हर आत्महत्यारा सुशांत नहीं होता

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By Mohit DevkarPublished On: August 11, 2020

राकेश अचल

फिल्म अभिनेता सुशांत सिंह की आत्महत्या का मामला इतना तूल पकडे हुए है कि पूरे देश के टीवी चैनल हलकान हैं ,बिहार और महाराष्ट्र की सरकारें आमने-सामने हैं और केंद्र की सरकार भी सीबीआई जांच के लिए रजामंद होकर इस मामले को महत्वपूर्ण बना चुकी है ,लेकिन सवाल ये है कि देश इस आत्महत्या के पीछे इतना गंभीर और भावुक क्यों हो रहा है ?

जिस देश में सुशांत ने आत्महत्या की है उस देश में हर चार मिनिट में एक आत्महत्या होती है ,लेकिन हर मरने वाला सुशांत की तरह किस्मत वाला नहीं होता जो आत्महत्या जैसा घ्रणित कदम उठाकर भी सुर्ख़ियों में ज़िंदा बना रहता है. मुझे 2011 की ये खबर अब भी याद है जिसमें कहा गया था कि देश में हर 4 मिनट में कोई एक अपनी जान दे देता है और ऐसा करने वाले तीन लोगों में से एक युवा होता है यानी देश में हर 12 मिनट में 30 वर्ष से कम आयु का एक युवा अपनी जान ले लेता है। ऐसा कहना है राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो का। हाल ही में आए दुर्घटनाओं और आत्महत्या के कारण मौतों पर वर्ष 2009 के रिकार्ड के मुताबिक 2009 में कुल 1,27,151 लोगों ने आत्महत्या की, जिनमें 68.7 प्रतिशत 15 से 44 वर्ष की उम्र वर्ग के थे। दिल्ली और अरुणाचल प्रदेश में आत्महत्या करने वालों में 55 प्रतिशत से ज्यादा 15 से 29 वर्ष आयु वर्ग के थे। दिल्ली में आत्महत्या करने वाले 110 में से 62 तथा अरुणाचल प्रदेश में आत्महत्या करने वाले 1,477 में से 817 इस उम्र वर्ग के थे।

किसी न किसी वजह से आत्महत्या करने वाले इतने ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं होते जितना सुशांत हो गया है .सुशांत की आत्महत्या के साथ अनेक रहस्य जुड़े हैं या जोड़े जा रहे हैं. दुनिया भर के मामले सुलझाने में दक्ष मुम्बई की पुलिस इस मामले में सवालों के घेरे में है.बिहार पुलिस इस मामले में दूसरी पार्टी है और अब तो पुलिस ही नहीं दोनों राज्यों की सरकारें इस मामले में पक्षकार बनी खड़ी हैं .क्या सचमुच सुशांत की आत्महत्या से कोई राजनीतिक लाभ उठाने का प्रयास किया जा रहा है ?

सुशांत आत्महत्या के मामले में पुलिस से ज्यादा टीवी चैनलों ने रहस्य उजागर कर दिखाए हैं. जब सुशांत ज़िंदा था तब उसके बारे में किसी चैनल को कुछ पता नहीं था लेकिन जब सुशांत मर गया है तो टीवी चैनलों को वे सब जानकारियां हैं जो मुमकिन है कि मरहूम सुशांत को भी न हों ! कोरोनाकाल की हताशा में अकेला सुशांत ही आत्महत्या करने वाला नहीं है. दिल्ली,मुंबई,इंदौर,और दक्षिण में भी अनेक युवा अभिनेताओं ने आत्महत्या की लेकिन कोई दूसरा मामला इतना गर्म नहीं हो पाया क्योंकि इनमें से किसी के साथ राजनीति और राजनेता शामिल नहीं थे .

सुशांत के परिजन राजनीति में हैं और सुशांत की महिला मित्रों के परिजन भी राजनीति में हैं ,शायद इसीलिए ये मामला इतना राजनीतिक रंग ले पाया है .सुशांत तो चला गया ,अब उसकी मौत से किसे और कितना लाभ होगा ये समझने की जरूरत है .लेकिन इसे केवल संबंधित पक्षकार समझें तो ठीक है,पूरा देश क्यों समझे और पूरे देश को ये समझाया भी क्यों जा रहा है ?आप खबरें सुनने के लिए कोई भी टीवी चैनल खिलिये उसमें ‘सुशांत स्पेशल’ चलता नजर आता है .ये या तो टीवी चैनलों का खोखलापन है या फिर ये सब प्रायोजित है .दर्शकों की समझ में नहीं आ रहा है कि देश सुशांत के लिए कब तक आंसू बहाये ?

हमारे टीवी चैनल और पुलिस अभिनेता समीर शर्मा और सेजल शर्मा की आत्महत्या को लेकर इतनी संवेदनशील क्यों नहीं है ?प्रेक्षा मेहता और मनमीत ग्रेवाल की आत्महत्या क्या आत्महत्या नहीं है ? अनुपमा पाठक की आत्महत्या पर कोई सवाल नहीं उठाये गए क्योंकि ये सब सुशांत की तरह किसी सियासी जमीन पर नहीं खड़े थे .इनकी मौत से किसी को सियासी लाभ नहीं हो सकता है .सुशांत की मौत को लेकर हो रही सियासत ने प्रमाणित कर दिया है कि सियासत कितनी हृदयहीन और गंदी चीज है .सियासत जिन्दा ही नहीं मृत शरीरों पर भी अपनी रोटियां सेंक सकती है .

सुर्ख़ियों के प्रति समर्पित इस देश की सियासत और मीडिया को प्रणाम करने का मन होता है .दोनों एकदम सिरे से खोखले हो चुके हैं .समाज में अब विद्रूपता के अलावा शायद इन दोनों की वजह से कुछ अच्छा बचा ही नहीं है .टीवी चैनलों का समाज के प्रति अब शायद कोई दायित्व है ही नहीं,वे सियासत के गुलाम हैं ,उन्हें या तो सियासत दिखाई देती है या अपराध .जब कुछ नहीं बचता तो फूहड़ हास्य परोसने से भी ये बाज नहीं आते.फिर आप कह सकते हैं कि -‘ये समाज के दर्पण हैं.यदि हैं तो तोड़ दीजिये ऐसे दर्पणों को अन्यथा ये एक दिन आपकी सोच को भी अपनी तरह सम्वेदनशून्य,हिंसक और विद्रूप बना देंगे.