एसोसिएशन ऑफ थोरेसिक एंड वैस्कुलर सर्जन्स ऑफ इंडिया (एटीवीएसआई), एमपी एएसआई और एएसआई सिटी चैप्टर द्वारा वार्षिक राष्ट्रीय कांफ्रेंस– एटीवीएसआईकॉन 2024 का आयोजन विशेष जुपिटर हॉस्पिटल में किया गया। एक दिवसीय इस कांफ्रेंस में देश के विभिन्न हिस्सों से आए करीब 40 विशेषज्ञों ने थोरेसिक और वैस्कुलर सर्जरी की नई तकनीक पर चर्चा की और छाती व खून की नसों से संबंधित बीमारियों पर अपनी विशेषज्ञता और अनुभव बांटे। वरिष्ठ और अनुभवी डॉक्टर्स जैसे डॉ अमोल भानुशाली, डॉ आभा चंद्रा, डॉ एस के जैन, डॉ अश्वनी दलाल, डॉ मदन मोहन वशिष्ठ ने फैकल्टी के तौर पर अपने केस प्रेजेंट किए। इस कॉन्फ्रेंस में कुछ डॉक्टर्स ऑनलाइन भी जुड़े। कॉन्फ्रेंस में एटीवीएसआई के वरिष्ठतम सर्जन डॉ वी. के. अग्रवाल को कांफ्रेंस में थोरेसिक और वैस्कुलर सर्जरी के क्षेत्र में अप्रतिम कार्य के लिए लाइफटाइम अचीवमेंट अवॉर्ड से सम्मानित किया गया।
एटीवीएसआई के नेशनल प्रेसिडेंट डॉ. अमिताभ गोयल ने कहा कि, कांफ्रेंस में खून की नसों, छाती और फेफड़ों की बीमारियों पर चर्चा हुई। कॉन्फ्रेंस में लोगों में जागरूकता पर भी चर्चाएं की गई। उन्होंने कहा कि अक्सर लोग छोटी–छोटी बीमारियों को नजरंदाज कर देते हैं, जो समय के साथ बढ़ती जाती है और स्थिति गंभीर हो जाती है। पैर में सूजन, नसों का बड़ा होना, पैर काला होना जैसे लक्षण दिखने पर तुरंत डॉक्टर से संपर्क करना चाहिए। वहीं, यदि खांसी के साथ खून आना या खांसी के साथ कफ आना भी आम नहीं है। यह टीबी और कैंसर के लक्षण हो सकते हैं। यदि मरीज शुरुआत में डॉक्टर के पास पहुंचता है तो जल्द इसका इलाज शुरू हो सकता है।
डॉ. गोयल ने आगे कहा कि छाती (Chest) और खून की नलियों (blood vessels – vascular) की बीमारी के मामले में भारत दुनिया में अग्रणी है। इस बीमारी के अधिकतम मरीज सर्जरी के माध्यम से ठीक किए जा सकते हैं। कई मुश्किलों के चलते इन मरीजों को गुणवत्तापूर्ण सर्जरी नहीं मिल पाती और इसका बड़ा कारण मरीजों और उनके रिश्तेदारों के अंदर का डर है। इस कॉन्फ्रेंस के माध्यम से दुनिया के दूसरे सबसे अधिक आबादी वाले देश में वैसक्यूलर और थोरेसिक सर्जरी के महत्व को आमजन तक पहुंचाने की बड़ी जरूरत महसूस की गई।
कॉन्फ्रेंस के अध्यक्ष डॉ. अंकुर माहेश्वरी ने कहा कि खून की नलियों संबंधित बीमारियां उम्र के साथ बढ़ती हैं। नसों में रुकावट होने से पैर काला पड़ने लगता है और गैंगरीन के चलते अब पैर काटने की आवश्यकता ना के बराबर होने लगी है। बिगड़ती लाइफस्टाइल के कारण भी इसमें बढ़ोतरी हो रही है। कोरोना काल के बाद भी इस तरह की बीमारियाँ बढ़ी है।
कॉन्फ्रेंस के सचिव डॉ. अक्षय शर्मा ने कहा कि पैरों की सूजन के कई कारण हो सकते हैं, जिनमें हार्ट और किडनी के बाद का तीसरा सबसे बड़ा कारण खून की नसों में ब्लॉकेज या वेरीकोस वेंस होता है। इस स्थिति में पैर के निचले हिस्सों में सूजन के साथ दर्द भी होता है और चमड़ी का रंग गहरा होना शुरू हो जाता है। ऐसी परिस्थिति में मरीजों को हम कलर डॉपलर सोनोग्राफी करने के लिए सलाह देते हैं ताकि इस बीमारी की गंभीरता मालूम की जा सके। अक्सर इसका इलाज वजन कम करने और लाइफस्टाइल बेहतर करने से हो जाता है, परंतु इसका सबसे सटीक इलाज सर्जरी होता है। जरूरी है कि इस बीमारी की शुरुआत में ही पहचान हो जाए और इलाज शुरू हो जाए।
कॉन्फ्रेंस की कोषाध्यक्ष डॉ. वंदना बंसल ने कहा कि, फेफड़ों की बीमारियों का एक प्रमुख लक्षण खांसी होता है, जिसे घरेलू इलाज आदि कर नियंत्रण में लाने की कोशिशें होती हैं। बीड़ी – सिगरेट पीने वाले, तंबाखू उत्पादों का उपयोग करने वाले मरीजों में जब खांसी के साथ साथ, थूक या खखार में खून निकलने, दर्द और छाती या पेट में सूजन जैसे लक्षण दिखाई दें, तो उन्हें सलाह दी जाती है कि वे और गहराई से इसकी जांच कराएं और टी बी या कैंसर जैसी बीमारी नहीं है, यह सुनिश्चित करना चाहिए ताकि यदि शुरुआती दौर में बीमारी पकड़ में आ जाए तो सर्जरी की जरूरत ही ना हो। इसके अलावा जब भी बुखार लंबे समय तक ठीक नहीं होता है, तब भी छाती में पानी भरने या पस पड़ जाने की संभावना पर विशेषज्ञ का ध्यान जाता है।
डॉ वंदना बंसल ने इस ब्रांच के बारे में कहा कि यह सर्जरी की सब ब्रांच है, जिसमें छाती से संबंधित बीमारियों की सर्जरी और ब्लड वेसल्स के टॉपिक्स और केस पर बात हुई। इसमें फेफड़े और, ग्रंथियां (Glands) आती है। वैस्क्यूलर और थोरेसिक बीमारियों के लिए अब अलग–अलग स्पेशलिस्ट होते हैं। जरूरत इस बात की है कि यदि हम सही स्पेशलिस्ट के पास जाएंगे तो इलाज सही होगा, समय बचेगा और सिर्फ जरूरत होगी उतने ही पैसे लगेंगे। इसके अलावा, एक्सीडेंटल केस में भी जब जरूरत लगती है तो वैस्क्यूलर और थोरेसिक सर्जन की मदद ली जाती है। कॉन्फ्रेंस में इस बात को भी माना गया कि वैस्क्यूलर और थोरेसिक सर्जरी में सर्जन की कार्य कुशलता और अनुभव के साथ साथ प्रशिक्षित नर्सिंग स्टाफ, रेसपिरेटरी थेरेपिस्ट, फिसियो थेरेपिस्ट और बायोमेडिकल इंजीनियर्स की भी आवश्यकता होती है।