दायम पड़ा हुआ तेरे दर पर नहीं हूं मैं, खाक ऐसी जिंदगी पे के पत्थर नहीं हूं मैं

Suruchi
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जयश्री पिंगले

गालिब की यह गजल और कांग्रेस का दास्तान ए हाल इन दिनों एक जैसा है.  मोहब्बत में बेबस माशूक  नजर ए  इनायत के लिए तड़प रहा है लेकिन उधर तो बेदिली का आलम है. कांग्रेस के मजबूत होने की उम्मीद पाले  नेताओं और कार्यकर्ताओं को फिर से झटका लगने वाली खबर यह है कि – राहुल गांधी  ने 2 अक्टूबर से शुरू होने वाली भारत जोड़ो यात्रा को लीड करने से इंकार कर दिया है. राहुल की लीडरशीप की आस बांधे नेताओं के लिए  उदासी फिर  दिल तोड़ने वाली है.

कांग्रेस की आज की बेहाली पर बात करने से पहले पिछले डेढ़ दशक का दौर नजरों से गुजर रहा है. जब राहुल ने अपनी चुनावी चुनावी राजनीति को  बस शुरू ही किया था. वर्ष 2006 की बात है. यह यूपीए एक की सरकार थी. सोनिया गांधी रिमोट से देश की सरकार चलाकर एक पावरफुल नेता के बतौर उभर चुकी थी.  यूपीए अध्यक्ष और सांसद रहते   लाभ के  पद वाले एपिसोड  में उन्होंने रायबरेली की अपनी संसदीय सीट छोड़ी थी और फिर से इलेक्ट होने के लिए चुनाव लड़ रही थीं. वे ज्यादातर खुद संसदीय क्षेत्र से नदारद थीं. लेकिन राहुल गांधी  चुनाव संपर्क में लगे हुए थे.

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वह चुनाव कवर करने के लिए मैं  रायबरेली में थी.  बीजेपी ने अपने फायरब्रांड लीडर विनय कटियार को मैदान में उतारा था. जो इटालियन मूल के मुद्दे में अपने चुनाव को झोंक रहे थे. नजारा बड़ा दिलचस्प था. मैं राहुल गांधी से  मुलाकात करना चाहती थी. मैंने दिल्ली में पार्टी के एक ताकतवर महासचिव को फोन लगाया और उनके प्रभाव  से मैं राहुल गांधी के एक छोटे से काफिले के साथ शामिल हो गई. चुनाव प्रभारी त्रिपाठी ने बताया कि रायबरेली के ग्रामीण इलाके में एक जगह पर मेरी मुलाकात राहुल गांधी से हो सकती है. वे बात करेंगे या नहीं इसकी ग्यारंटी  नहीं क्योंकि कोई भी उनका समय तय नहीं कर सकता. मुझे चांस लेना होगा.

मैं समय पर उस जगह पहुंच गई. खेतों – खलिहानों से गुजरती उस सड़क पर गेहूं की कटाई हो चुकी थी और जमीन फिर से तैयार होने की बाट जोह रही थी. मई का महीना था. आसमान से अंगारे बसर रहे थे. सुनहरी भूरी जमीन पर खुशहाली पसरी हुई थी. वजह थी जगह जगह दिखाई दे रहे आम के विशाल पेड़. जिसकी झुरमुट में कहीं कहीं तो सूरज भी ओट में छिप रहा था. कुछ देर के इंतजार के बाद ही वहां सफेद रंग की सफारी में राहुल गांधी पहुंचें. उनकी गाड़ी कांग्रेस नेता केप्टन सतीश शर्मा चला रहे थें. राहुल उनकी पास वाली सीट पर बैठे थे पीछे वाली सीट पर वहां का ब्लाक अध्यक्ष और विधायक मौजूद था. कुल जमा पांच लोगों के साथ राहुल अपना केंपेन चला रहे थे.

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राहुल ने पहले तो बातचीत से इंकार कर दिया. जब मैंने उन्हें बताया कि मैं भोपाल से आई हूं चुनाव कवर करने के लिए और सिर्फ दो – तीन सवाल ही पुछूंगी तब वे कुछ राजी हो गए. तब वे हिंदी नहीं ठीक से नहीं बोल पाते थे. उन्होंने दार्शनिक अंदाज में सपनों के भारत को लेकर अपने विचार रखे और खुद को एक राजनीति सीख रहे युवा नेता के बतौर पेश किया. करीब 15 मिनिट बात होती रही. वे सीधी और साफगोई से बात कर रहे थे. यूपीए सत्ता में थी वे गरीबी, बच्चे, एज्युकेशन बेरोजगारी पर बात कर रहे थे. थोड़ी देर बाद उन्होंने  आम के पेड़ों के नीचे बैठकर खाना खाया. पूरे माहौल  में गजब की नीरवता थी. वह बिलकुल राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की शैली वाला चुनाव प्रचार मुझे दिखाई दे रहा था अनुशासन से भरपूर.

