राजनीतिक युक्त फ़िल्मी ड्रामा?

Author Picture
By Mohit DevkarPublished On: July 11, 2020

शशिकांत गुप्ते


फिल्मी ड्रामें की पटकथा जैसे लिखी गई थी,ठीक वैसा ही हूबहू ड्रामे का पटाक्षेप भी हुआ।सस्पेंस नदारद हुआ।सस्पेंस को हिंदी में दुविधा कहते हैं।दुविधा की स्थिति तो ड्रामा समाप्त होने के बाद निर्मित हुई।दुर्जन का वध करने के बाद दुविधा निर्मित होना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। सस्पेंस फ़िल्म की यही खासियत होती है कि,फ़िल्म के प्रारम्भ से समाप्ति तक दुविधा बरकरार रहनी चाहिए।दर्शकों की सस्पेंस जानने की उत्सुकता अंत तक बनी रहना चाहिए। यह फिल्मी ड्रामा दो प्रान्तों के शासन के अंर्तगत कार्य करने वाले प्रशासनिक मशीनरी द्वारा सम्पन्न हुआ।इसीलिए सारी गड़बड़ हो गई।यह दोनों प्रान्तों के शासक तो एक ही बिरादरी के हैं।

इस फिल्मी ड्रामे में सस्पेंस नदारद होने का मुख्य कारण मनोरंजन के क्षेत्र में भी राजनीति का हस्तक्षेप होना,या यूं कहें कि राजनीति युक्त मनोरंजन होना।इनदिनों राजनीति में युक्त और मुक्त शब्दों का प्रचलन बहुत हो रहा है। इस ड्रामे में भी यही हुआ एनकेनप्रकारेण खलनायक को जीवन से मुक्त करना ही था। इस खलनायक के साथ दुविधा यह थी कि,यदि इसे बचा लेते तो इससे पूछताछ करने बजाए इसकी अच्छे से पूछपरख करनी पड़ती और वह कुछ ऐसे वैसे संवाद बोल देता जो हाथी की या साईलक की सवारी करने वालों की जगह कीचड़ में फलने फुलने वाले गुल को थामने वालों को ही दलदल में फंसा देता।यह कमाल वह कर सकता था, कारण वह इन्ही के कारण सुरक्षित भी था और इनके लिए सिरदर्द भी और इन्ही की उस पर सरपरस्ती भी थी।

साँप छछुंदर का खेल हो गया था।न निगल सकते थे न उगल सकते थे।यदि विकास अपने संवादों में ऐसी बातें उगल देता,जो बातें, पता नहीं कितनों के लिए विनाश का कारण बन जाती। यह तो विनाश से बचने के लिए मंदिर की राजनीति करने में जो लोग अभ्यस्त है उन्होंने खलनायक को मंदिर में ही बुलाया। इस फिल्मी ड्रामे की एक बहुत ही महत्वपूर्ण बात है।इस ड्रामे में अभिनेता का लोप है।सभी पात्र चरित्र अभिनेता हैं।इस वाक्य को मेरे एक व्यंग्यकार मित्र ने कहा इस वाक्य को यूँ लिखों सभी चरित्रहीन पात्र हैं।लेकिन मैने मना कर दिया मेरे संस्कार इसकी इजाज़त नहीं देते।

मंदिर की राजनीति भी कमाल की है,विकास शायद यह गाते हुए आया होगा, “चलो बुलावा आया है,महाँकाल ने बुलाया है?” यह महाँकाल ही उससे के लिए काल का सबब बन गया? एक जानकारी के लिए बता दूँ, उज्जैन से कर्क रेखा गई है यहॉ से काल अर्थात समय गणना होती थी वह भी महा काल की गणना होती थी। इसीलिए इसे महाँकाल की नगरी कहा गया, ऐसा ऐतीहासिक में लिखा है। विकास को उसके विनाश के लिए जिस भी किसी सज्जन ने बुलाया होगा उसने यही कह कर बुलाया होगा।। “आत्मसमर्पण के लिए बुलाया मंदिर दर्शन के बहाने?” वह भी भावनाओं में बह गया, और झांसे में आ गया।जो भी सज्जन होंगे जन्होने विकास को पूर्ण सुरक्षा मुहैय्या करके ही बुलाया होगा? वह सौ फी सदी सज्जन ही होने दुर्जन हो ही नहीं सकते।

यह कहावत भी चरितार्थ हो गई कि, चौबे जी छब्बेजी होने गए थे दुबेजी होकर लौटे।यह पहले ही दुबेजी ही थे।राजनीति युक्त फिल्मी ड्रामे का अंत बहुत ही कुटिलता से हुआ। काश इस तरह की राजनीति गोडसे के समय होती?यह प्रश्न जहन में उपस्थित होते ही यह विचार तुरन्त ही मानस पलट पर उभर के आया कि, नहीं ऐसा हो नहीं सकता था।यदि ऐसा होता तो बापू की आत्मा को ताजिंदगी शांति नहीं मिलती। आज गोडसे वाली मानसिकता पुनः जोर शोर से जागृत हो गई है।यह विनाश का ही लक्षण है।
इसीलिए विकास आतंकवादी उग्रवादी बनता है,और विकास का ही एनकाउंटर होता है।

यहाँ पर मानव अधिकार का कोई प्रश्न नहीं है उठता?सवाल यह है कि,कोई भी निर्णय जनहित हो तो उसका स्वागत होना ही चाहिए लेकिन निर्णय के पीछे छीपी नीयत को पहचानना सिर्फ आवश्यक ही नहीं अनिवार्य भी है। अंत में एक बात स्पष्ट कर दु, आवश्यकता से अधिक कीचड़ दलदल में बदल जाता है।अति सर्वत्र वर्जिते।अति कीचड़ जब दलदल में परिवर्तित हो जाता है तब फलने फुलने वाला फुल मुरझाने की पूर्ण संभावना बन जाती है। अंत मे पुनः एक बार कहना है,अन्तः विकास का एनकाउंटर हुआ,नहीं जानबूझ कर किया गया है। जो भी हो सस्पेंस कभी समाप्त नहीं होता। झूठ,झूठ ही रहता है,सच,सच होता है।झूठ की बुनियाद पर कितनी बड़ी इमारत बना लो उसका ढहना सुनिश्चित है।