पर्व संस्कृति/जयराम शुक्ल
दीपावली की रात के बाद होने वाली सुबह अजीब मनहूसियत से भरी होती है। वैसे भी यह परीबा(प्रतिपदा) का दिन होता है,इसमें आना-जाना निषिद्ध माना जाता है।
परंपरा के इस विधान के पीछे पुरखों ने निश्चित ही कोई ठोस कारण पाया होगा। पहले तो बाजारों में भी कर्फ्यू सा सन्नाटा रहता था। अखबारों में दो दिनों की छुट्टियां मिलती थीं। अब वैसा नहीं रहा। कमाने की होड़ के आड़ेे कोई रीति-रिवाज आए तो बाजार की ताकतें उसे नहीं बख्शतीं।
पटाखें, आतिशबाजी, धूमधड़ाके भी बाजार ने ही रचे हैं। बिजली के जुगनुओं और मरकरी के झरनों के बीच बेचारा माटी का दीया टिमटिमाता हुआ किसी अनाथ की औलाद सा उपेक्षित दिपदिपाता रहता है।
दीपावली के रात के उत्सव की जूठन ऊषा को ढोनी पड़ती है। साफ सुथरी सड़कों पर पटाखों और बमों की लड़ियों के खोखे यहां वहाँ ऐसे पड़े रहते हैं जैसे जश्नबाजों ने जोेश में निशा की चिंदी-चिंदी, धज्जी-धज्जी बिखेर दी हो।
लिपे-पुते दरवाजे और आँगन की अधपुछी रंगोलियां देखकर ऐसा भाव उमड़ता है कि कहने और सुनने वाले का कलेजा कँप जाए। ये बाजार की दीपावली का वीभत्स रूप है जिसने हमारी परंपरा को धता बताकर कब्जा कर लिया है।
हमारी सभ्यता में दीपावली तो प्रकृति के अनुष्ठान का अनूठा पर्व रहा है। घर से कूडे़करकट के दारिद्र्य को विसर्जित करने का। घर की दर ओ दीवारों में रंगरोगन करके छः महीने बाद होली तक के पुनर्यौवनीकरण का। यह कृषि का पर्व है। खरीफ की फसलें किसानों के भंडार को धनधान्य से परिपूर्ण कर देती थी।
उल्लासित किसान प्रकृति के इस उपकार का प्रतिदान दीपमालिकाओं से आरती उतारकर करता था। सद्यनीरा नदियों को दीपदान करता था। वन और पर्वत पूजे जाते थे। धनवंतरि दिवस को बाजार ने धनतेरस बना दिया। वस्तुतः यह दिन रस और औषधियों के पूजन का है। धनवंतरि कौन..रस और औषधियों के भगवान्। अर्चना होती थी….हे भगवन सभी जनों को निरोगी रखिए।
प्रकृति की हर वनस्पति औषधि है,किसका प्रयोजन कहां है इसका ग्यान भगवान् धनवंतरि की कृपा से प्राप्त होता है।
अब यह धनतेरस है। सोना, चाँदी कुछ न कुछ तो खरीदना ही होगा। तभी वर्ष भर सौभाग्य जागता रहेगा। इस एक दिन अरबों की खरीदारी हो जाती है। गरीब आदमी एक लोटा ही खरीद कर संतोष कर लेता है।
बाजार के टोटके से संसारी मनुष्य डर जाता है। उसका विवेक तेल लेने चला जाता है। जो विवेक की बात करता है वह कबीर की तरह विधर्मी घोषित कर दिया जाता है। पर बाजार भी रहेगा और कबीर की परंपरा भी।
बाजार कैसे टोटके रचता है गौर करने की जरूरत है। कभी पितरपक्ष में नई खरीदारी मना थी। ये पंद्रह दिन बाजार सूखा रहता था। पिछले कुछ सालों से देखने को आने लगा है कि अखबार और प्रचार मीडिया विग्यापनों से भर जाता है। उपभोक्ताओं को यह ग्यान दिया जाता है कि इन दिनों की खरीदारी से पुरखे तृप्त होते हैं। बाजार के पारखी इन पंद्रह दिनों सीधे पुरखों से कनेक्ट रहते हैं और विग्यापन के जरिए उनका संदेश इहलोक में लाते रहते हैं।
सो इस तरह प्रकृति के इस महापर्व को शुभ-लाभ और बहीखाता का त्योहार बना दिया। तुलसी ने कहा-सबहि नचावत राम गोसाईं। अब हमें बाजार नचाता है अपने हिसाब से। त्योहार तो निमित्तमात्र है।उसकी आत्मा बाजार के डीलरों के यहां न जाने कब से गिरवी है। कौन शंकराचार्य, विवेकानंद, स्वामी दयानंद सरस्वती आएंगे रेहन से मुक्त कराने।