किसी  नेता को राहुल के साथ गाडियों का हुजूम लगाने या भीड़ लगाने की इजाजत नहीं थी. वहां के एक नेता ने मुझे बताया भीड़ लगाई , अनुशासन तोड़ा तो पत्ता साफ हो जाएगा. जो पीछे बैठे तीन लोग हैं वे भी जगह जगह पर बदल जाते हैं. जिसका क्षेत्र होता है वो ही गाड़ी में बैठ पाता है. अब दूसरी ओर भाजपा का केंपेन था –  विनय कटियार को पता था कि वे हारने के लिए चुनाव लड़ रहे हैं लेकिन उनका जोशों खरोश उफान पर था.  पार्टी में उनके विरोधी रहे राजनाथसिंह अध्यक्ष बन चुके थे. अयोध्या आंदोलन के हीरो के बतौर उभरे कटियार अपनी चुनावी रैलियों को एक अवसर मानकर खूब गरमा रहे थे .

खूब रेलमपेला खूब भीड. हालांकि बीजेपी की अंदरूनी हालत तब खस्ता थी. मायावती और मुलायम सिंह की सरकार ने दम निकाल दिया था कार्यकर्ताओं का मिलना मुश्किल था. लेकिन कटियार के लिए विहिप और बजरंग दल के लोग देश भर से आ रहे थे. विपक्ष क्या होता है और हारने के लिए भी चुनाव कैसे लड़ा जाता है इसका बेहतरीन उदाहरण कटियार थे. तीसरा घटनाक्रम प्रियंका गांधी का था. चुनाव प्रचार खत्म होने से एक दिन पहले प्रियंका प्रचार के लिए पहुंची थीं. तब प्रियंका को सिर्फ अमेठी और रायबरेली में ही देखा जा सकता था. प्रियंका के पहुंचते ही रायबरेली में जैसे  चप्पे चप्पे पर चुनावी करंट फैल गया था.

प्रियंका को देखने सुनने के लिए हर गली हर सड़क जाम हो गई थी. जबरदस्त सैलाब और सधी हुई हिंदी में युवा प्रियंका गांधी एक करिश्माई नेता की तरह दिखाई दे रही थी. रायबरेली के स्थानीय कांग्रेस नेताओं मे जबरदस्त जोश और उफान था. क्योंकि वे कार्यकर्ताओं से बात करती थी, कईयों को तो सीधे नाम से पहचानती थीं. स्थानीय नेता  मुझे बार बार यह बताने की कोशिश कर रहे थे-  अगर प्रियंका ने पूरे उत्तरप्रदेश की चुनाव कमान संभाल ली तो मुलायमसिंह, मायावती एक की पार्टी नहीं टिक सकती है. कांग्रेस फिर यूपी का गढ़ हासिल कर लेगी.

ये नेता चूंकि रायबरेली के थे इसलिए दिल्ली दरबार में उनकी पहुंच दूसरे कार्यकर्ताओं के मुकाबले थोड़ी बेहतर थी. लेकिन फिर भी सीधे सोनिया गांधी , प्रियंका या राहुल से मिलना संभव नहीं था. वे अहमद पटेल तक पहुंच जाते थे.
कांग्रेस कार्यकर्ताओं की मांग को पूरा होने में 15 साल लग गए.  अब कहीं जाकर प्रियंका गांधी यूपी चुनाव की  स्टार केंपेनर बनीं. सबसे बुरा लेकर लौटीं. क्योंकि वक्त भी इंतजार करते करते थक गया और दूसरे नेताओं की तरह उसने भी साथ छोड़ दिया.

रहा सवाल राहुल गांधी का तो आज भी उन्हें ड्राइविंग सीट पर नहीं बैठना है. तब केप्टन सतीश शर्मा चला रहे थे आज कोई और. भीड़ से अलग –थलग पांच दस लोगों की कोटरी में उनकी कांग्रेस चल रही है. सीधा मिलना दरबार लगाना , भीड़ में चलना उनके बस में नहीं. राहुल नहीं तो फिर कौन ? उम्र के सत्तर दशक पूरे कर चुकीं सोनिया गांधी को लेकर एक अखबार के मालिक मुझे दिल्ली में बताते थे उन्होंने कई बार सोनिया गांधी से मिलने के लिए समय मांगा था नरसिंह राव की सरकार थी, फिर यूपीए के समय भी लेकिन कभी वे नहीं मिली. आज अगर राहुल स्वीकर करते हैं कि कांग्रेस और जनता के बीच संपर्क टूटा है तो इसकी कड़ी यहीं मिलती है. कांग्रेस के चिंतन और नवसंकल्प से तैयार हुई भारत जोड़ो यात्रा फिलहाल तो  पुर्नउत्थान का रास्ता तय करती नहीं दिखती.