ग्वालियर-चंबल में सिंधिया फैक्टर भाजपा की कितनी मदद करेगा! क्या दोबारा बनेगी शिवराज-महाराज की सरकार?

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ग्वालियर। चंबल में किसका राजनीतिक वजूद सब पर भारी है। गुना में हार के बाद ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ शेष इलाका पूरी कट्टरता से खडा हो गया है। ग्वालियर में नरेन्द्र सिंह तोमर और जयभानसिह पवैया से भी अधिक वजन ज्योतिरादित्य सिंधिया का है, यह कितना सही है? नरेन्द्र सिंह तोमर और ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ आने और जयभानसिह पवैया के अहं को तुष्ट कर भाजपा और अधिक सफलता हांसिल कर सकती है। गुना से उधर राजगढ तक और इधर ग्वालियर, शिवपुरी तक दिग्विजय सिंह और उनके राजकुमार राजवर्धन सिंह आक्रामक प्रचार और गद्दार का नारा लगाकर ज्योतिरादित्य सिंधिया पर विजय दर्ज करा सकते हैं तो इसका सही जवाब तो चुनाव ही देगा। पर जमीनी विश्लेषको की मानें तो महाराजा, राजा पर पूरी तरह से हावी है। जितनी घृणा चुनावी शोर में कांग्रेस की ओर से ढोली जाएगी, सिंधिया की वोट की झोली उतनी ही भारी होती जाएगी।

तो जमीन खसक गई थी…!

यह सही है कि ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कमलनाथ और दिग्विजय सिंह को सडक पर उतरकर दिखा दिया था कि वे क्या हैं? साल 2020 की बात है, हुआ यूं कि कमलनाथ के पैरों के नीचे से जमीन ही खिसक गई थी। न केवल मध्यप्रदेश की सरकार गिर गई , बल्कि युवा प्रतिभाओं की कमी से जूझ रही कांग्रेस ने इस पूरे घटनाक्रम में अपने एक राष्ट्रीय दिग्गज को खो दिया। 2018 के विधानसभा चुनाव में ग्वालियर-चंबल क्षेत्र में कांग्रेस पार्टी की जीत के पैमाने ने मध्य प्रदेश में कई दर्शकों को चौंका दिया था। 34 में से 26 सीटें जीतकर सबसे पुरानी पार्टी न केवल 15 साल बाद सत्ता में लौटी, बल्कि भारतीय जनता पार्टी को भी झटका मिला। चुनाव से पहले तक भाजपा अपनी जीत सुनिश्चित मानकर चल रही थी। जल्द ही कांग्रेस के हाथों से ये खुशी छिन गई। कांग्रेस के भीतर असंतोष और विद्रोह ने 2020 की शुरुआत में 15 महीने पुरानी कमलनाथ सरकार को गिरा दिया और इसके परिणामस्वरूप चुनाव में नकारे गये मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को अपना चौथा कार्यकाल उपहार में मिल गया।

ग्वालियर-चंबल क्षेत्र में स्थिति

करीब पांच साल बाद ग्वालियर-चंबल अंचल में दोनों पार्टियां आमने-सामने हैं। 2020 के उपचुनावों के बाद यहां कांग्रेस की संख्या घटकर 17 हो गई है, जबकि भाजपा ने अपनी ताकत सात से बढ़ाकर 16 कर ली है। बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के पास उस क्षेत्र की शेष सीटें हैं जहां जातिगत संघर्ष असामान्य नहीं हैं। बसपा इस क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण खिलाड़ी रही है क्योंकि पार्टी को 2019 के लोकसभा चुनावों को छोड़कर 2008 से दो अंकों में वोट शेयर प्राप्त हो रहा है।

