सुधा अरोरा की कलम से
कोई पढा लिखा, प्रबुद्ध, प्रगतिशील और शालीन-संभ्रांत दिखता प्रोफेसर अपनी पत्नी को इस तरह पीट कैसे सकता है , लोग अचरज करते हैं! एक शिक्षित प्रोफेसर का आचरण भी झुग्गी झोपड़ी के किसी बेवड़े पति से बेहतर नहीं होता! शिक्षा व्यक्ति को शिक्षित ज़रूर करती है पर उसे अच्छा इंसान भी बनाये यह ज़रूरी नहीं ! अनैतिक संबंध बनाता आदमी तो यूँ भी अपने भीतर अपराध बोध का इतना बड़ा पत्थर ढोते हुए चलता है कि उससे छुटकारा पाने के लिए वह कभी पत्नी पर चरित्र हीनता का आरोप गढ़ता है, तो कभी उसे देखते ही आक्रामक हो उठता है ! वह सीधे सीधे उस पर चाकू छुरी से वार नहीं करता, पर उसे इतने भावात्मक आघात पहुंचाता है कि वह आत्महत्या कर ले या ऐसे अवसाद में चली जाए कि उस पर मानसिक रोगी होने का लेबल लगा कर उससे आसानी से छुटकारा पाया जा सके ! ……. इसमें नामी गिरामी राजनेताओं, फिल्म अभिनेताओं, कलाकारों, ख्यातनाम गायकों, सामाजिक कार्यकर्ताओं तक के नाम शामिल हैं !
”पति कॉमरेड नहीं होता” कॉमरेड गार्गी ने अपने साथी कॉमरेड से शादी करने के बाद गलत नहीं कहा था !
”मेन अगेंस्ट वायलेंस एंड अब्यूज़” MAVA के एक संस्थापक सदस्य (और हमारे परिचित मित्र) के बारे में मैंने बहुत अफ़सोस के साथ यह लिखा था —
” तकलीफ़ तब होती है, जब हम सुनते हैं कि सामाजिक कार्यकर्ता पुरुष, जिन्होंने प्रताड़ित महिलाओं के लिये एक सपोर्ट सिस्टम तैयार किया, में से कुछ स्वयंसेवी बाहर तो इस तरह के सामाजिक काम करते रहे, पर अपने दूसरे संबंध बन जाने पर, घर में अपनी पत्नी को गलत दवाइयां देकर, मानसिक अस्पताल की दहलीज़ पर पहुंचाकर, उनसे निज़ात पानी चाही। यह एक आपराधिक स्थिति है और वह ऐसे ही रूढ़िग्रस्त समाजों में पनपती है जहां तलाक पाना मुश्किल है, लेकिन मनोचिकित्सक को रिश्वत देकर मानसिक अस्वस्थता का प्रमाणपत्र पाना आसान है। इसका भरपूर फायदा पुरुष अपने अनैतिक संबंधों को नैतिकता का जामा पहनाने के लिये उठाते हैं । ऐसी स्थितियां पुरुष वर्ग पर भरोसा नहीं करने देतीं। तब यह कहना ही पड़ता है कि औरत की हैसियत, उसकी मानमर्यादा, उसके रुतबे, उसके चरित्र, रोज़मर्रा के उसके अनथक श्रम पर लगातार आघात करता पुरुष समाज क्या कभी थमेगा या बदलेगा ? समाजशास्त्र के विचारक क्या इसका विश्लेषण कर किसी नतीजे पर पहुंचेंगे कि क्यों पुरुष घर के बाहर दबे-कुचलों के समर्थन में झंडा उठाने के बावजूद घर में घुसते ही उसी झंडे के डंडे से अपनी बीवी को पीटता है और इस कर्म में कभी थकता – हारता भी नहीं ?
इसके मूल में वह प्रताड़ना ही है जिससे हम पिछले तीस सालों से लड़ रहे हैं पर अफसोस कि इसमें कहीं कोई कमी आती दिखाई नहीं दे रही, सिर्फ हिंसा के रूप बदल बदल कर हमारे सामने आ रहे हैं। ”
— विमर्श से परे : स्त्री और पुरुष ( कथादेश मार्च 2014 )
कल से अनगिनत परिचित सहेलियों की यातना, थका देने वाला संघर्ष, और कानून के अंतहीन दांव पेंच क़तार में आकर सामने खड़े हो गए हैं ! सोच कर ही दहशत होती है तो उस पर लिखा कैसे जाए! थोड़ा सा जो पहले लिखा था मैंने, उसे दे रही हूँ ! शायद इसे पोस्ट कर मुझे कुछ राहत मिले !