एकतरफ़ा नहीं है The Kashmir Files, हर पक्ष को मिला खुद को जस्टिफाई करने का मौका

Piru lal kumbhkaar
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प्रवीण दुबे

The Kashmir Files का कल देर रात वाला शो मैंने देखा..फिल्म ऐसी हाउसफुल चल रही है कि रात दस बजे के शो में भी बमुश्किल एक टिकिट मिल पाया था..खैर.. दहला देने वाली, सोचने को बाध्य करने वाली फिल्म है.

कश्मीरी पंडितों की पीड़ा के बारे में सिर्फ पढ़ा था और बहुत सारा Rajesh Raina सर की जुबानी सुना था. उन्होंने भी विस्थापन का ये दर्द झेला है.. उनसे कहानियां सुनते वक़्त भी रोंगटे खड़े हो जाते थे फिर जब उसे बड़े परदे पर देखा, तो दर्द और महसूस हुआ..

मुझे हैरत है कि इस फिल्म को लेकर एक पूरा वर्ग विरोध करने में क्यूँ जुटा है.. यदि थियेटर में देश के गद्दारों के ख़िलाफ़ नारे लगते हैं, तो एक कौम विशेष क्यूँ उसे अपने ऊपर हमला मान लेती है. सारी कौम को तो गद्दार नहीं कहा जा रहा… वीरप्पन की क्रूरता पर फिल्म बने या यूपी के विकास दुबे पर बने, तो उनकी जाति से जुड़े लोगों को इतना कष्ट नहीं होगा क्यूंकि जो बुरा है,वो बुरा है….बुरे की कोई जात नहीं होती…

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इस फिल्म को लेकर बने माहौल से ऐसे प्रचारित हो रहा है, जैसे ये देश के मुसलमानों के खिलाफ़ उकसा रही है..अरे जब आप अपनी फिल्म में कहते हैं “माय नेम इज़ खान एंड आई एम् नॉट ए टेरेरिस्ट” तो देश की बहुसंख्य आबादी आपके साथ मिलकर यही दोहराती है…फिर कश्मीरी पंडितों का दर्द जब फिल्माया जाए, तो आपसे भी ऐसी ही उम्मीद क्यूँ नहीं करना चाहिए…?

कृष्णा पंडित बने दर्शन कुमार की आख़िरी की पूरी स्पीच से मैं सहमत हूँ. कश्मीर या कोई भी शहर क्यूँ आक्रांताओं की पहचान को ढोता रहे…वो जो उसकी पहचान कभी थी ही नहीं,बल्कि उसके ऊपर बलात लादी गई है.. इस देश में आज भी कितने प्रतिभाशाली मुसलमान हर फील्ड में हैं और उनको सिर आँखों पर बैठा कर रखा है लोगों ने..

ये फिल्म सिर्फ एक घटना का त्रासद सच सामने ला रही है, तो मुझे नहीं लगता कि पूरी कौम को इस पर हाय तौबा मचाना चाहिए.. जहाँ तक फिल्मांकन का सवाल है तो कुछ चूक हैं इसमें..कहीं कहीं लम्बी खिंचती हुई सी लगेगी… एक रिवॉल्वर से 25 गोली दनादन निकलवाने की ग़लती आज के दौर का कोई निर्देशक कैसे कर सकता है…किसी के अभिनय में कमी या भाव भंगिमाओं में वो सहजता ना आने पर बात हो सकती है लेकिन कथानक को लेकर इतना हल्ला मचाने की ज़रूरत कतई नहीं है…

ये बिलकुल भी एकतरफ़ा नहीं है, संवादों के ज़रिये दूसरे पक्ष को, जो वाकई हत्यारे हैं, उन्हें भी जस्टिफाई करने की कोशिश इस फिल्म में दिखती है..जिन्हें ये फिल्म बुरी लगी हो, तो लगी हो लेकिन मुझे तो झकझोरने वाली लगी और यही इस फिल्म की सफ़लता भी है कि दर्शकों का तादाम्य उसके साथ बनता रहे..