श्रीलंका का चीन से मोहभंग और पड़ोसी धर्म

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राजेश बादल

भारत के ख़ूबसूरत पड़ोसी सिंहल द्वीप श्रीलंका ने चीन को करारा झटका दिया है। उसने सार्वजनिक तौर पर स्वीकार किया है कि हंबनटोटा बंदरगाह चीन को सौंपना बड़ी भूल थी और भारत के साथ संबंधों में आई दूरी उसके हित में नहीं रही है।कुछ वर्षों से श्रीलंका के साथ चीन की निकटता बढ़ी थी। इस बेमेल रिश्ते ने भारत को असहज बना दिया था।श्रीलंका हालाँकि चीन के क़र्ज़ जाल में अभी भी फँसा हुआ है। इसके बावजूद उसका यह क़दम चौंकाने वाला माना जा रहा है। पूर्व राष्ट्रपति महिंद्रा राजपक्षे और उनके भाई वर्तमान राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्षे अरसे तक चीन के गीत गाते रहे हैं।ख़बरें थीं कि चीन ने उनके चुनाव में आर्थिक सहायता भी दी थी।इसके बाद यह सकारात्मक परिवर्तन परदे के पीछे किसी बड़े घटनाक्रम का संकेत दे रहा है।

भारत और श्रीलंका सदियों से मित्र राष्ट्रों की तरह ही रहते आए हैं।वहाँ के सिंहली, बौद्ध, तमिल और मुस्लिम हिन्दुस्तान से ही जाकर बसे हैं। कुछ समय के लिए लिट्टे की गतिविधियों के चलते दोनों देशों के रिश्तों में खटास आ गई थी।श्रीलंका में तमिल ईलम की माँग कर रहे लिट्टे की उग्रवादी गतिविधियाँ रोकने के लिए राष्ट्रपति महिंद्रा राजपक्षे ने सबसे पहले भारत से ही मदद माँगी थी ,लेकिन तमिलनाडु के तमिलों की लिट्टे को मिल रही सहानुभूति के कारण भारत यह अनुरोध स्वीकार नहीं कर सका और महिंद्रा राजपक्षे चीन की शरण में चले गए। इसके बाद ही दोनों देशों में पींगें बढ़ने लगी थीं।उपकृत श्रीलंका और चीन के रिश्तों में यह मधुरता अब तक जारी रही और चीन की आक्रामक विदेश और आर्थिक नीति के शिकंजे में अनेक देशों की तरह श्रीलंका भी उलझ गया ।परन्तु अब लगता है कि श्रीलंका को अहसास हो चला है कि भारत जिस तरह आड़े वक़्त पर उसके काम आ सकता है ,वैसा सहयोग चीन से नहीं मिल सकता। संभवतया इसीलिए श्रीलंका के विदेश सचिव एडमिरल जयनाथ कोलंबेज ने विदेश नीति में इस बड़े यू टर्न का ऐलान किया। उन्होंने कहा कि श्रीलंका सबसे पहले भारत की नीति अपनाएगा और उसके सामरिक सुरक्षा हितों की रक्षा करेगा। उन्होंने ख़ुलासा करते हुए कहा कि श्रीलंका ऐसा कुछ नहीं करेगा जो भारत की सुरक्षा के लिए हानिकारक हो। श्रीलंका यह कभी स्वीकार नहीं कर सकता कि उसका इस्तेमाल किसी अन्य देश – विशेष तौर पर भारत के खिलाफ कुछ करने के लिए किया जाए।श्रीलंका ने हंबन टोटा में बंदरगाह की पेशकश सबसे पहले भारत को की थी।भारत ने उसे नहीं लिया।इसके बाद वह चीन को गया।लेकिन अब श्रीलंका कह सकता है कि बंदरगाह का इस्तेमाल चीन की फौज को नहीं करने दिया जाएगा।भारत उसके लिए सबसे पहले है। अन्य देश उसके बाद।

