कितना “शुभ” छिपा है, भाजपा के लिए..?

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निरुक्त भार्गव

देश में 3 लोक सभा और विभिन्न राज्यों की कुल 29 विधान सभा सीटों के लिए हुए मतदान के नतीजे घोषित हो गए हैं. लोक सभा में 300+ सीटों वाली भाजपा (BJP) को सिर्फ एक सीट वो भी मध्य प्रदेश की खंडवा सीट मिली है, जबकि कांग्रेस पार्टी ने हिमाचल प्रदेश की मंडी और शिव सेना ने केंद्र-शासित दादरा और नगर हवेली की सीट जीत लीं. विधान सभाओं के 29 उपचुनाव में यूं तो भाजपा ने दो सीटों का मुनाफा कमाते हुए कुल 8 सीटें जीती हैं, तो कांग्रेस ने 9 सीटों पर अपना कब्ज़ा बनाया है. शेष 12 सीटें क्षेत्रीय दलों के खाते में गई हैं. मध्य प्रदेश सहित हिमाचल प्रदेश, कर्नाटक और राजस्थान के विधान सभा उपचुनाव के परिणाम भाजपा को परेशानी में डाल सकते हैं!

अब मध्य प्रदेश की बात करते हैं: आंकड़ों के लिहाज से भाजपा ने खंडवा लोक सभा (अनारक्षित) सीट कायम रखी है और तीन में दो सीटों—जोबट (अनुसूचित जनजाति) और पृथ्वीपुर (अनारक्षित) सीट को कांग्रेस पार्टी से छीना है, तो कांग्रेस ने रैगांव (अनुसूचित जाति) सीट भाजपा के जबड़े से खींच डाली है. तीन में से दो सीटों पर महिला उम्मीदवारों ने परचम लहराया है और ये इसलिए अहम् है कि पूर्व में महज एक सीट ही महिला विधायक के पास थी! पर जो दिखाया और लिखा जा रहा है, वो सब एक सतही प्रचार प्रतीत होता है!

इसे बीजेपी की रणनीतिक जीत भले ही ठहरा दिया जाए, पर वस्तुत: इन चारों-ही उप-चुनावों के संकेत पार्टी के लिए बल्ले-बल्ले नृत्य करने वाले, पटाखे फोड़ने वाले और मिष्ठान के आदान-प्रदान करने वाले नहीं हैं, कम-से-कम 2023 के विधान सभा चुनावों के मद्देनज़र! खंडवा संसदीय क्षेत्र के परिणाम क्या बतलाते हैं? प्रदेश के कथित नेता, मरहूम सांसद नंदकुमार सिंह चौहान की आकस्मिक मृत्यु से उपजी संवेदनाओं को भुनाने में विफल रहे! और-तो-और वे मोदी-शाह के तिलस्म को भी बरक़रार नहीं रख पाए!

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अगर ये बातें सही नहीं हैं तो क्या कारण है कि जिन मृदुभाषी और संगठन के व्यक्ति स्व. चौहान ने 2019 के आम चुनाव में इस सीट से करीब 2.75 लाख मतों की बढ़त ली थी, वो अब घटकर महज 82 हजार रह गई है? कांग्रेस आलाकमान ने तो एक तरह से इतने महत्वपूर्ण उप-चुनाव तक में मध्य प्रदेश में फिक्सिंग-ही कर ली थी? जिनका टिकट पक्का था और जो खुद बार-बार बहुत उछल रहे थे, ऐसे अरुण यादव दिल्ली जाकर लिखित में दे आए कि वो पारिवारिक कारणों से चुनाव लड़ने में असमर्थ हैं. ऐसे में राजनारायण सिंह पूरनी को उतार दिया गया मैदान में, जिनके बारे में पार्टी के अन्दरखानों में आज भी चर्चा है उनके पैर तो कब्र में लटके हुए हैं?

मगर, जो खुलासा वोटिंग मशीनों ने किया है, वो बहुत जबरदस्त है! इन पूरनी महाशय ने सम्पूर्ण भाजपा, उसकी सरकार और मशीनरी के प्रभावों, चमत्कारों और दबावों के बावजूद कांग्रेस कोटे से 5.50 लाख वोट कबाड़ लिए! इस मर्तबा वहां कोई 13 फ़ीसदी मतदान कम हुआ था और अरुण यादव, जो खुद प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष रहे और केंद्र सरकार में मंत्री भी और जिनके पिताश्री सुभाष यादव एक कद्दावर नेता थे, पिछले चुनाव में खेत रहे, वो इस बार एक जिताऊ उम्मीदवार माने जा रहे थे, लेकिन खुद-को अचानक रणछोड़-दास साबित कर बैठे!

