अरुण दीक्षित। अन्य शरीरधारियों की तरह आखिर उन्होंने भी अपना शरीर त्याग ही दिया। इस शरीर में वे पूरे 99 साल तक रहे, कुछ महीने और मिल जाते तो वह पोथीराम उपाध्याय से जगतगुरु शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती तक के अपने इस सफर में एक कीर्तिमान और स्थापित कर जाते।
द्वारिका पीठ और ज्योर्तिमठ पीठ के शंकराचार्य की पदवी पाने के दौरान उन्होंने देश में ही नही दुनियां के हिंदू समाज में अपनी अलग छवि बनाई थी। करीब 4 दशक तक वह शंकराचार्य के रूप में शिखर पर सक्रिय रहे। इस दौरान विवादों से भी उनका नाता रहा। एक दौर ऐसा भी आया जब वे संन्यासियों के बीच अकेले पड़ते दिखाई दिए। लेकिन उन्होंने अपना रास्ता नहीं बदला और न ही दवाब के आगे झुके।
यूं तो मध्यप्रदेश अपने माहौल की वजह से साधु संन्यासियों को विशेष रूप से आकर्षित करता रहा है। अमरकंटक से उज्जैन तक अनेक मठ मंदिरों में देश के विभिन्न इलाकों से आए सन्यासी मिल जाएंगे। हर धर्म के विशेष तीर्थ स्थल इस राज्य में हैं।लेकिन स्वरूपानंद जी का इस राज्य से विशेष नाता था।
उनका जन्म प्रदेश के सिवनी जिले के दिघौरा गांव में 2 सितम्बर 1924 को पंडित धनपति उपाध्याय के घर जन्में शिशु को उसकी मां गिरिजा देवी ने नाम दिया – पोथीराम उपाध्याय। पोथी का अर्थ होता है पुस्तक गिरिजा देवी चाहतीं होंगी कि उनका बेटा पढ़ लिख कर ज्ञानी बने। शायद यही वजह होगी उन्हें अपने जिगर के टुकड़े के लिए “पोथी” नाम सबसे उपयुक्त लगा।
लेकिन नियति ने उनके लिए कुछ और सोचा था। इसी के चलते मां का प्यारा पोथी आज “दुनियां का ग्रंथ” बन कर संसार से विदा हुआ। बताते हैं कि 9 साल की उम्र में पोथीराम घर छोड़ धर्म यात्रा पर निकल गया। उसके बाद मुड़कर नहीं देखा। काशी पहुंच कर स्वामी करपात्री जी महाराज से ज्ञान प्राप्त किया।उनके सानिध्य में वेद और शास्त्र पढ़े। उन दिनों देश में आजादी की लड़ाई चल रही थी। धर्म ग्रंथ पढ़ते पढ़ते युवा पोथीराम के दिल में भी बगावत की लौ जली।19 साल की उम्र का युवा संन्यासी क्रांतिकारी बन गया। 1942 की आजादी की लड़ाई में उन्होंने खुलकर हिस्सा लिया, जेल भी गए। वे अपने गुरु करपात्री जी महाराज की राम राज्य परिषद के अध्यक्ष भी रहे। यह एक राजनीतिक दल था।
आजादी के बाद इस क्रांतिकारी सन्यासी ने 1950 ने दंड सन्यास दीक्षा ली।उन्हें शारदा पीठ के शंकराचार्य स्वामी ब्रह्मानंद सरस्वती ने दीक्षा दी।साथ ही नाम दिया स्वरूपानंद सरस्वती। 1981 में वह शारदा पीठ के शंकराचार्य बने। अपने पूरे जीवनकाल में स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती अपनी साफगोई के लिए जाने जाते रहे। उन्होंने अयोध्या में राम मंदिर के लिए कानूनी लड़ाई लड़ी। लेकिन वे पिछलग्गू संन्यासियों की भीड़ का हिस्सा नहीं बने।यही वजह थी कि परदे के पीछे से मंदिर की लड़ाई के सूत्र संभालने वाली भाजपा से उनकी कभी नहीं पटी।
मैं मध्यप्रदेश से पिछले 29 साल से जुड़ा हूं। स्वामी स्वरूपानंद से मेरी मुलाकात पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के किले राघौगढ़ में हुई थी। दिग्विजय स्वामी के शिष्य हैं। स्वामी उनके राघौगढ़ में प्रवचन देने आए थे। मैं पत्रकार की आंख से मेला देखने गया था। ठाकुर हरवंश सिंह ने देख लिया। वे पकड़ कर स्वामी जी के पास ले गए।स्वामी जी ने गौर से मुझे देखा, नाम पूछा बिना कुछ कहे प्रसाद में एक सेव दिया। फिर दूसरे व्यक्ति से बात करने लगे। मैं भी वहां से हट गया यही हमारी पहली और आखिरी मुलाकात थी।
बाद के सालों में उनके बयानों को लेकर कई विवाद हुए।स्वामी जी ने साईं बाबा को लेकर बड़ा बयान दिया था। उनका कहना था – साईं भगवान नही थे।उनका अवतार नही हुआ था। उनकी पूजा गलत है। उन्होंने इस्कॉन पर भी सवाल उठाया था। वे कहते थे ये गोरों का खेल है। वे हिंदुओं से सीख कर उनसे ज्ञान लेकर,उन्हें ही ज्ञान बांट रहे हैं, यह दुखद है। वे हिंदू समाज में आई विकृतियों पर भी खुल कर बोलते थे।
1990 में राम मंदिर के लिए जो आंदोलन शुरू हुआ और जो शक्ल उसने अख्तियार की, उससे स्वामी स्वरूपानंद खुश नही थे। उन्होंने पूरी ताकत से अपनी बात कही। कभी भीड़ में शामिल नहीं हुए, यही वजह थी कि उन्हें “कांग्रेसी स्वामी” कहा गया।लेकिन स्वामी जी ने इसका बुरा नही माना। यह भी सच है कि ज्यादातर कांग्रेसी नेता उनके शिष्य हैं। खासतौर पर दिग्विजय सिंह ने उन्हें बहुत सम्मान दिया। बड़ी संख्या में नौकरशाह भी उनके शिष्य थे।
मध्यप्रदेश उनका अपना प्रदेश था। इसी वजह से उन्हें इस राज्य से कुछ ज्यादा ही प्यार था। उन्होंने गोटेगांव के पास अपना भव्य आश्रम बनाया था। झोतेश्वर धाम से मशहूर उनके इस आश्रम में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी भी आई थीं। पिछले तीन दशक में स्थानीय स्तर पर भाजपा नेताओं ने उन पर कई बार हमले किए।लेकिन स्वामी जी कभी भी इन हमलों से विचलित नही हुए। वे हमेशा अपनी बात पर कायम रहे।अपने समकालीन संतों की तरह न तो किसी के पीछे खड़े हुए और न ही किसी आगे झुके।
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उनका अनुयाई संसार बहुत विशाल था।आज जब उन्हें समाधि दी जा रही थी तब भारी संख्या में लोग उनके अंतिम दर्शन को मौजूद थे।यह जनसमूह इस बात का प्रमाण था कि दिघोरी के पोथीराम से स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती तक का सफर तय करने वाले स्वामी जी सच में महान थे।
इसीलिए तो कहते हैं -अपना एमपी गजब है।