एक संपादक का जलवा क्या होता है, यह भी देखा है इंदौर ने

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कीर्ति राणा

उस दिन मप्र टेबल टेनिस के ऑफिस में प्रेस कॉन्फ्रेंस थी। अभय प्रशाल में ओम सोनी के इसी ऑफिस के ठीक सामने अभयजी का केबिन है। तब वहां सीईओ महेंद्रसिंह खींची सारा काम देख रहे थे। उनसे पूछा अब्बूजी बैठे हैं? वो हमें उनके केबिन तक साथ ले गए। एक पत्रकार की ठसक क्या होती है… यह उस जमाने के लोग अभयजी को देखकर समझ लेते थे। आज तो एडीएम की कृपादृष्टि पाने के लिए मीडिया को लोटपोट होते देखना सामान्य बात हो गई है। तब शहर के मुद्दे संबंधी शासकीय-अशासकीय बैठकें, समारोह आदि की कार्रवाई अभयजी के आगमन तक अघोषित रूप से रुकी रहती थी।

हमें (वरिष्ठ पत्रकार उमेश रेखे, मुझे और फोटोग्राफर राजू रायकवार) आया देख उनके चेहरे पर आई खुशी बता रही थी कि अब उनके पास तो खूब वक्त है, लेकिन उन सारे नामों के पास वक्त नहीं है, जो नईदुनिया की खबरों में लगभग हर दिन नजर आते थे। मैंने जब बताया कि आजकल ‘प्रजातंत्र’ में हूं तो उन्होंने मेज पर रखे ‘प्रजातंत्र’ के एडिट पेज,ले-आउट, और हेमंत शर्मा की खुले दिल से तारीफ की। उम्रगत बीमारियों के साथ अभयजी तो डेढ़ वर्ष से ही ‘स्मृति दोष’ के शिकार हुए थे, लेकिन इस शहर ने तो उन्हें उसी दिन से भुलाना शुरू कर दिया था, जिस दिन नईदुनिया का जागरण ग्रुप से सौदा हो गया था। यदि ऐसा नहीं हुआ होता तो शायद गुरुवार की शाम उस (नईदुनिया) परिसर से एक साथ निकली दो अंतिम यात्रा (अभयजी और उनके भाई विमलजी की पत्नी सुशीला छजलानी) में सारा शहर उमड़ पड़ता। तब विमलजी की भी शहर में समानांतर सत्ता चलती थी।

अखबार की टीम से न होने वाले काम भी उनके कृपापात्र आसानी से निबटा देते थे। अभयजी की दुनिया अब उस केबिन तक ही सिमट गई थी।जब तक वे सक्रिय रहे… चुनिंदा लोगों का उनसे मेल-मुलाकात करने का सिलसिला यहां कायम रहा।कभी नईदुनिया का संदर्भ-लाइब्रेरी टाइम्स ग्रुप में भी चर्चा का विषय रहती थी, लेकिन नईदुनिया की बिक्री के बाद अधिकांश संदर्भ सामग्री अटाले की भेंट चढ़ गई। जितनी किताबें-संदर्भ फाइलें वो ला सकते थे… अपने ऑफिस से लगे कमरों में सहेज रखी थीं। उनके विश्वस्त कमलेश सेन और अशोक जोशी ने यहां भी लाइब्रेरी की जिम्मेदारी संभाल रखी थी। इंदौर के प्रामाणिक इतिहास पर ‘अपना इंदौर’ के तीन खंडों के प्रकाशन के बाद उन्होंने बताया था चौथा खंड भी लगभग पूर्ण हो चुका है।

उस दिन अभयजी के साथ बातचीत के दौरान लाइब्रेरी की चर्चा निकली तो वो हमें उन कक्षों में ले गए। नईदुनिया को बेचना परिवार का निजी मामला हो सकता है, लेकिन अभयजी की आंखों में तब गीलापन साफ नजर आ रहा था… जब वो संग्रहित किताबों और संदर्भ सामग्री की जानकारी दे देते हुए कह रहे थे- ‘मैं जितना बचा सकता था, साथ ले आया।’ आज जब अभयजी को विदाई देने उस नईदुनिया के चढ़ाव-उतार के साक्षी लोग परिसर में जुटे थे तो उनके निरंतर गिरते स्वास्थ्य के कारणों में एक मुद्दा यह भी था। किसी विवाह समारोह में जब मैंने उन्हें व्हील चेयर पर देखा था, तब मन यह मानने को तैयार नहीं हो रहा था कि ये वही अभयजी हैं, जो कभी भीड़ में घिरे रहते थे और अब भीड़ में भी ऐसे अकेले हैं, जिन्हें सब जानते हैं, लेकिन वे ही किसी को नहीं पहचान पाते हैं।