सिंधिया फैक्टर जमीनी हकीकत

18 साल तक राज्य में शासन करने वाली भाजपा के खिलाफ सत्ता विरोधी हवा के अलावा, इस क्षेत्र में आगामी चुनावों में सबसे महत्वपूर्ण फैक्टर केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया हैं। पूर्व शाही परिवार और स्थानीय भाजपा नेताओं के वंशजों के बीच अब एक असहज समीकरण मौजूद है। भगवा खेमे में सिंधिया के समर्थकों के एकीकरण को लेकर भी पार्टी को चिंता है, पर उस दिशा में वह काम भी कर रही है।

कुछ समय पहले तक ग्वालियर-चंबल क्षेत्र में लोगों ने सिंधिया समर्थकों को उनके प्रति वफादारी का इजहार करते हुए देखा। यहां तक की उनके वाहनों में भी भाजपा के प्रतीक की तुलना में उनकी तस्वीरों को अधिक प्रमुखता से इस्तेमाल करते देखा। भाजपा के विपरीत, कांग्रेस में इस क्षेत्र में उनके कद का कोई नेता नहीं है। जबकि भाजपा में केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर और गृह मंत्री नरोत्तम मिश्रा जैसे वरिष्ठ नेता हैं, जो राज्य में शीर्ष पद के लिए दावेदार और आकांक्षी हैं। हालांकि राज्य भाजपा अध्यक्ष वीडी शर्मा लोकसभा में खजुराहो का प्रतिनिधित्व करते हैं, लेकिन उनका जन्म मुरैना में ही हुआ था।

ये इलाके भी महत्वपूर्ण

इस क्षेत्र में मुरैना, ग्वालियर, भिंड, शिवपुरी, श्योपुर, दतिया, अशोकनगर और गुना यानी आठ जिले शामिल हैं। ये वे क्षेत्र जो तत्कालीन ग्वालियर साम्राज्य का हिस्सा थे और ज्योतिरादित्य सिंधिया की राजनीतिक जागीर थी। इन आठ जिलों में से तीन चंबल संभाग और पांच ग्वालियर संभाग के अंतर्गत आते हैं। हालाँकि, वह गुना से 2019 का आम चुनाव हार गए, एक ऐसा निर्वाचन क्षेत्र जिसे तब तक पारिवारिक सीट माना जाता था। सिंधिया उस समय कांग्रेस पार्टी में ही थे। भाजपा ने 2008 और 2013 के चुनावों में ग्वालियर-चंबल क्षेत्र में अच्छा प्रदर्शन किया था।

जब उसने क्रमश: 27.24 और 37.96 प्रतिशत के वोट शेयर के साथ 16 और 20 सीटें जीती थीं। 2018 में ये वोट शेयर घटकर 34.54 पर आ गया। इसकी तुलना में कांग्रेस ने 2018 में अपना वोट शेयर बढ़ाकर 42.19 प्रतिशत कर लिया। 2008 में 28.68 प्रतिशत वोट शेयर के मुकाबले ये भारी वृद्धि थी। उस वक्त कांग्रेस केवल 13 सीटें जीतने में कामयाब हो पाई थी। 2013 में कांग्रेस ने अपना हिस्सा बढ़ाकर 35.57 प्रतिशत कर लिया, हालांकि इसकी संख्या एक से 12 सीटों तक कम हो गई। हालाँकि, भाजपा ने 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों में असाधारण रूप से अच्छा प्रदर्शन किया था, जब उसका वोट शेयर क्रमशः 46.14 और 52.43 प्रतिशत था।

अनुसूचित जाति वोट बैंक पर भाजपा की नजर

दरअसल, राजनीतिक जानकारों का मानना है, भाजपा की नजर दलित वोट बैंक पर है। लिहाजा भाजेपी ने इन पर फोकस करने के लिए अपने अनुसूचित जाति मोर्चा को एक्टिव करना शुरू कर दिया है, क्योंकि 2018 के विधानसभा चुनाव में यह वोटबैंक भाजपा के साथ से छिटक गया था। जिसका खामियाजा ग्वालियर-चंबल अंचल में पार्टी को भुगतना पड़ा था। ऐसे में भाजपा अब कोई कोर कसर नहीं छोड़ना चाहती। केन्द्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर, प्रदेश संगठन मंत्री हितानंद शर्मा, भाजपा अनुसूचित जाति मोर्चा के राष्ट्रीय अध्यक्ष लाल सिंह आर्य, मंत्री तुलसी सिलावट, अनुसूचित जाति मोर्चा के प्रदेश अध्यक्ष डॉ कैलाश जाटव, प्रदेश उपाध्यक्ष संध्या राय को महत्वपूर्ण जिम्मेदारी दी गई है।

