शेरनी (फ़िल्म रिव्यू ) : फ़िल्म में न तो रोमांच है, न रोमांस..

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शेरनी (फ़िल्म रिव्यू )
लेखक – आनंद शर्मा

आतिश का वो मशहूर शेर तो आप सब को याद ही होगा ; “बड़ा शोर सुनते थे पहलू में दिल का , जो चीरा तो एक कतरा-ए-खूँ ना निकला” | नक्सल और चुनाव जैसे विषय पर सलीके से बनी फ़िल्म से मशहूर हुए अमित मसूरकर की ये फ़िल्म अपने नाम के विपरीत कुछ फीकी फीकी सी है | विध्या विंसेंट ( विध्या बालन ) भारतीय वन सेवा की अधिकारी है , जो सालों मुख्यालय पदस्थापना के बाद फ़ील्ड पोस्टिंग में डी एफ़ ओ के पद पर आयी हुई है | माहौल चुनाव का है और जी के सिंह ( अमर सिंह परिहार ) और पूर्व विधायक पी के सिंह ( सत्यकाम ) के बीच मुक़ाबला है |

जंगल में एक बाघिन है टी12 , जो गाँव के मवेशियों को शिकार करते करते कुछ ग्रामीणों को भी अपना शिकार बना देती है | पी के सिंह गाँव वालों को जंगल विभाग के प्रति भड़काता है और जी के सिंह तो अपने आदमियों के साथ जंगल में शेरनी को खदेड़ने ट्रेक्टर ले कर घुस जाता है | वन विभाग के बेबस अधिकारी- कर्मचारी घोषित उपायों को आज़माने बेबस खड़े रहते हैं | विध्या पाती है की ठेकेदार भी राजनीतिक रसूख़ वाला है और बंसल ( बृजेंद्र काला ) जैसे उच्चाधिकारी भी इन लोगों से भयाक्रांत इनके इशारों पर वो सब करने को तैयार हैं जो जंगल और जानवर दोनों के विपरीत है | ऐसे में उसे साथ मिलता है कालेज में ज़ूलाजी के प्रोफ़ेसर हसन नूरानी ( विजय राज़ ) जो उसकी हर कदम पर मदद करता है |

इस बीच रंजन राज़हंस उर्फ़ पिंटू भाई ( शरत सक्सेना ) जो मूलतः शिकारी है अपनी ओर से पेशकश करता है की इस नरभक्षी का वो शिकार कर जनता को कष्ट से मुक्त करा देगा | विध्या आश्चर्य से तब भर जाती है जब उसके आदर्श अधिकारी नंगिया सर ( नीरज क़ाबी ) भी उसे इस षड्यंत्र में शामिल मिलते हैं | इन कुचक्रों से आख़िर विध्या की सारी कोशिशें नाकाम रहती हैं और उसे वहाँ से ट्रान्स्फ़र कर वापस किसी म्यूज़ियम में भेज दिया जाता है |

फ़िल्म का नाम शेरनी है पर ना तो विध्या का पात्र शेरनी के रुआब की तरह रचा गया है और न टी 12 नामक बाघिन के दर्शन ही उस रूप में हुए हैं | एक बात ज़रूर बतायी गयी है की इन षड्यंत्रकारी ताक़तों के बीच वन विभाग का अमला कितना बेबस है | सौभाग्य से बाघों की बढ़ती आबादी से जंगलों का विस्तार ही हुआ है , और आदमियों की बस्तियाँ भी विकास का नक़ली चोला ओढ़े जंगलों के नज़दीक ही पसर रही हैं , स्वाभाविक है दोनों के बीच संघर्ष की ये आदिम गाथा मानव के लालच पगकर और भयावह हो चली है | दुर्भाग्य से वन विभाग के पास ना तो वैसा अमला है और ना संसाधन | सुप्रीम कोर्ट का गोधावरमन केस का निर्णय न हुआ होता तो हमारा लालच प्रकृति के इस वरदान को अभिशाप में बदलते देर ना करता |

कुल मिलाकर फ़िल्म में न तो रोमांच है , न रोमांस है | डाक्यूमेंट्री नुमा इस फ़िल्म में मुझे तो विजय राज और विध्या बालन के अलावा कोई और का किरदार प्रभावी लगा ही नहीं | जिन्हें जंगल और वन्य जीवन से प्रेम है और जो मध्यप्रदेश की हरीतिमा का जादू कान्हा और देलावाड़ी के जंगलों के माध्यम से देखना चाहें , वे ये फ़िल्म देख सकते हैं |
लेखक – आनंद शर्मा