एक पखवाड़े में इंदौर के पत्रकारिता घराने के लिए यह दूसरी बड़ी क्षति तो है ही। बीते कुछ वर्षों की घटनाओं को याद करता हूं तो यह कहते हुए अफसोस होता है कि प्रेस क्लब के स्थापना दिवस पर तब (1991 में) राजेंद्र माथुर और गोपीकृष्ण गुप्ता का असामयिक निधन हुआ… तब से अब तक हर स्थापना दिवस से पहले ऐसे झटके हर बार लग रहे हैं।दिल्ली में डॉ. वेदप्रताप वैदिक के निधन को भुला भी नहीं पाए कि अब अभयजी। थामसन फाउंडेशन (यूके) से पत्रकारिता की स्नातक उपाधि लेने वाले अभयजी को जब ‘पद्मश्री’ से अलंकृत किया गया तो इंदौर के लिए तो यह गौरव का पल था ही, देश के मीडिया संगठनों ने भी सरकार के इस फैसले की सराहना ही की थी। इंदौर इतना भी नुगरा नहीं कि भुला दे कि नर्मदा इंदौर लाने के नईदुनिया के आंदोलन वाले तेवर की रणनीति बाबू लाभचंद छजलानी मार्ग से ही बनती थी।

ऐसा नहीं कि पत्रकारिता से लाभ-शुभ के खेल तब नहीं होते थे, लेकिन मिनिस्टर और मिनिस्ट्री मेकर का खिताब नईदुनिया को मिला था तो इसलिए कि अभयजी की वजह से वह इंदौर के हितों की लड़ाई लड़ने वाला बना हुआ था। सरकार की सराहना में उदारता दिखाने वाले अभयजी के, शहरहित वाले मुद्दों की अनदेखी पर भरी बैठक में सरकार की आलोचना वाले तेवर भी जनप्रतिनिधियों ने देखे हैं।ऐसा करते हुए फिर यह परवाह भी नहीं कि इससे अखबार को कितना नुकसान होगा! पता नहीं दैनिक भास्कर को हल्के में लेने की या तो अभयजी से चूक हो गई या राजस्थान में पत्रिका प्रबंधन की तरह वो भी खरगोश-कछुए की दौड़ वाला भ्रम पाले रहे!

देश में इंदौर की छवि स्वस्फूर्त विकास वाले शहर की बनी है तो उसमें अभयजी के सहयोग को अनदेखा नहीं किया जा सकता। वैदिक हिंदी के पेरोकार रहे तो अभयजी की दूरदृष्टि से हिंदी पत्रकारिता, प्रिंटिंग, ले-आउट में नईदुनिया नंबर वन की वजह से भी इंदौर पहचाना गया। भारतीय भाषायी समाचार-पत्रों (इलना) के तीन बार अध्यक्ष और भारतीय प्रेस परिषद के सदस्य रहे अभयजी ने इंदौर के विकास की चिंता करने वाले प्रबुद्धजन के संगठनों को ताकत देने के साथ खेल संगठनों… खासकर टेबल टेनिस को बढ़ावा देने के लिए इंडौर स्टेडियम की स्थापना भी की। उद्घाटन के लिए आए तत्कालीन केंद्रीय मंत्री अर्जुन सिंह ने तो मंच से इस स्टेडियम को अभय प्रशाल नाम देकर एक तरह से अभयजी को ‘अमर’ कर दिया था।

अभयजी के तमाम उजले पक्षों के साथ कुछ स्याह पहलू भी हैं… ऐसा लगभग हर उस व्यक्तित्व के साथ होता ही है, जिसका नाम-काम उसे पहचान दिलाता है, लेकिन जब अच्छे कामों का आकार पहाड़ जैसा हो जाए तो बुराइयों को लेकर स्मृति दोष बढ़ने लग जाता है। अभयजी को इंदौर-मालवा के साथ देश इसलिए भी नहीं बिसरा पाएगा, क्योंकि अखबार के मालिक से ज्यादा संपादक के रूप में उन्हें पहचाना जाता था। अब तो हर अखबार मालिक संपादक की प्रिंट लाइन में भी अपना ही नाम देखना चाहता है… ऐसे मालिकों में से कितने उन जैसे संपादक बन पाएंगे? मीता नर्सरी गुलदावदी की प्रदर्शनी के रूप में पहचानी जाती थी और लाभचंद छजलानी की नईदुनिया नर्सरी में पनपे पत्रकार यदि देश में पहचान बना रहे हैं तो उन पौधों को सींचने वाले अभयजी, रज्जू बाबू, बाबा राहुल बारपुते, सक्सेनाजी, नरेंद्र तिवारी ही तो रहे हैं। पत्रकारिता के गौरव अभयजी को नमन।