कहा से आई ऐसी नंगाई, मेरा इंदौर तो ऐसा नही था

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नितिनमोहन शर्मा

मेरा इंदौर तो ऐसा नही था। यहाँ की सु-कुमारिया ऐसी तो कभी नही रही। न यहाँ के युवा। कहा से आया ये बेगैरती का कल्चर? कैसा है ये कल्चर? जिसमे आधे नंगे जिस्म की नुमाईश गैरत का विषय नही। जहां सिगरेट के छल्ले बनाती युवतियां स्टेटस सिंबल है। सरेआम शराब, बियर गटकती लड़किया स्मार्ट और एडवांस है। जहा नशे में धुत्त ओर अश्लीलता की हद पार करते युवा माचो मेन है।

मेरे शहर ने तो ऐसे नजारे कभी देखे तो दूर, सोचे भी नही थे। क्या होती है ये पूल पार्टियां?? कौन करता है इन पार्टियों को आयोजित?? इसमे शिरकत करने वाले कौन है? कहा होती है ये पार्टियां ओर क्यो होती है? कैसे इन पार्टियों में शराब सिगरेट हुक्का ही नही, ड्रग्स भी इसमे शामिल हो रही है। वक्त पड़ने पर रूम भी उपलब्ध है। धुत्त होने और होश खोने पर घर पहुंच डिलीवरी सुविधा है।  कैसे ओर किसकी शह पर ये सब हो रहा है? किसका सरंक्षण है इस अश्लीलता को? कौन है वे लडकिया है जिन्हें ये सब किये भोजन नही पच रहा? कौन है वे युवा जिन्हें इस किस्म की पार्टी किये बगेर अपनी अधकचरी जवानी अधूरी लगती है?

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कौन है इनके माँ-बाप? क्या ये लावारिस औलादे है? इनको रोकने टोकने वाला कोई नही? घर से आधी नंगी पोषाक पहनकर बाहर जाती इन नशेड़ी लड़कियों को कोई रोकने वाला नही? क्या मर गए इनके मा बाप, भाई, बहन, काका चाचा, नाना मौसा दादा सब काल कवलित हो गए? या ये नशेवाली पीढ़ी घर वालो को भी वैसे ही घोलकर पी गई, जैसे वोद्का के शाट्स में चुटकी भर नमक घोलकर पी जाती है? जिनके कूल्हों पर जीन्स नही टिक रही, वे पब बार मे क्यो आये दिन आधी आधी रात तक बहादुरी दिखा रहे है?

ऐसा तो नही थी मेरा शहर। प्रदेश में संस्कारधानी भले ही जबलपुर को कहा जाता है लेकिन ये अहिल्या नगरी कहा पीछे थी? यहां की सु-कुमारिया तो संझा के मांडने मांडती थी। जगदम्बा की आराधना करती गरबे रमती थी। 16 दिनों तक गणगौर पूजती थी। बहुत हुआ तो सब सहेलियां किसी बाग बगीचे में टिफ़िन पार्टी कर लेती थी। गली मोहल्ले, ओटले-अटारिया मिलन के केंद्र होते थे। मचक मचक ओर लचक लचक झूलो का आनंद भी तो इसमें शामिल था न? सिनेमा वो तो परिवार के साथ ही होता था न? दिन ढलने के बाद युवतिया यूं आधी रात तक बाहर नही भटकती थी।

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ओर युवा..गलती से भी शराब का सेवन कर लेते थे तो तब तक घर नही लौटते थे, जब तक मुंह से शराब की दुर्गंध नही जाती थी। घर जाने से पहले दोस्त आपस मे एक दूजे का मुंह सूंघकर कन्फर्म करते थे कि पकड़े तो नही जाएंगे। परिवार तो दूर, गली मोहल्ले के बड़े बुजुर्ग का भी तो मान था और वो ही टोक़ देते थे। फिर किसकी नजर लगी मेरे शहर को? कौन है ये लोग जो इस तरह की अश्लीलता को व्यापार बना बेठे। कौन प्रश्रय दे रहा इनको? क्या इनके लिए पैसा ही सब कुछ है? इनकी औलादें है कि ये सब निपुते है, बगेर आस औलाद के?

थोड़ी सी भी शर्म नही है इन क्लब, पब, पूल ओर पार्टियां आयोजित करने वालो में? या इनकी बीवी बहन बेटी और माँ बुआ भी इसी काम मे लिप्त है? क्या इस गंदे धंधे में इन लोगो ने अपने परिवार की महिलाओं को भी उतार दिया है? अगर ऐसा नही है तो ये कैसे अपने परिवार की बहन बेटियो से आंखे मिला लेते है? क्या घर के लोग इन अश्लीलता परोसती पार्टियों के समाचार नही पढ़ते होंगे? क्या उन्हें नही पता कि उनका बाप, भाई, पति, ये गंदगी परोसकर घर लौटा है? मोटी कमाई के चक्कर में लाज शर्म बेचने वाले ये रसूखदारों की आत्मा मर गई है शायद या ये गंदे धंधे में शामिल लोग शहर के नही? या उनका डीएनए भी वैसे ही मिक्स है, जैसे बियर में व्हिस्की मिक्स की जाती है।

..ओर वो तंत्र कहा है जिसकी नाक के नीचे ओर आंख के सामने ये सब हो रहा है? क्या रिश्वत ही अब इस तंत्र का पहला और अंतिम लक्ष्य हो चला है? समाज के प्रति कोई उत्तरदायित्व इस तंत्र का नही? फर्ज वाली वर्दी पहनने वालो का कोई फर्ज नही की वे अश्लीलता के इस नाग का फन कुचले? वे प्रतिनिधि कहा है को जन का प्रतिनिधित्व करते है। 20 साल से तो उनकी ही सत्ता है जो ” सांस्कृतिक राष्ट्रवाद” का सालों साल से शोर मचा रहे है।

क्या ये पब कल्चर ही उनका सांस्कृतिक राष्ट्रवाद है? या गन्दी कमाई की नियमित मिलती “बंदी” ने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को दरी के नीचे खिसका दिया है? किसी एक नेता में ये हिम्मत नही की वो आंदोलन तो दूर, जुबान ही खोल दे? ऐसी केसी परबसता? अब तो प्रदेश के मुखिया ने भी दो टूक कह दिया कि नशे का ये व्यापार अब बर्दाश्त नही। फिर किसकी अनुमति से ये पब बार धड़ाधड़ खुल रहे है और ऐसी पार्टियां हो रही है। अब सवाल इस शहर के बाशिंदों से भी। वे इस शहर को इस हाल में देखना पसंद करते है या इसे नियति मानकर यू ही खामोश बेठकर नंगापन देखते रहेंगे? अश्लीलता के खिलाफ आवाज उठाने का ठेका क्या कलम को ही दे रखा है या फिर स्वयम भी मैदान पकड़ेंगे?