जयराम शुक्ल
दो मसले मुझे हमेशा बहुत परेशान करते हैं। एक डाक्टरों की पर्ची और दूसरी बड़ी अदालतों के फैसलों की इबारत। मैं अँग्रेजी माध्यम से विज्ञान का स्नातक और स्नातकोत्तर उपाधिधारी हूँ,जब मैं असहज और परेशान हो जाता हूँ तो उन लोगों की क्या कहिए जिन्हें पढाई के समय एबीसीडी सुनते ही बुखार आ जाती थी। कुछेक अपवादों को छोड़ दें तो डाक्टर लोग अपनी पर्ची में न जाने किस कूट लिपि से अँग्रेजी में दवाइयों के नाम लिखते हैं इस रहस्य को सिर्फ़ वो मेडिकल की दूकानवाला जानता है जिसके यहाँ से दवाई खरीदने की सिफारिश की जाती है।
एक बार मैंनें अपनी सहूलियत के हिसाब से मेडिकल स्टोर बदल दिया। दूकानदार ईमानदार निकला। औने-पौने कोई दवा थमाने की बजाय बता दिया कि ये फलाँ डाक्टर की पर्ची है इसमें लिखी दवाएँ ढेकाँ मेडिकल स्टोर में मिलेंगी। वैसे ये दूकानवाला मुझे कोई भी दवा थमा सकता था, पर्ची में यही लिखी है बताकर। मैं उसका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता क्योंकि मैं मेडिकली निरक्षर हूँ।
फलाँ डाक्टर, ढेकाँ मेडिकल स्टोर या लैब में ही क्यों भेजता है ये रहस्य अब रहस्य नहीं रहा। चार साल पहले इंदौर में ड्रग ट्रायल काण्ड के बाद यह अच्छे से उजागर हो गया। दवाइयां बनाने वाली कंपनियां ये सब प्रपंच रचती हैं। आम भारतीय मरीज अपने जीते जी जान ही नहीं पाता कि उसका ड्रग ट्रायल चल रहा होता है कि इलाज।
बहरहाल मैं डाक्टर्स की उस गूढ मेडिकल पर्ची के बारे में बात कर रहा था। मरीजों की लंबी कतार और कैश कलेक्शन पर ज्यादा नजर रखने वाला डाक्टर मरीज को आनन-फानन बता जाता है कि इसे खाना है, इसे लगाना है। ये तीन बार के लिए, ये दोबार के लिए, इसे तब खाना जब तकलीफ हद से गुजर जाए। मरीज और उसका अटेंडेंट दोनों का दिमाग चकरघिन्नी की तरह घूमने लगता है, क्योंकि उसके दिमाग में पैथलॉजी की सत्रह जाँच और दस दवाइयों का लेखा सामने आ रहता है। वह बटुए टटोलने लगता है कि रुपया पुज जाएगा कि नहीं।
यकीन मानिए डाक्टर तक पहुंचकर, फीस अदाकर पर्ची बनवाने वालों में से एक तिहाई मरीज धनाभाव में बिना जाँच कराए व दवा खरीदे लौट जाते हैं। उनमें से कुछ कर्ज लेकर दूसरे तीसरे दिन लौटते हैं। शेष यह कहते हुए खुद को भगवान् के हवाले कर देते हैं कि एक न एक दिन तो सबै को मरना है..चाहे दवा खाएं या न खाएं। प्रायः हर गांव या मोहल्ले में ऐसे कई केस मिल जाएंगे जिसमें गलत दवा खाने या लगाने से कोई मर गया या स्थाई विकलांग हो गया। इतने ही केस ऐसे भी होते हैं कि मर्ज कुछ और था लेकिन डाक्टर ने दवाई किसी दूसरे मर्ज की कर दी। ऐसे मामलों में मरने वालों की संख्या समान्य बीमारियों से मरने वालों की संख्या से कम नहीं होती। पर न तो इनकी कोई सांख्यिकी बनती और न ही कोई प्रकरण दर्ज होता।
अपने देश की चिकित्सा व्यवस्था इसी अराजक दौर की शिकार है। आजकल तो चिकित्सक अपनी दवा पर्ची में मोटे हर्फों में यह लिखवाने लगे हैं कि..यह पर्ची किसी भी कानूनी कार्रवाई के लिए मान्य नहीं..। कमाल देखिए कि यह साफ सुथरी हिन्दी में लिखा होता है ताकि साक्षर मरीज इसे अच्छे से पढ़ ले कि डाक्टर साहबान की दवा खाने से यदि तुम्हारी आँख भी फूट गई तो कोई कार्रवाई नहीं कर सकते क्योंकि पर्चे में पहले से ही लिखा।
