हमारे देश में एक बहुत बड़ी समस्या है बेहतर मानव संसाधनों की कमी, हमें शिकायत रहती है कि हमारे देश में बेहतर वैज्ञानिक नहीं हैं, हमारे पास बेहतर प्रबंधक नहीं हैं, हमारे नीति निर्धारक दोयम दर्जे के है, हमारे डॉक्टर सबसे अच्छे नहीं हैं, हमारे शैक्षणिक सांस्थान उच्च गुणवत्तापूर्ण शिक्षक विहीन है आदि आदि, हम यह मानते हैं कि विदेशों में सब कुछ अच्छा है और हमेशा से हम इन कमियों का उत्तरदायित्व सरकार की रीति नीति को समझते आ रहे है, हम यह मानते है कि जिस देश में हम पैदा हए है, जिस देश ने हमें पाल पोसकर बड़ा किया, और एक हद तक शिक्षित बनाया उसी मातृभूमि की जब सेवा करने का अवसर आता है तब हमें हमारे अपने वतन में अपने लिए बेहतर अवसर नहीं दिखाई पड़ते हैं और देश को कुछ देने की बजाय हम यह कहकर विदेश जाना पसंद करते है कि मेरा देश मुझे क्या दे रहा है?
अगर इस विषय पर ईमानदारी सहित गम्भीरता से इसकी तह तक जाकर समझा जाए तो वस्तुतःबेहतर मानव संसाधन की इस कमी की जिम्मेदारी हमारे अपने ही परिवारों पर आती है और यह एक बाहरी नहीं हमारी अपनी आंतरिक समस्या है, आइए समझते हैं ऐसा क्यों है…
हम हमेशा से यही चाहते आये है कि हमारा मेधावी, बुद्धिमान और कुशाग्र बच्चा आगे पढ़ने या पढाई के बाद नौकरी करने विदेश जाए और सम्भव हो तो विश्व के सबसे समृद्ध देश मे बस जाय । हमारी नजर में सफल कहलाने के लिए यही एक बेहतर कैरियर ऑप्शन है, और तो और हम इस बात पर गर्व करते हैं कि हमारा बच्चा अपने परिवार से बिछुड़ कर, अपनी मातृभूमि को छोड़कर विदेश में है और इस कृत्य के लिए हम समाज में सम्मान भी पाते हैं ।
अब दूसरे देशों के हालात देखते है आपने कभी सुना कि जापानी वर्क फोर्स या केनेडियन लेबर या नार्वेजियन विशेषज्ञ या चीनी इंजीनियर या जर्मन वैज्ञानिक या अमरीकी डॉक्टर किसी और देश में जाकर उस देश की तरक्की में अपना सम्पूर्ण जीवन लगा रहे हैं…… नहीं सुना ना, क्योंकि वहां देशप्रेम की भावना घर के अंदर से ही उपजती है, वहां देश को अपनी निजी सफलता से ऊपर माना जाता है, वहां के समाज में विदेश में जाकर विदेशियों के लिए काम करने को सम्मान की नजर से नही देखा जाता ।
हम भारतीय हर समस्या के लिए सिर्फ सरकार को दोष देकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं, क्या हमने कभी यह सोचा कि क्या हम अपनी जिम्मेदारी निभा रहे हैं, क्या हम अपने बच्चों को अच्छे इंसान या बेहतरीन नागरिक बना रहे हैं (उस किस्म के गुणवान मानव जिनकी अपेक्षा हम दूसरों से करते है) जवाब है एक बड़ा नहीं बल्कि हम भारतीय अपने बच्चों को संस्कारों की बजाय भौतिक सुविधा और धन अर्जन को प्राथमिकता देने की शिक्षा देते हैं । हम अपनी आने वाली पीढी के मन में देशप्रेम का जज्बा भरने में पूर्णतया नाकाम रहे है, शायद नाकाम सही शब्द नहीं है, हमने तो इस बारे में सोचा ही नहीं और हम अपने बच्चों में देशप्रेम या देशभक्ति भरने का कोई प्रयास तक नही करते तो नाकाम कैसे हए ।
अब जब आप और हम स्वयम आगे बढ़कर और कई मामलों में बच्चों की अपनी इच्छा के खिलाफ जाकर सिर्फ भौतिक सुविधाओं और धन के लालच में हमारी बेहतरीन सन्तानों (जो देश को बदल सकते हैं) को विदेशियों की सेवा चाकरी करने भेज रहें है तो फिर इन बची हुई कम योग्य सन्तानों द्वारा लिए गए निर्णयों के परिणाम (जिसमे अधिकारी, कर्मचारी, नेता, व्यवसायी सभी शामिल) को बुरा भला कहने से क्या हासिल होगा । वो अंग्रेजी में कहते हैं ना what we get is what we deserve.
आप अच्छे परिणाम देने की उम्मीद किनसे कर रहे है वो लोग जो अपेक्षित रूप से सक्षम या उतने बुद्धिमान है ही नही, वो तो वही दे पाएंगे ना जो उन्हें आता है, जो संस्कार हमारे परिवारों ने अपनी संतानों को दिए है वो वैसा ही व्यवहार करेंगे ।
देखा जाय तो ये लोग जिनको गाहे बगाहे गरियाना हमारा प्रिय राष्ट्रीय शगल है वो भी हमारे अपने ही लोग हैं, ये हमारे गैर पसंदीदा अक्षम या भृष्ट लोग किसी दूसरे देश या ग्रह से तो अवतरित नहीं हए है, इनको परिवार से और समाज से जो शिक्षा मिली वही वो अब वापस लौटा रहे हैं।
अपनी मेधावी संतानों को अपने ही देश में रहकर देश के विकास में योगदान देने को प्रेरित करने की संस्कृति अपनाए बगैर इस देश में वो बदलाव नही आ पायेगा जिसकी हम निरन्तर कल्पना करते रहते है। जब तक हमारी मानसिकता नहीं बदलेगी तब तक हमारा देश ऐसे ही चलता रहेगा और हम अपनी ही पैदा की हुई स्थितियों से अपनी घनघोर नापसन्दगी जाहिर करते रहेंगे।
तो मुद्दे की बात यह है कि देश के निर्माण में सबसे महत्वपूर्ण इकाई है परिवार, परिवार में सन्तान का लालन पालन जिस प्रकार हुआ है वैसे ही नागरिक हमें मिलते हैं, बात किसी एक परिवार की नहीं है इसे व्यापक रूप से देखना होगा, क्यों हमें ऐसे नागरिक मिल रहे हैं जिन्हें हम पसन्द नही करते, किसने पैदा किया इन्हें, किसने इन्हें पाला पोसा, किसने इन्हें बेईमान बनाया ? हमने ही ना ….. तो फिर कैसा शिकवा, किससे शिकायत, कौन दोषी?
राजकुमार जैन