कल्याणकारी राज्य संविधान का मूलतत्त्व : अनिल त्रिवेदी

Shivani Rathore
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अनिल त्रिवेदी

भारत का संविधान भारत के नागरिकों के कल्याण के लिये वचनबद्ध हैं।राज्य के सारे कार्य कलाप और नीतियां नागरिकों के लिये लोकमैत्रीपूर्ण और सभी नागरिकों के प्रति समभाव पूर्ण होना संवैधानिक बाघ्यता है।भारतीय लोकतंत्र,भारतीय समाज और राज्य व्यवस्था तीनों ने वैश्वीकरण की अर्थ व्यवस्था को स्वीकारने की हड़बड़ी में कल्याणकारी राज्य की संवैधानिक बाध्यता को जानते बूझते भूला देने का लोक कल्याण के विपरित कार्य किया है।जिससे भारत के अधिकांश नागरिक कल्याणकारी राज्य की संवैधानिक सुरक्षा पाने से वंचित हुए हैं।
वैश्वीकरण की अर्थ व्यवस्था ने राजकाज में वैश्विक बाजार की ताकत से राजकाज की नीतियों की दिशा को वैश्विकबाजार अभिमुख बना दिया है।इस कारण लोकाभिमुख और कल्याणकारी कार्यक्रमों को धाटे का काम मानते हुए राज्य की प्राथमिकता वाले लोक महत्व के जीवन को गरिमापूर्ण बनाने वाले मूल कार्यों को उपेक्षा का दर्जा मिलने लगा और लोक कल्याण कारी कार्यो को घाटे की अर्थव्यवस्था का कारक माना लिया गया।

बहुदलीय लोकतंत्र के बाद भी राज्य के कल्याणकारी स्वरूप के कमजोर होने को लेकर एक भी राजनैतिक जमात ने न तो इसे मुद्दा बनाया और न ही इसे मुद्दा बनाना चाहती हैं यह भारतीय राजनीति के मूल स्वरूप और दिशा पर ही गहरा सवाल है। भारत की राजनीति देश के सारे लोगों को ताकतवर और विचारवान बनाने की राह को पूरी तरह से छोड़ चुकी हैं।देश के हर नागरिक के सपनों को पूरा करना,रोटी रोजी ,खाने और पाने के अवसरों को देश के हर हिस्से में उपलब्ध कराना,देश की किसी भी राजनैतिक जमात का सपना ही नहीं है। देश की जनता ही देश की गतिशील दौलत है जिसका विनिमय देश के हर नागरिक को उत्तरदायी बना कर किया जा सकता हैं।

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आज हम सब जहां आ खड़े हुए हैं उसमें सारे देश की सारी राजनैतिक जमातों को इतने बड़े देश के सारे लोगों की जीवन सुरक्षा और रहने,खाने,आजीविका के अवसरों को देश की राजनीति के मूलभूत कार्यक्रम मानते हुए देश के लोगों को आत्म निर्भर बनाने को राजनीति का मुख्य एजेण्ड़ा बनाना होगा।हमारा एक भी नागरिक सामान्यतः और आपतकालीन स्थिति में भी अपने आप को अकेला,असहाय,और असुरक्षित न समझे।यह हमारे, राज्य,समाज और सभी राजनैतिक जमातों सहीत सभी नागरिकों की व्यक्तिगत और सामूहिक जवाबदारी हैं।

हमारे संविधान ने प्रत्येक नागरिक को गरिमा पूर्ण तरिके से जीवन जीने के मूल अधिकार का प्रावधान किया हैं।जीवन की गरिमा क्या है? कोई इसे हासिल कैसे करेगा ?इसे भारत में हर जगह रहने वाले नागरिक तक पहुंचाने के लिये भारत की सारी राजनैतिक,सामाजिक,आर्थिक और धार्मिक जमाते क्या और कैसे कार्य करेगी?भारत की राजनीति,समाज,अर्थतंत्र और धार्मिक कार्यक्रमों को भारत के हर हिस्से में किस तरह संचालित करेंगे कि भारत के हर नागरिक के लिये गरिमा मय सुरक्षित जीवन साकार हो सके।जाहिर है यह संविधान में प्रावधान करने मात्र से जमीन पर साकार होने वाला नहीं हैं।न हीं यह अपने आप होने वाला हैं। हम और हमारी राजनीतिक व्यवस्था भारत के लोगों की बड़ी जनसंख्या को देखकर ही पस्त हिम्मत हो जाते हैं।

