देवेंद्र बंसल
मेरा शहर अब बड़ा हो गया है ,इसकी हवा में भी फ़र्क़ आ गया है । हम जो कभी एक सिरे से सायकल से निकलते थे तो दूसरे सिरे पर बहुत जल्दी पहुँच जाते थे ।शहर के लोग हमें और हम उनको पहचानते थे । अब यह मुश्किल हो गया है ।साधारण जीवन , मिलना जुलना और दस बजे तक घर आ जाना ,अब वह सब कहाँ है ,जीने के तरीक़े बदल गए ।
आपसी प्रतिस्पर्धा की होड़ में हम आगे हो गए है ।पहनावा रहन सहन हमारा बदल गया है ।देर रात की पार्टियाँ युवाओं को बदल रही है।
अनेको पब डिस्क खुल गए है जो युवाओं को बेसुध की हालत में घर भेज रहे है ।रोज़ के विवाद और सड़क हादसे भी इससे बढ़े है ।युवक के साथ युवतियों को भी पालकों को सम्भालना मुश्किल हो गया है । हम कहाँ जा रहे है ,नई पीढ़ी की मानसिकता को दीमक लग रहा है ,जो परेशानी के सागर में धकेल रही है ।क्या शहर के ज़िम्मेदारों ने कभी इस पर विचार मंथन किया है ?हम विकास की बात करते है ,पानी बिजली सड़क महंगाई सबकी बात करेंगे ।लेकिन हम इन विषयों पर बात नही करते ,पारिवारिक जीवन के हरे भरें बगीचे को उजाड़ने से बचाने की बात नही करते है ।
आज अनेको घर बर्बाद हो रहे है ।देर रात तक माता पिता बच्चों का इंतज़ार करते है ।यह उनकी समय के साथ मजबूरी है ।बच्चियाँ भी इस से बच नही पा रही है ।जिसका ग़लत फ़ायदा भी उठाया जा रहा है ।यह सब सवाल खड़े करते है ,अनेको सम्बन्ध इस वजह से टूट रहे है ।हम कहाँ जा रहे है ,बच्चों के इस मशीनी युग में हम सबको सोचना होगा ।
परिवर्तन , परिवर्तित लहर से ही आएगा ।
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युवाओं में स्कूल कालेज से ही ऐसे विषयों को गंभीरता से लेना होगा ।सामाजिक विचारधारा से समाज में भी ऐसे विषयों को उठाना होगा । मेरे शहर की रोनक बढ़ी है ,स्वच्छता बढ़ी है ।नई पीढ़ी की सोच और कार्य क्षमता की पावर शक्ती भी बढ़ी है ।लेकिन बदलते परिवेश की चंचलता में हमारे संस्कार कहीं भटक गए हैं।