किस तरह महारष्ट्र में बढ़ी सूबे की सियासत, कैसे बनाई बाला साहेब ठाकरे और शरद पवार ने अपनी जगह

Share on:

चुनावी अखाड़े में खड़ा महारष्ट्र का हर बाज़ीगर परेशान है। कुछ के सामने सत्ता में बने रहने की चुनौती है, तो कुछ के सामने सियासी वजूद बनाये रखने की और कुछ प्रतिष्ठा की लड़ाई लड़ रहे हैं।

राजनीतिक दलों के बीच कभी चुनाव गठबंधन का इतिहास भी कुई मौकों पर छापामार युद्ध की तरह दिखता है। कभी चुनाव अलग-अलग लड़े और बाद में सत्ता के लिए हाथ मिला लिया। कभी चुनाव लड़े तो साथ-साथ, लेकिन नतीजों के बाद रास्ता बदल लिया। वोटिंग से पहले और वोटिंग के बाद क्या इस बार भी ऐसा ही होगा? क्या महाविकास अघाड़ी और महायुति एक जुट रह पाएगा? क्या सीटों के बंटवारे पर एक-दूसरे में खींचतान नहीं होगी?

अबकी बार महाराष्ट्र में सबसे बड़ा मुद्दा क्या होगा- ये भी एक बड़ा सवाल है? क्या महाविकास अघाड़ी EVM को चुनावी मुद्दा बनाएगी या फिर चुनावी अखाड़े में मराठा आरक्षण, किसानों का मुद्दा, क्षेत्रीय अस्मिता और असली बनाम नकली की लड़ाई पर लहर बनाने की कोशिश होगी?

1990 का दशक आते-आते मराठी लोगों के हक-हकूक की बात करने वाली शिवसेना महाराष्ट्र में एक बड़ी राजनीति ताकत के तौर पर उभर चुकी थी। मुंबई में उस दौर में बाला साहेब ठाकरे का Power, Influence और Charisma तीनों साफ-साफ दिखने लगा था। दूसरी तरफ मुख्यमंत्री के रूप में शरद पवार नेकुछ निर्दलीयों के समर्थन से शपथ ली, लेकिन कुछ महीने बाद ही वो दिल्ली की राजनीति में बड़ा आसमान तलाशने पहुंच गए। लकिन लेकिन प्रधानमंत्री की कुर्सी पी.वी. नरसिम्हा राव को मिल गई।

इस दौरान दिल्ली की राजनीति में शरद पवार शतरंज पर गोटियां तो लगातार आगे-पीछे कर रहे थे, लेकिन उन्हें खास कामयाबी नहीं मिल पा रही थी। उन्होंने ऐसे में सोनिया गांधी के विदेशी मूल के मुद्दे को आगे करते हुए कांग्रेस से रिश्ता तोड़ लिया और नई पार्टी बना ली- राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी। 1999 में कांग्रेस और NCP यानी दोनों पार्टियां अलग-अलग चुनाव लड़ीं, लेकिन चुनाव के बाद सरकार बनाने के लिए गठबंधन में भी देर नहीं लगी।