जब तक हम सब अपने लोगों की अनन्त शक्ति को पहचानेगें नहीं तब तक हम लोगों और लोगों के जीवन के बारे गरिमापूर्ण विचार ही मन में स्थापित नहीं कर पायेंगे।वैश्वीकरण की चकाचौंधपूर्ण राह ने संप्रभुतापूर्ण गणराज्य के नागरिक को महज विश्वबाजार का अदना उपभोक्ता बना दिया।आर्थिक वैश्विक साम्राज्य के विस्तार की एक मात्र लोभ दृष्टि नागरिको के कल्याण की न होकर नागरिकों को बाज़ार के लाचार उपभोक्ता बनाने की है।कल्याणकारी राज्य में गरिमापूर्ण सुरक्षित जीवन की संवैधानिक व्यवस्था और वैश्विक बाजार में असहाय , लाचार और बेबस ज़िन्दगी के अन्तर को समझने और लोगों को समझाने की राजनीति की प्राणप्रतिष्ठा आज के भारतीय समाज की तात्कालिक जरूरत हैं।

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उदाहरण के लिये रोजमर्रा के भोजन की जरुरत को पूरा करने के लिये कमजोर से कमजोर आर्थिक स्थिति वाला नागरिक बीस तीस रूपये में जीने लायक भोजन कर सकता है।यही आदमी बिमार हो जावे तो उसकी जिन्दगी भाग्य भरोसे हैं क्योंकि स्वास्थ्य राज्य के कल्याणकारी दायित्व से निकल कर बड़ा वैश्विक बाजार बन गये हैं।गंभीर बिमारी का इलाज करवाना आम भारतीय की आर्थिक पहूंच से बहूत दूर निकल गया है।इस के बाद भी हमसब राजनैतिक सामाजिक रुप से खामोश होकर अपने नागरिक अधिकार और लोकतान्त्रिक उत्तरदायित्व को ही नकार रहे हैं।
यही हाल शिक्षा को लेकर भी है।राज्य संचालित शिक्षा संस्थानों में नागरिक मजबूरी में जा रहे और शिक्षा के बाजार में अधिकांश नागरिक अपना और अपने बच्चों का भविष्य खोज रहे हैं।

राज्य,समाज,राजनीति स्वास्थ्य और शिक्षा को लेकर अपनी भूमिका ही तय नहीं कर पा रहें हैं।नतीजा है विचारवान शिक्षित स्वस्थ युवा नागरिकों की मानवसंपदा देश में निरन्तर खड़ी नहीं हो पा रही है।देश की आबादी का बड़ा हिस्सा गरिमामय जीवन यापन लायक शिक्षा और स्वास्थ्य से दूर होता जा रहा हैं और यह राजनीति और समाज के लिये बुनियादी मुद्दा भी नहीं है।हम सब इस देश को एक ऐसी विशाल भीड़ में जाने अनजाने बदल रहे जो वैश्विकबाजार की चकाचोंध के परिणामों से बेखबर हैं।

आज जिस कठिन दौर से हम सब गुजर रहे उससे हम हिलमिल कर ही मुकाबला कर सकते हैं।हम सब अपने व्यक्तिगत और सामूहिक सोच में आमूलचूल बदलाव लाये बिना हमारे काल की चुनौतियों का सफलता पूर्वूक सामना नहीं कर सकते।हमारी राजनैतिक और सामाजिक समझ को व्यापक समतामूलक समझ का हिस्सा बनाये तभी हम संविधान को समग्रता से भारत के लोकजीवन में जीवन्त कर पायेंगे। व्यापक कल्याणकारी लोकदृष्टी को अपनाये बिना मौजूदा भारत के सामने खड़ी चुनौतियों का न्यायपूर्ण समाधान हम नहीं खोज सकते।हमें यह अच्छे से समझलेना चाहिये की राज्य की मनमानी या भेदभाव से मुकाबला करते समय संविधान हमारे साथ होता है जब की वैश्विक बाजार से हमें अकेले ही मुकाबला करना हमारी आर्थिक सामाजिक राजनैतिक लाचारी होता हैं।

किसी भी लोकतांत्रिक देश में नागरिक चेतना और भागीदारी जीवन्त लोकतंत्र की आत्मा होती हैं।लोकचेतना ही लोकतांत्रिक प्रक्रिया को मजबूत बनाती हैं।भारत में कल्याणकारी राज्य को संविधान के रहते कमजोर करने में राज्य,राजनीति और नागरिक जागरुकता का अभाव बराबरी के भागीदार हैं।भारत के लोकजीवन के विराधाभासों को दूर कर ही हम हमारी कल्याणकारी राज्य की संविधानिक बाध्यता को मजबूती से राज,समाज और नागरिकों की पहली प्राथमिकता बना कर प्रत्येक नागरिक के लिये समतापूर्ण गरिमापूर्ण जीवन जीने की आधारशिला रख सकते हैं।