हाँ डाक्टर साहब इस बात के लिए बाध्य नहीं हैं कि वे मर्ज और दवाई का नाम तथा इस्तेमाल करने का तरीका साफ-साफ लिखें ताकि मरीज और उसका अटेंडेंट समझ जाए। अँग्रेजी की ताकत और उसका ग्लैमर तभी तक है जबतक कि सामने वाला उसे समझ न पाए। जिस दिन ये अँग्रेजी आम लोगों को समझ में आने लगेगी उसी दिन से इसका तिलस्म खत्म। और इसके साथ ही उन बड़े वकीलों और डाक्टरों का धंधा भी, जिनकी दूकाने सिर्फ और सिर्फ अँग्रेजी के नाम से सजी हैं।
क्या मेडिकल कौंसिल आफ इंडिया को इन स्थितियों से इत्तेफाक नहीं है.? है, पिछले कुछ सालों से दवाओं के नाम हिंदी में भी लिखे जाने लगे हैं। हो सकता है कि देश की अन्य भाषाओं के लिए भी निर्देश हो। केरल में बिकने वाली दवा में अँग्रेजी के साथ मलयाली में भी लिखा जाता हो। लेकिन यह कहाँ किस कोने में लिखा जाता है इसके लिए आपको मैग्नीफाइंग ग्लास की जरूरत पड़ेगी।
दवाओं के कम्पोजीशन और साइडइफेक्ट्स की नसीहतें छः से चार प्वाइंट्स के अक्षर में लिखे जाते हैं। अब इसे पढकर आँखें फोड़िए और नया मर्ज पालिए। जबकि जहाँ तक मुझे जानकारी है मेडिकल कौंसिल ने डाक्टरों को यह भी निर्देश दे रखे हैं कि वे दवाओं का नाम साफ-साफ अक्षरों में लिखें व उसके प्रयोग को भी विधिवत उल्लेखित करें। दवाओं के कम्पोजीशन का भी जिक्र करें क्योंकि एक ही दवा को विभिन्न कंपनियां अपने अपने ब्रैंडनेम से बेंचती हैं।
दवा की कीमतों में भी बड़ा फर्जीवाड़ा है। हर शहर में दवाओं के अलग-अलग दाम हैं। कहीं कहीं तो दवा के दामों में सत्तर प्रतिशत तक का अंतर है। कहीं कोई देखने वाला नहीं। कोई चेक एन्ड बैलेंस नहीं। सेवा क्षेत्र के सबसे संवेदनशील मामले में सबसे ज्यादा बेरहमी।
पिछले पंद्रह साल से मैंने यह नहीं सुना, जाना कि कोई बड़ा जनप्रतिनिधि, हाकिम, अफसर किसी जिला अस्पताल या मेडिकल कालेज में भर्ती होकर अपना इलाज या आपरेशन करवाया हो। जब सिस्टम को हाँकने वालों का ही भरोसा सिस्टम में नहीं तो क्या कहिए। निजी अस्पतालों में तो इलाज भी नीलाम होता है। ऊँचा दाम ऊँची चिकित्सा। जितना दाम उतना इलाज।
देश की साक्षरता विश्व की औसत साक्षरता से 10 प्रतिशत कम 75 प्रतिशत है। जो साक्षर हैं उनमें महज 10 प्रतिशत लोगों को ही पढ़ालिखा समझिए शेष को सिर्फ उतना अक्षर ग्यान है जो कंपनियों के प्रोडक्ट और सरकार की उपलब्धियों के विग्यापन की भाषा पढ़ सकें। जब डाक्टरों की कूटभाषा ये 10 प्रतिशत पढ़े लोग ही ढंग से नहीं समझ पाते, बाकी लोग तो इस अभिजात्य बिरादरी के लिए ढोर डंगर से ज्यादा नहीं।
और अंत में हर डाक्टर की दवा की पर्ची में आर एक्स जैसा कुछ लिखा रहता है। यह डाक्टरों को अपने पेशे के लिए ली गई हिप्पोक्रेटिक शपथ की याद दिलाता रहता है। हिप्पोक्रेट ग्रीक के महान दार्शनिक हैं जिन्हें आधुनिक चिकित्सा का प्रवर्तक माना जाता है। डाक्टर इस शपथ का दसांश भी अमल करने लगें तो समूचे विश्व का कल्याण हो जाए।सरकारों को अलग से कोई कानून बनाने की कभी जरूरत ही नहीं पड़ेगी इस शपथ का तथ्य कथ्य आपको गूगल गुरू बता देंगे इस लेख को पढने के बाद हिप्पोक्रेटिक ओथ को सर्च कर पढिएगा जरूर।