दिनेश निगम ‘त्यागी’
अट्ठाईश विधानसभा सीटों के उप चुनाव नतीजे आने के बाद प्रदेश में अब स्थिर सरकार है। कमलनाथ को दरकिनार कर मतदाताओं ने शिवराज सिंह के नेतृत्व पर मुहर लगा दी है। सरकार चलाने के लिए अब सपा, बसपा के साथ निर्दलीय विधायकों की मान मनौव्वल, खुशामद करने या आगे-पीछे घूमने की जरूरत नहीं। इसका मतलब यह भी नहीं कि उप चुनाव निबटने के साथ चुनौतियां समाप्त हो गर्इं। न मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के सामने चुनौतियां कम हैं और न कांग्रेस छोड़कर आए ज्योतिरादित्य के सामने। कांग्रेस के सामने तो फिर संगठन खड़ा करने की चुनौती है ही। दरअसल, ज्योतिरादित्य सिंधिया के क्षेत्र में कांग्रेस सेंधमारी करने में सफल रही है। वहां सिंधिया समर्थक तीन मंत्रियों सहित 7 बागी हार गए हैं।
इसके विपरीत शेष अचंलों की 12 सीटों में भाजपा ने अच्छा प्रदर्शन किया है। स्पष्ट है, सिंधिया अपने ही गढ़ अपना करिश्माई नेतृत्व साबित नहीं कर पाए, जबकि शिवराज के नेतृत्व में भाजपा ने चौतरफा बेहतरीन बल्लेबाजी कर चौके – छक्के जड़े। उप चुनाव में जीत-हार के ये आंकड़े भविष्य में ज्योतिरादित्य-शिवराज के बीच टसल का कारण बन सकते हैं। सिंधिया चाहेंगे कि उनके जो मंत्री हारे हैं, उनके स्थान पर अन्य समर्थकों को मंत्री बनाया जाए। इसके साथ हारे मंत्रियों को सरकार में एडजस्ट किया जाए। जरूरी नहीं है कि भाजपा सिंधिया की यह चाहत पूरी करे। आखिर अब वह पूर्ण बहुमत में है और उसे पार्टी के अपने नेताओं का ख्याल भी रखना है, जो बागियों के कारण धैर्य धारण कर बैठे हैं।। दूसरा सच यह भी है कि भाजपा सत्ता में ज्योतिरादित्य की ही बदौलत है, इसलिए सिंधिया खुद के लिए भी केंद्र सरकार में अच्छा स्थान चाहेंगे। ऐसी परिस्थितियों में संतुलन साधना भाजपा और शिवराज के सामने सबसे बड़ी चुनौती होगी।
कांग्रेस को ढूंढ़ना होगा नया नेतृत्व….
– उप चुनाव नतीजों से साफ है कि प्रदेश की जनता ने मुख्यमंत्री कमलनाथ एवं दिग्विजय सिंह की जोड़ी को नकार दिया है। ज्यादा जवाबदारी कमलनाथ के सिर होगी। आखिर वे ही पहले प्रदेश अध्यक्ष, मुख्यमंत्री और फिर नेता प्रतिपक्ष रहे। सर्व शक्तिमान होने के बावजूद पहले वे पार्टी की अपनी सरकार को नहीं संभाल सके। उनके नेतृत्व में सिंधिया के साथ 22 विधायकों ने कांग्रेस छोड़ी और सरकार गिर गई। इसके बाद भी कमलनाथ नहीं सभले और विधायकों द्वारा पार्टी छोड़ने का सिलसिला जारी रहा। उप चुनाव में जीत दर्ज कर सरकार में वापसी का उनके पास एक अवसर था। कमान पूरी तरह उनके हाथ थी, लेकिन इसमें भी वे सफल नहीं रहे।
साफ है कि प्रदेश की राजनीति में कमलनाथ पूरी तरह से असफल रहे। संभवत: कमलनाथ के प्रति पार्टी आलाकमान की नाराजगी का नतीजा रहा कि सचिन पायलट को छोड़कर कोई बड़ा नेता उनके साथ खड़ा नजर नहीं आया। उप चुनाव में वे अकेले लड़ते और तलवार भांजते दिखाई पड़े। लिहाजा, बुरी पराजय के तौर पर नतीजा सामने है। अब कांग्रेस आलाकमान के सामने सबसे बड़ी चुनौती प्रदेश में पार्टी को फिर खड़ा करने की है। इसके लिए नया नेतृत्व ढूंढ़ना होगा। कांग्रेस में युवा चेहरों की कमी नहीं है लेकिन पार्टी नेतृत्व किसे संगठन को मजबूत करने की क्षमता वाला मानता है, यह देखना होगा। राजनीतिक हलकों में इसे लेकर दिलचस्पी भी बनी रहेगी।