विजयसिंह चौहान का मार्मिक लेख
कुछ माह पूर्व माँ , का यू चला जाना जीवन मे वह रिक्तता दे गया जिसकी पूर्ति सम्भव नही। आंसुओ का दरिया इन आँखों मे सतत अपने खारेपन का अहसास सूखने नही देता। हँसते हँसते , आंखों का भीग जाना और अन्तस् से माँ के आशीर्वचन पुनः चुप करा देते है आज भी मुझको।
… हा माँ ही कहती थी, तू चिंता मत कर, मैं हु न तेरे साथ और मेरा आशीर्वाद तेरे साथ है, ये दिव्य शब्द पुनः प्राण फूँक देते है, मेरे निष्प्राण शरीर में, मलाल इस बात का है कि, वे मुझे तन्हा कर गई ।
चंद शब्द पुष्प, मेरी माँ के लिये….
।।चंदा माँ।।
माँ, का जाना दारुण्य दुःख जैसे शब्द से साक्षात होने के समान है। संसार के सारे ज्ञात- अज्ञात, दुःख, कष्ट, वेदना और पीड़ा को एक साथ अनुभव करने जैसा था।
जिंदगी में पहली बार इस बात का अनुभव और एहसास हुआ, जब पैरों तले जमीन खिसकना का अर्थ पता चला। आंसुओं के समंदर जब तेजाबी बारिश करते है और दिल-दिमाग एक साथ क्रंदन और चीत्कार कर उठते है, दिल का रोना और फिर चुप ना होना कितनी पीड़ा दे जाता है, इन सब बातों को बयां कर पाना या, शब्दों में पिरोना बेहद मुश्किल है , इस समय भी मेरी कलम और आंख दोनों समान रूप से आंसुओ के खारे समंदर को छलकने से रोक नही पा रहे ।
लॉक डाउन से 2 दिन पहले ही माँ ने दशा माता का पूजन, व्रत कर बहुओं के साथ मोहल्ले की महिलाओं को माता जी की कथा सुनाई थी। माथे पर पूजा का टीका, मांग में गहरा सिंदूर और घर की दशा बनाए रखने के लिए दशा माता से प्रार्थना की थी।
सोफे से पलंग तक के सफर में मां का बाया पर ऐसा टूटा कि धरती रो पड़ी, गगन चित्कार कर उठा । दर्द ने मानो अपने पैर पसार लिए और रक्तचाप के उतार-चढ़ाव के बीच मां ने बच्चों की अंगुली छोड दी। इस बेजान जीवन में, संवेदनहीन समाज के सागर में बच्चों को बेसहारा छोड़ कर चली गई , बादलों के उस पार अपने ब्रम्हा बाबा से मिलने। एक बार मैने ही मां, आपके लिए लिखा था और पढ़कर भी सुनाया था ।
मां,
शब्द नहीं
प्राण हैं,
मेरे लिए समूचा
ब्रह्मांड है।
आज मेरा ब्रह्मांड शून्य हो गया….अस्पताल से मां के शव को थामे, रास्तेभर पैरों को पकड़ कर रोता रहा, मन अंदर से कह रहा था… मां, मैं तेरे लिए कुछ ना कर सका।
सुनीता दीदी की शादी यही कोई 30 साल पहले हुई थी और उसके आसपास से ही माता जी का शरीर ढलने लगा था, बीते इन 25-30 सालों में मां को संभाले अनेक अस्पताल, चिकित्सकों के द्वार खटखटाये फिर भी मां का यू चले जाना जीवन भर का दर्द दे गया ।
अब भरा पूरा परिवार है, बच्चे भी बड़े हो गए हैं इसलिए रोने का समय सुबह 5:30 से 7:00 बजे तक रखा है।
विगत कुछ दिनों से मां के शरीर में मांस कम और हड्डियां ज्यादा नजर आने लगी थी पैरों से चला नहीं जाता था आंखों की रोशनी कम हो चली और कान से भी सुनाई भी कम पड़ता था । कभी-कभी खुद ही अपना सामान रख कर भूल जाया करती थी इन सबके बाद भी सब की फिक्र करना मां की आदत में शुमार था। मोबाइल से पूरे परिवार, रिश्तेदारों की हाल-चाल जानना और उनसे मिलकर अपना बेशुमार प्यार और स्नेह लुटाना माँ ने हीं हमें विरासत में सीखाया ।
यकीनन, वह मनहूस दिन था, जब मां के आंगन में, माँ निष्प्राण दुल्हन के रूप में सजी धजी फर्श पर लेटी थी । हरी- लाल – पीली रंग की साड़ी, गहरा मांग में सिंदूर, बिछिया, पायल, मेहंदी और माथे पर दशा माता पूजन के समय लगाया कंकू का टीका, लावण्ययुक्त चेहरे पर खूब जच रहा था। शव यात्रा में शामिल होने आए परिवार और आसपास की महिलाएं माँ के सुहागन स्वर्ग सिधारने पर उसकी मांग से अपनी मांग भर रही थी तो कोई मेहंदी रचे हाथ से अपने जीवन मे रंग भरने की कोशिश कर रही थी । बरामदे में गिलहरी, गौरैया, चिड़िया मौन होकर महिला भजन मंडली के दिव्य भजन सुन रही थी ।