दरअसल चीन ने श्रीलंका से अपनी उधारी चुकाने का दबाव बढ़ा दिया था। पिछले दो तीन महीनों से यह दबाव बढ़ता जा रहा था। राजनीतिक और कूटनीतिक जानकारों का आकलन है कि गलवान घाटी में चीन और भारत की सेनाओं के बीच भिड़ंत के बाद नेपाल और पाकिस्तान चीन के इशारे पर नाचने लगे हैं । वे खुल्लमखुल्ला भारत के विरोध पर उतर आए हैं। पाकिस्तान के ऐसा करने के पीछे तो कारण साफ़ समझ में आता है। नेपाल के व्यवहार में अचानक परिवर्तन भारत के लिए तनिक आश्चर्य की बात थी। सत्तर साल से नेपाल भारत के संरक्षण में ही फल फूल रहा था। अब तो वह भी भारत से जंग की भाषा बोल रहा है। कमोबेश श्रीलंका से भी चीन ने यही अपेक्षा की थी। इससे उत्तर ,पश्चिम और दक्षिण दिशाओं से भारत की चौतरफ़ा घेराबंदी का दृश्य उपस्थित हो जाता। यह स्पष्ट रूप से भारत को दबाव में डालने की मंशा थी।मगर श्रीलंका ऐसा कर भी नहीं सकता। इसकी वजह यह है कि वह चारों ओर से पानी से घिरा है। यदि चीन उसे अपना अड्डा बनाना भी चाहे तो पहले उसकी नौसेना और वायुसेना को भारत के अधिकार क्षेत्र से गुज़रना पड़ेगा । यह अंतर्राष्ट्रीय क़ानूनों का उल्लंघन होगा।भारत की सीमाओं का उल्लंघन होने पर उसे श्रीलंका के ख़िलाफ़ भी कार्रवाई करने से कोई नहीं रोक सकता। यह चीन की मुश्किलें बढ़ा देता।वह अपने मित्र श्रीलंका की कोई सहायता चाह कर भी नहीं कर पाता। नेपाल और पाकिस्तान तो ज़मीनी तौर पर चीन से जुड़े हैं और वे अपने देश में चीनी सेना को आने की अनुमति दे सकते हैं ,पर श्रीलंका कभी ऐसा नहीं कर सकेगा। संभवतया चीन ने अपनी यह मजबूरी समझते हुए बढे पैर खींच लिए हैं। श्रीलंका की विदेश नीति में अचानक बदलाव की यह भी एक वजह हो सकती है।

यह हक़ीक़त देर सबेर नेपाल को भी समझ में आएगी। भारत और नेपाल की भौगोलिक ,सांस्कृतिक ,सामाजिक और ऐतिहासिक विरासतें समान हैं। नेपाल की अवाम हिन्दुस्तान से कभी दूर नहीं जा सकती और चीन को अपना नहीं सकती।विडंबना यह है कि पाकिस्तान की तरह नेपाल की हुकूमत भी चीनी उपकारों के बोझ तले दबी हुई है।वक़्त की चाल बदली और अवाम की भावनाओं के अनुरूप नेपाल में नई सरकार आई तो भारत के लिए राहत की बात हो सकती है। पाकिस्तान में तो इसकी कोई संभावना नहीं है। ग़नीमत है कि समय रहते मालदीव और मलेशिया की आँखें खुल गईं और वे चीन के चक्रव्यूह से बाहर निकल आए।मलेशिया पर एक परियोजना के लिए 23 अरब डॉलर का क़र्ज़ लेने का दबाव चीन डाल रहा था। मलेशिया सरकार के कान खड़े हुए और उसने हाथ जोड़ लिए। इसी तरह मालदीव के लोगों ने अपने वोट के ज़रिए चीन के समर्थक राष्ट्रपति को हटा दिया। चीन को समझना चाहिए कि उसकी चालों के संस्करण पुराने पड़ चुके हैं। बुर्जुआ सरकारें तो उनमें उलझ सकती हैं ,लेकिन आधुनिक विश्व के देश उसके चंगुल में नहीं आने वाले।