भाजपा ने उन्हें (अरुण यादव को) दूसरा राजकुमार पटेल साबित करने में कोई कसर नहीं रख छोड़ी! ये वो ही राजकुमार पटेल (शिवराज सिंह चौहान के बुधनी निर्वाचन क्षेत्र से विधायक और मंत्री रहे और जो एनएसयूआई के चर्चित प्रदेश अध्यक्ष थे) हैं, जो विदिशा संसदीय क्षेत्र से भाजपा प्रत्याशी बनाई गई (अब दिवंगत) सुषमा स्वराज के विरुद्ध कांग्रेस पार्टी की तरफ से अधिकृत प्रत्याशी थे और वो नामांकन-पत्र वापस लेने के अंतिम दिन अपना फॉर्म वापस खेंच लाए थे…परिणाम: इतिहास में दर्ज है!

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चलिए, अब जोबट पुकार रहा है: कलावती भूरिया गईं जरूर, लेकिन सुलोचना रावत को कुचलकर! कांग्रेस में तो ये मार-काट हमेशा मची रहती है! इस पार्टी के जो भी स्वयं-भू झंडाबरदार हैं, वो सुलोचना को टिकट देते, इस पहले-ही भाजपा के करामाती लोग उन्हें 6 नंबर स्टॉप, भोपाल पर उड़ाकर ले गए! भाजपा के लोग तो अब कांटे से कांटा निकालने में सिद्धहस्थ हो चुके हैं, सो उनके लिए हर चीज विन-विन फैक्टर बन गई है! “कांग्रेस के टिकट को लेकर मारामारी है”, ऐसा बताते हुए उन्होंने सुलोचना रावत को अपनी पार्टी का प्रत्याशी घोषित कर दिया और वे विजयिनी हुईं!

अब रुख कर लेते है उत्तर प्रदेश से सटे, पृथ्वीपुत्र निर्वाचन क्षेत्र का जहां से उस व्यक्ति यानी शिशुपाल यादव को भाजपा का टिकट दे दिया गया, जो मूल रूप से समाजवादी पार्टी के नेता हैं. इतना सत्य है कि यादव ने 2018 के विधान सभा चुनाव में कांग्रेस के बाहुबली नेता बृजेंद्र सिंह राठौर को कड़ी चुनौती दी थी और भाजपा नेताओं ने तो बमुश्किल तीसरा स्थान पाकर अपनी मूंछों पर हाथ फेर लिया था! एक गंभीर वक्ता के रूप में छाप छोड़ चुके राठौर, जो दिग्विजय सिंह के समर्थक होने के चलते कमलनाथ के मुख्यमंत्रित्व-काल में कई कमाऊ विभागों के काबिना मंत्री रहे, वो कोरोना की दूसरी लहर में शांत हो गए! भाजपा के पास कोई जिताऊ व्यक्ति नहीं था!

सो उसने समाजवादी पार्टी के नेता पर अचानक हाथ धर दिया! बुंदेलखंड की राजनीति में यही कूटनीति काम कर जाती है! मैं शायद सपने में भी खाका नहीं खेंच सकता कि रेगांव विधान सभा का परिणाम भाजपा नेतृत्व को कैसे ठेंगा दिखा गया? वहां के जाने-पहचाने चेहरे जगन्नाथ बागरी, जो कभी मंत्री भी रहे, का परिवार वहां से चारों खाने चित्त रहा! जिस सीट को भाजपा एक वॉक ओवर प्रचारित कर रही थी, वहां उसे कोई 12 हजार वोटों का गड्डा पड़ गया! जिस सीट पर भाजपा का तीन दशक से राज था, वो इतनी आसानी-से कैसे फिसल गया? पुरुष विधायक की सीट पर कांग्रेस की कथित बैचारी उम्मीदवार कल्पना वर्मा जब चुनाव परिणाम के बाद सामने दिखाई दीं तो सब को सन्देश गया, “हां ये विश्वास जगाती हैं!”

बेशक, राजनीतिक जीवन या कहें कि सार्वजनिक जीवन में हार-जीत के शायद कोई मायने नहीं होते! इन दैदीप्यमान फलकों पर भला साधारण नागरिक कैसे दांव लगा सकता है, वोटिंग में शामिल होने के अलावा! इन उप-चुनावों की-ही बानगी लें! इसका जो फलित सब नेता नगरी कर रही है, वो मुगालते अथवा खुशफहमी से ज्यादा कुछ नहीं है! प्रकृति की मार अलग होती है, लेकिन जनता की मार का कोई सिरा नहीं होता…