जाने, दैनिक जीवन में दशामाता का महत्व

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दशामाता पूजन महत्व:-

भारतीय संस्कृति में मनुष्य को धर्म और प्रकृति के आपसी समन्वय व संतुलन को बनाये रखने हेतु प्रत्येक माह में ऐसे व्रत व तेव्हारों का महत्व बतलाया गया है जिनके माध्यम से हम अपना स्वयं का जीवन भी संतुलित कर उसका निर्वहन सुगमतापूर्वक कर सकते है।

इसीकडी में ऋतु परिवर्तन व ऋतु समन्वय के पश्चात ग्रीष्म ऋतु में होता है दशा माता का पूजन।

ज्योतिष की दृष्टि से देखे तो यह व्रत मनुष्य की ग्रहदशा को अनुकूल करने के उद्देश्य से माना जाता है,किंतु वास्तव में यह व्रत मनुष्य के प्रकृति प्रेम,उसके प्रति समर्पण, प्रकृति की रक्षा व संरक्षण हेतु मनाया जाता है।

प्राचीन मान्यताओं के अनुसार भारतीय संस्कृति में घर की महिलाओं द्वारा पूरे मनोरथ से शुद्धता के साथ दशा माता का पूजन चैत्र कृष्ण दशमी को किया जाता है।

इसदिन प्रातः उठ कर महिलाये स्नान कर व्रत का संकल्प लेती है उंसमे मनोभाव होता है कि दशा माता की कृपा से सम्पूर्ण परिवार व बंधु बांधवो के जीवन मे जो भी विघ्न, संकट,अवरोध व अस्वस्थता है उसका पूर्णतः नाश हो,सभी के जीवन मे ग्रहों की अनुकूलता बनी रहे।

इसके उपरांत स्वच्छ वस्त्रों को धारण कर परिवार की महिलाएं एकत्रित होकर भगवान विष्णु के स्वरूप में पीपल के वृक्ष का पूजन कर,10 परिक्रमा कर ,सूत के धागे से वृक्ष का बंधन कर स्वयं को परमात्मा के बंधन में बांध लेती है।

इस व्रत में 10 चीजो का विशेष महत्व बतलाया गया है:-

पीपल की 10 परिक्रमा,10 तार का सूत का धागा,धागे में 10 गठानों का बंध,10 सुहागिन महिलाओं को 10 प्रकार की वस्तुओं का दान,10 प्रकार के फलों का अर्पण आदि।

पूजन के उपरांत वृक्ष की छाव में बैठकर राजा नल व दमयंती की कथा का श्रवण किया जाता है।

घर आ कर मुख्य द्वार पर हल्दी से हाथों के द्वारा छापे लगाए जाते है जिससे घर की नकारात्मक ऊर्जा का नाश होता है,उपरांत सूत के धागे में भगवान विष्णु के महामंत्र ॐ नमो भगवते वासुदेवाय का जप कर 10 गांठे लगाई जाती है जिसे बच्चो के गले मे व बाजुओं में बांध दिया जाता है जिससे उनको स्वस्थ लाभ की प्राप्ति होती है।

इसदिन माताओ द्वारा अन्न का त्याग कर फलाहार किया जाता है इसमे नमक का प्रयोग पूर्णतः वर्जित होता है।
यह व्रत मनुष्य को प्रकृति के प्रति समर्पण का भाव जागृत करता है अतः इस दिन संयुक्त रूप से पूजन कर एक पीपल के पौधे का रोपण कर उसके संरक्षण का संकल्प लेना ही इस व्रत की सार्थकता को सिद्ध करता है।
जय  महाकाल