दीपावली के दूसरे दिन गोवर्द्धन पूजा होती है। ये पहाड़, वन,नदी झरने की पूजा का दिन है। कृषि संस्कृति के आराध्य भगवान् कृष्ण ने इसी दिन इंद्र के टोटके का खंडन किया था।
इंद्र वृष्टि का देवता। कृष्ण ने ब्रजवासियों से कहा यग्य याग में इसे चौथ मत दीजिए। ये फोकट का देवता है। पूजना है तो गोवर्द्धन पर्वत को पूजिए। यही आपका आश्रयदाता है। यही आपकी गायों को चारा देता है। इसीकी वनस्पतियों की औषधि से आप आरोग्यवान हैं। यही अपने वक्षस्थल में वर्षा के जल को जज्ब करके बारहों महीने आपकी खेती को अभिसिंचित करता है।
कृष्ण वस्तुतः वैग्यानिक थे,आदि पर्यावरणविद् ब्रजवासियों के माध्यम से सकल विश्व को शिक्षा दे दिया। लौकिक देवताओं को पूजिए जिनका प्रत्यक्ष योगदान आपके जीवन में है। कल्पित देवता बेमतलब। वे सब कर्मकांडियों के टोटके है।
हमने कृष्ण जैसे महान वैग्यानिक, कृषिवेत्ता,आदि पर्यावरणविद् को भी कर्मकांडीय देवता बना लिया। धर्म का भी एक समानांतर बाजार होता है। इस.बाजार की ताकतें बड़ी भयकंर होती है। इस धरमबाजार ने ही हमारे पर्वों के मायने बदल दिए।
दीपावली राम और कृष्ण के समन्वय का पर्व है।भगवान राम ने दशहरा के दिन रावण का वध किया। दीपावली के दिन वे अयोद्धा पहुंचे। समूचे नगर को दीपमलिकाओं से सजाया गया। राग रागिनियाँ छेड़ी गई। नर-नारी,गंधर्व, यक्ष,किन्नर का क्या कहिए पशु पक्षी भी रात पर चहके।
गायें रभांईं, घोड़े, हिनहिनाएं, हाथियों ने रजोत्सव मनाया, बिल्लियां म्याऊं-म्याऊँ की, कुत्तों ने पूंछ हिलाते हुए समूची रात कूंकूं किया, गौरय्या रात भर फुंदकी, तोता-मैना ने राम गुणगाथा सुनसुनाकर भिंसार किया, कोयल सारी रात कूकती रही, हर कौव्वे मानो कागभुशुण्डि बन गए हों,गरुण हिंसकवृत्ति छोड़कर कौव्वों के सामने रामकथा के यजमान बने रहे।
भगवान् राम के अयोद्धा आगमन पर जड़चेतन सभी हुलसित रहे। दीपमलिकाओं की रोशनी से नहाए अयोध्या को मानो पुनर्जीवन मिला हो। ये थी अयोध्या की दीपावली जिसमें नर-नारी, पशु-पक्षी सभी शामिल रहे।
और अब अपनी इस दीपावली में..? सुबह-सुबह रोशनदान पर बैठने वाली गौरय्या आज नहीं दिखीं, पटाखों और बम के धमाकों ने उनका घोसला उजाड़ दिया। जमीन पर उनके अंडों की जर्दी रंगोली के रंग से सनी सी दिखी।
सुबह शहर की एक फेरी लगाया, कहीं एक भी पक्षी नहीं दिखे। रात को बाघिन सा तेवर दिखाने वाली मेरी कुतियाएं लाइका- ब्लैंकी कल शाम से ही स्टोर रूम में दुबकी है। सड़कों पर विचरने वाले बेसहारा मवेशी भी रातभर कहीं दुबके दुबके से रहे।
हमने रातभर पटाखे फोड़े, रस्सी बम चलाए,आसमानी आतिश की। दीपावली मनाई। सोचिए इस प्रकृति में क्या सिर्फ आदमियत का दर्प ही नर्तन करेगा, त्योहारों के नाम होने वाले मिथ्याचार पर।
क्या इस आराधन को ईश्वर, धरती, पवन, पावक, जल, व्योम, प्रकृति माता स्वीकार कर सकेंगी..। आज सुबह एक बार फिर अपने शहर की सैर करिये.. उन पेंडो के घोसलों में तजबीजिए ..जहाँ कलतक पक्षी चहचहाते थे..। अपने आँगन और खिड़कियों की उस जगह को निहारिए जहां कलतक गौरय्या फुदकती थी और शाम ढले बसेरे में लौट जाती थी। अंदर से अहसास करिए..कितने क्रूर हैं हम लोग। अगली दीपावली में यह जरूर सोचिएगा..।