हां.. तीसरे के दिन जब मां की अस्थियां सहेजी जा रही थी उसी दिन से लॉक डाउन का ऐलान हुआ था । शमशान से अस्थियां कम और मां के हाथ- पैरों में डली रॉड, स्क्रू, प्लेट ज्यादा अस्तित्व में नजर आ रही थी। बिलखता मन, इन सभी को बहुत धन्यवाद ज्ञापित कर रहा था जिन्होंने मां को एक लंबे समय तक संभाले रखा । अस्थि विसर्जन से माँ नर्मदा की बाहों तक का सफर लॉक डाउन के कारण दूभर होते जा रहा था, भला हो भतीजे आशीष (सोनू) का जिसकी पहुँच ने मां को नर्मदा मैय्या से मिलवाया।
पं. हितेश चतुर्वेदी के सहयोग से क्रिया कर्म, पिंड, कुंभ जैसे उत्तरकार्य स्थिर मन से संपन्न हुए । परिवार से बढ़कर स्नेह, और अनुराग लुटाने वाले कल्याण जी ने बंद सैलून से कंघा,कैंची और उस्तरा निकाला और पुलिस से बचते बचाते अल सुबह ही आ पहुंचे मुंडन के लिए। मुंह पर मास्क सिर पर शिखा, और आंसुओ को छलकाते नयन के साथ अब माँ मिट्टी की मटकी में बैठी निहारती, तो कभी मुझे अंतस से सहला रही थी, रो मत बेटा ! मैं तेरे साथ हमेशा हूं, मेरे लाल.
इधर अस्थियां नदी में समाई भी नहीं थी कि कोरोना लॉक डाउन की सख्तियां पथरीली होने लगी । मुट्ठी भर पहनने के कपड़े और मां के अंतिम दर्शन की चाहत लिए रिश्तेदार अपने घरों को न जा सकें। बस-रेल, आना- जाना, दुकान- बाजार सब बंद. ऐसा लगा मां के जाने के साथ ही सब कुछ ठहर सा गया। भला हो कीर्ति राणा जी का जिन्होंने मां के ग्यारहि, पिंडदान करने के लिए स्वमेव मदद की और पिंडदान स्थिर मन से संपन्न कराएं यही नहीं आने जाने वालों के लिए ई पास, और राशन की व्यवस्था भी जुटाई । यही वे राणा जी हैं जिन्होंने कोरोना काल में और संकट की इस घड़ी में शोक संतृप्त व्यक्तियों के लिए मास्क और सैनिटाइजर भी उपलब्ध कराकर अपने उदार दिल का परिचय दिया।
गनीमत है, मां ने कोरोना वायरस के भय से आगाह कराते हुए खाद्य सामग्री पूर्व में ही संग्रहित कर ली थी फिर भी आज अन्नू, काकू और सुन्नु का मन छोटा हो रहा था । मां के मरणोपरांत नुक्ता और मृत्यु भोज जो नहीं करा सके तभी बच्चों को ढांढस बंधाते हुए बाबू जी ने कहा बच्चों दुःखी न हो, क्योकि माँ, ही तो कहती थी कि उसके जाने के बाद मृत्यु भोज नहीं करना, हो सके तो जरूरतमंदों को भोजन कराकर उन्हें तृप्त करना और बच्चों तुम्हारी भी तो यही मर्जी थी इसिलए तुम सबने उसके जीवन काल में ही उसकी सारी इच्छाओं की पूर्ति कर उसे तृप्त किया, बेटे- बहुओं ने कभी उसे किसी बात की कमी महसूस नहीं होने दी। बाबूजी की बात सुनकर आज बच्चों के मन से यह मलाल भी जाता रहा । बाबूजी की बात से…काकू को याद आ रहा था, हां मां, तेरी ही तो शब्द थे कि मरने के बाद किसने देखा ? बाबूजी के और मन के विचार मेल खाते ही काकू के आंसू सूखने लगे।
पूरे लॉकडॉउन के कारण परिजन और रिश्तेदारों से घर आबाद था ऐसा लगता था जैसे कि मां का मृत्यु महोत्सव चल रहा हो, घी, गुड़ की धूप के साथ रवे के लड्डू,चक्की, खीर पूड़ी का भोग ना केवल मां को बल्कि पूरे परिवार को तृप्त करता रहा । हर पल यह प्रतीत होता था कि पूरे परिवार को अन्न- जल की व्यवस्था, स्वयं मां ने अपने हाथों में ले रखी हो।
हा, माँ, ने ही तो सिखाया था घर आये अतिथि , साधु, सन्यासी को अन्न- जल और पशु पक्षियों को ग्रास देना चाहिए, अब होले-होल दबे पांव आँगन की गिलहरी मूंगफली दाना और चिड़िया दाना चुगने लगी।