रविवारीय गपशप : हिंदुस्तान के अनेक प्रांतों में बोली जाने वाली हिंदी भाषा के प्रेम की आसक्ति कैसी होती है – आनंद शर्मा

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इसमें कोई शक नहीं कि हिंदी का कोष अत्यंत उदार व सहिष्णु है , हिंदुस्तान के अनेक प्रांतों में बोली जाने वाली बोलियों में सहज प्रवाह मान इस भाषा में अनेक भाषाओं यथा आंग्ल , रोमन , पूर्तगीज के शब्द ऐसे घुल मिल गए हैं मानो वे सदा से ऐसे ही थे । हिंदी भाषा के प्रेम की आसक्ति कैसी होती है ये मैंने अपने पहले विदेश प्रवास में जाना ।

परिवहन विभाग में पदस्थापना के दौरान सन 2007 में मुझे एक प्रशिक्षण कार्यक्रम के तहत एक माह के लिए सिंगापुर जाने का मौक़ा मिला । तक़रीबन तीस देशों के प्रतिनिधि इस ट्रेनिंग में थे , भारत से मैं अकेला था , लेकिन प्रतिनिधियों के बीच एक साथी नेपाल से और एक भद्र महिला मारिशस से थी | हम तीनों ही हिंदी बोलते थे , तो बड़ी जल्द ही हम लोगों का एक समूह बन गया , जब भी मौक़ा मिलता हम साथ ही विचरण करते , कई बार तो हमारे साथी हमें आपस में हिंदी में बात करने पर टोकते भी थे , प्लीज़ स्पीक इन इंग्लिश ! सिंगापुर में एक जगह है लिटिल इंडिया , जो दरअसल दक्षिण भारतीय लोगों की बहुतायत आबादी का क्षेत्र है ।

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लिटिल इंडिया में ही एक भीमकाय मॉल है “मुस्तफ़ा” जिसमें परिचारक और विक्रयकर्ता लड़के लड़कियाँ हिंदी बोलते थे और जो हम हिंदी भाषी प्रतिनिधियों के समूह का पसंदीदा गंतव्य स्थल था । एक बार मुस्तफ़ा मॉल में घूमते हुए , डिजिटल गेजट और लेपटोप के काउण्टर पर एक नवयुवक से बात करने पर मुझे लगा उसका लहजा बिहारी है , मैंने उससे पूछा क्या आप बिहार के हो ? तो उसने मुस्कुरा के कहा नहीं मेरे अभिभावक बिहार के थे , बरसों पहले वे यहाँ आ गए थे , मैं तो पैदा ही सिंगापुर में हुआ हूँ और कभी बिहार गया ही नहीं ।

मुझे ये जान कर आश्चर्य हुआ कि बिहार से अब कोई ताल्लुक़ ना रहने के बाद भी उसका बात करने का लहजा एकदम बिहारी था , जड़ें कहाँ तक असर फैलाती हैं । ये इलाक़ा हमारे लिए बड़ा मुफ़ीद था , एक तो हिंदी में बात करने की सुविधा और दूसरा इस क्षेत्र में आसानी से उपलब्ध हो जाने वाला भारतीय खाना | एक दिन की बात है , मैं उस दिन अकेला ही था और थोड़ी बहुत ख़रीददारी करने के बाद उस क्षेत्र में स्थित एक उत्तर भारतीय भोजन प्रदान करने वाले रेस्टोरेंट में बैठा खाना खा रहा था तभी एक नौजवान मेरी मेज के पास आया और अंग्रेज़ी में मुझसे कहने लगा कि “क्या मैं यहाँ बैठ सकता हूँ “ ।

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देखने से वो भारतीय मूल का लगा , मैंने हाँ कहा तो उसने बैठते ही पूछा , क्या मैं आपसे हिंदी में बात कर सकता हूँ ? मैंने कहा , बेशक , और फिर उसने बैठ कर ढेर सारी बातें कीं । बातों से ही पता लगा की वो भारत से पिछले नौ वर्षों से बाहर था , छह साल हांगकांग और फिर तीन सालों से सिंगापुर , मुंबई का रहने वाला था , कहने लगा , भाई साहब सालों घर नहीं जा पाता हूँ , इस इलाक़े में हिंदी बोलने वाले लोग मिल जाते हैं , तो लोगों से अपनी भाषा में बात करके घर का अहसास कर लेता हूँ । सो उस दिन हिंदी में बात करने के लिए बेक़रार उस नौजवान से मैंने बात की और परदेस में उसकी भाषा की क्षुधा को मिटाया । सच तो यह है कि यहाँ अपने देश में जहाँ हम अपनी भाषा में बात कर सकते हैं वहाँ हम अपना रौब झाड़ने अंग्रेज़ी बोलते हैं और बाहर जाकर अपनी बोली बोलने को तरस जाते हैं ।