ग्वालियर-चंबल में क्यों जरुरी है अनुसूचित जाति

दरअसल, ग्वालियर-चंबल अंचल में विधानसभा की 34 सीटें आती हैं, जिनमें से 7 सीटें अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित हैं। 2018 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस 34 में से 26 सीटें जीत ले गयी थी। खास बात यह है कि अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित 7 सीटों में 6 सीटों पर कांग्रेस ने कब्जा जमाया था, जबकि बीजेपी को केवल 1 ही सीट मिली थी। हालांकि उस वक्त कांग्रेस के स्टार प्रचारक ज्योतिरादित्य सिंधिया का इसमें बड़ा योगदान था जो अब भाजपा में हैं।सिंधिया के भाजपा में शामिल होने के बाद यहां के समीकरण बदल गए। उपचुनाव के बाद अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित 7 सीटों में 5 सीटों पर बीजेपी और 3 सीटों पर कांग्रेस का कब्जा है। लेकिन फिर भी ग्वालियर चंबल की 34 सीटों में से कई सीटों पर दलित वोट बैंक सबसे अहम माना जाता है। ऐसे में इस इलाके के जातीय समीकरण अभी से भाजपा को बेचैन किए हुए हैं, जिसके चलते पार्टी यहां कोई खतरा मोल लेना नहीं चाहती।

ग्वालियर-चंबल से हैं भाजपा अनुसूचित जाति के राष्ट्रीय अध्यक्ष

भाजपा की रणनीति को इस लिहाज से भी समझा जा सकता है कि ग्वालियर-चंबल से आने वाले भाजपा के दिग्गज नेता लालसिंह आर्य को पार्टी ने अनुसूचित जाति वर्ग के राष्ट्रीय अध्यक्ष की जिम्मेदारी दी है। जबकि ग्वालियर के प्रभारी मंत्री तुलसी सिलावट भी इसी वर्ग से आते हैं। इसके अलावा उपचुनाव में हारने वाले अनुसूचित जाति वर्ग के सभी नेताओं को पार्टी ने निगम मंडल में एडजस्ट करके उन्हें मंत्री का दर्जा दिया है। यानि पार्टी यह संदेश देने की कोशिश में हैं भाजपा अनुसूचित जाति वर्ग के लिए लगातार काम कर रही है और इस वर्ग से आने वाले नेताओं को पूरा सम्मान भी। यही वजह है कि ग्वालियर चंबल में भगवा माहौल बनाने के लिए पार्टी ने आक्रामक प्लान तैयार किया है।

फिर भी भाजपा का एक धडा….!

2020 में हुए उपचुनावों में सिंधिया के अधिकांश समर्थकों ने जीत हासिल की और इससे शिवराज सिंह चौहान सरकार को स्थिरता भी मिली। भाजपा ने 2018 में 109 से 230 सदस्यीय सदन में 127 तक अपनी स्थिति में सुधार किया। हालांकि, जुलाई 2022 में हुए मेयर के चुनाव में भाजपा को सिंधिया और तोमर के गृह क्षेत्र माने जाने वाले ग्वालियर और मुरैना में हार का सामना करना पड़ा था। चौहान, सिंधिया और तोमर सहित सभी वरिष्ठ नेताओं ने महापौर चुनाव में प्रचार किया था। इसके पीछे की वजह भाजपा के समर्थकों के एक धड़े की नाराजगी को भी बताया जा रहा है। भाजपा के एक बड़े नेता के अनुसार भगवा पार्टी के भीतर पहले से ही असंतोष और विद्रोह के संकेत थे क्योंकि कई टिकट उम्मीदवारों को लगता है कि उनके वास्तविक दावे को नजरअंदाज कर दिया जाएगा।

