ज्यों,
गीतों में सुगन्ध की,
इबादत है।।
**0**
सपेरों की भूख से,
शिकवा नहीं,
बीन के माधुर्य  से,
शिकायत है।।
**0**
कैरियों को चूमते,
पत्ते  मिले,
हवाओं के नाम पर,
शरारत  है।।
**0**
ज़िन्दगी के मंच पर,
कोहराम है,
रूह से क़िरदार की,
बगावत  है।।

शत शत नमन
राजेश राठौर