राजनीति में वायदे और कायदे कुछ होते नहीं….किससे नुकसान और किससे फायदे कुछ होते नहीं…चुनाव आये तो घोषणाओं और लोक लुभावन वायदों की बाढ़ आ गई…रंग बदलने की अदा पर जनता फिदा हुई फिर लोमड़ी गिरगिट को खा गई….किसी ने प्रमाणपत्र तक दे दिए तो किसी ने दिए कागजात खटाखट नोट आने के…कोई मौका नही चूक रहा था हर किसी के पास कई फंडे थे फंड बिना ही मतदाताओं को लुभाने के…अब चुनाव शांत हो गए शोरगुल भी शांत पर ठगाए लोग हो रहे हैं आक्रांत…
किसी के हाथ में पत्र है तो किसी के पास प्रमाणपत्र बचा नही कोई गली , मोहल्ला , शहर , प्रान्त…किसी को पंजा गंजा कर गया तो किसी की तिजोरी पर लग गई झाड़ू…सायकिल भी हो गई पंचर तो हाथी कहे कौन कौन से खम्बे उखाडूं…कमल खिलने के पहले ही भेंट चढ़ गया…घड़ी घड़ी घड़ी देखते रहे तो धनुष मशाल की पुस्तक पढ़ गया…जनता तो उंगली का निशान मिटने के पहले ही ईवीएम में कैद हो गई…राजनीति की कुटिल किताब धीरे धीरे धर्म की सीढ़ी पर चढ़कर वेद हो गई…
दलों को प्राप्त सीटों की दलीय तस्वीर हुई साफ…अब सत्ता सुंदरी पर मोहित होने की जुगत में मांगने लगे इंसाफ…फसाना तो तब हो गया जब आंकड़ों की बाजीगरी में फेल हो गए…चंद सीटों के सौदागरों पर दृष्टि टिकी तो वे भी नाक की नकेल हो गए…जैसे तैसे सरकार आई अस्तित्व में तो कयास शुरू पर्दे के पीछे से गिराने वालों के…राजनीति शतरंज है वजीर को भी प्यादों से शह और मात के बीच मस्तिष्क से दलों को एक सूत्र में पिराने वालों के…
लोकतंत्र की इसी मनोरंजक परंपरा का हम वर्षों से आनन्द ले रहे है…हर पांच साल में पांच बार दल बदलने वाले नेता भी परीक्षा दे रहे हैं…सलाखों के पीछे जेल में बन्द रहने वाले भी चुनाव की वैतरणी पार कर लेते हैं…शपथ के लिए पैरोल और फिर जमानत की अर्जी से गुंडे भी हौसला भर लेते हैं…राजनीति की माया हो या माया की राजनीति दोनों में ही नेता की जीत होती है…जनता को तो फिर कमाकर खाना है इसलिए उसे सिर्फ रोजी रोटी से ही प्रीत होती है।