उनका कहना था कि सिंधिया ने जब भगवा खेमे में एंट्री की तो उनके सभी समर्थकों को टिकट मिलने की शर्त रखी गई थी। अपने वफादारों की कीमत पर भाजपा उस वक्त ऐसा करने के लिए बाध्य थी। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के भतीजे अनूप मिश्रा और जयभान सिंह पवैया जैसे भाजपा नेताओं ने सार्वजनिक रूप से सीटों के लिए दावा पेश किया। बजरंग दल के पूर्व राष्ट्रीय प्रमुख पवैय्या, सिंधिया के शाही अतीत के खिलाफ खड़े होने पर गर्व करते थे और सार्वजनिक रूप से श्रीमंत जैसी शाही उपाधियों के इस्तेमाल पर भड़क जाते थे। अब उनके वजन और प्रभाव का आने वाले चुनाव पर क्या असर पड़ेगा, इसको लेकर भाजपा का शिखर नेतृत्व क्या रणनीति बनाता है, देखना होगा।

सत्ता विरोधी हवा का असर

भाजपा के नेता ने यह भी कहा कि कांग्रेस चुपचाप ग्वालियर-चंबल क्षेत्र में काम कर रही है और कर्नाटक में अपनी शानदार जीत के बाद उसके भीतर उत्साह का संचार हुआ है। दूसरी ओर सीएम चौहान का जिक्र करते हुए भाजपा के भीतर दबी जुबान कहा जा रहा है कि सरकार के खिलाफ सत्ता विरोधी हवा सीएम के उनके चेहरे को लेकर है। वहीं भाजपा को युवा मतदाताओं को लुभाने में मुश्किल होगी क्योंकि कम नौकरियां उपलब्ध हैं। लगभग दो दशकों तक भाजपा को सत्ता में देखते आ रहे हैं। एक तरह का मतदाता जरूरी नहीं कि कांग्रेस को लाना चाहते हों, लेकिन वह निश्चित रूप से शिवराज सिंह को हटाना चाहता है। दूसरी ओर भाजपा के एक धडे का मानना है कि सत्ता विरोधी हवा का कोई सवाल ही नहीं है।

2014 के बाद लोगों ने एक डबल इंजन सरकार (केंद्र में नरेंद्र मोदी और राज्य में चौहान) का समर्थन किया, केंद्रीय और राज्य योजनाएं दोनों से लाभान्वित हुए। पार्टी ग्वालियर और मुरैना में महापौर चुनाव हार गई, लेकिन कुल मिलाकर स्थानीय निकाय चुनावों में 75 फीसदी सीटें जीतीं। कुछ का मानना है कि उपचुनाव के बाद सिंधिया और उनके समर्थकों का एकीकरण भी लगभग पूरा हो गया है। सब मिलकर चुनाव लडने को तैयार हैं।

इसलिए 2023 के विधान सभा चुनाव के मद्देनजर सिंधिया भाजपा की ताकत बढाने के साथ ही इस अंचल में बड़ा फैक्टर हैं और बनने भी वाले हैं। दिग्विजय सिंह यदि ग्वालियर-चंबल अंचल में सक्रिय होकर जितना आक्रामक चुनाव लड़ेंगे, भाजपा खासकर ज्योतिरादित्य सिंधिया को उतनी मदद मिलेगी। ठीक उसी तरह जितना देश में नरेन्द्र मोदी के खिलाफ विपक्ष आक्रामक होता है, और नरेन्द्र मोदी को लाभ मिलता है। इस क्षेत्र में वैसा ही दबदबा और सहानुभूति सिंधिया के साथ बनी हुई है।