Movie Review : कश्मीर फाइल्स में बहुत कुछ दब गया

Author Picture
By Suruchi ChircteyPublished On: March 12, 2022

आदिल सईद

तथ्य को एक तरफ रख कथ्य पर बात की जाए तो विवेक अग्निहोत्री ने “द कश्मीर फाइल्स” (The Kashmir Files) लिखी बहुत अच्छी है, उन्होंने जिस तरह कहानी उठाई और घुमाई वो मजेदार है, हालांकि कहानी का अंत भाषण से पहले या कुछ कलात्मक एफर्ट्स लगा कर देते तो आह-आह! वाह-वाह! निकल जाती या फिर ऐसा करते कि दर्शन कुमार से जो भाषण दिलवाया वो कमाल का होता, लेकिन था नहीं,क्योंकि जिन्हें समझ है वो जान रहे थे कि जो बातें दर्शन कर रहे हैं वो फिल्मी हैं! अदाकारी के मामले में दर्शन कुमार पक्के हो जाएंगे, अनुपम खेर ने तो लाजवाब काम किया है

असल में उनके अलावा ये रोल कोई और नहीं कर सकता था,क्योंकि वे कश्मीरी पंडित हैं और कश्मीरी पंडितों को लेकर उनका दर्द ऑफ स्क्रीन पर भी दिखाई देता है। चिन्मय मंडलेकर ने आतंकवादी के रोल को वास्तविकता के करीब ला दिया वरना आमतौर पर फिल्मों में आतंकवादी के किरदार में बनावटीपन साफ नजर आता है। मिथुन चक्रवर्ती, पुनीत इस्सर उम्मीद के मुताबिक ही थे और पल्लवी जोशी के लिए कोई खास काम था नहीं उनके जरिये साम्यवादी बुद्धिजीवियों को दिखाया गया है।

Must Read : चुनावी लोकतंत्र का सफर, इस पतन का मुकाम कहाँ!

फ़िल्म में गडमड ये थी कि मुद्दा कश्मीर से पंडितों के पलायन का था लेकिन उसमें जेएनयू और बुद्धिजीवी वर्ग पर भी उंगली उठाई गई है, यहां तक के उनके तार भी कश्मीरी आतंकवाद से सीधे जोड़े गए। फ़िल्म जिस मुद्दे को लेकर बनाई गई है उसमें इस सरकार की तारीफ और पुरानी सरकार पर उंगली तो उठाना ही थी जो उठाई गई। कश्मीर तो कैमरे के लिए जन्नत है, लेकिन सिनेमेटोग्राफर उदयसिंह मोहिते माइंडसेट करके कैमरा चला रहे थे,वरना फ़िल्म का प्रजेंटेशन और भी बेहतर हो जाता, वैसे कुछ सीन बन पड़े।

Must Read : गोकुलपुरी की झुग्गी बस्ती में लगी आग, मौके पर 7 झुलसे, 60 से अधिक झुग्गियां जली

गीत-संगीत की कोई खास जरूरत थी नहीं, एक कश्मीरी गीत वक़्त-वक़्त पर बैकग्राऊंड में बजता रहता है लेकिन वो जुबान पर चढ़ नहीं पता है, विवेक अग्निहोत्री ने इस पर मेहनत नहीं कि अगर वो किसी कश्मीरी कलाकार को लेकर संगीत में पहनत करते तो ये कमजोरी बाकी न रहती उन्होंने कश्मीरी गीत महाराष्ट्र के स्वपनिल बंदोड़कर से गवाया ओर संगीतकार रोहित शर्मा भी कश्मीरी नहीं लगते। एडिटर को थोड़ी और कैंची चलाना थी क्योंकि फ़िल्म के बीच में एक-दो बार घड़ी देखने का मन करता है, लेकिन इंटरवेल के बाद आखरी हिस्से में फ़िल्म वापस पकड़ लेती है।