गांधी के अवसान के उपरांत तीन प्रकार के गांधीवादी उभर कर सामने आये सरकारी गांधीवादी, मठी गांधीवादी, और कुजात गांधीवादी। सरकारी गांधीवादी हर काम में गांधी का नाम लेकर गांधी की रूपरेखा से उलट नीति के आधार पर देश चलाने लगे, मठी गांधीवादी महन्त बनकर चन्दा बटोर कर उपदेशक एवं सरकारी संत के रूप में अवतरित हो गए इनके भिन्न-भिन्न नाम और भिन्न-भिन्न मठ थे, तीसरे प्रकार के गांधीवादी समाजच्युत कुजात गांधीवादी रहे जो अन्यायों के प्रतिकार के लिए शक्तिशाली स्वशासन से भी न केवल टकराते थे वरन् उनके द्वारा देश के प्रति किये गये विश्वासघात से देश को परिचित कराते थे।
कुजात गांधीवादियों को सरकार, अखबार एवं मठ तीनों का कोपभाजन बनना पड़ा। इस मण्डली के प्रथम पुरुष थे स्व. डॉ. राममनोहर लोहिया। लोहिया अपने आपको कुजात गांधीवादी कहलाने में गौरव मानते थे। क्योंकि गांधी का भगवान तो गरीब और उपेक्षित सूखी रोटी में दिखाई पड़ता था। जन के प्रश्न पर लोहिया कूद पड़ते थे। अगर उनकी सुबह कलकत्ता में हुई है तो दोपहर हैदराबाद या बंगलोर में शाम बम्बई या मद्रास में। जिसके जीवन का यौवन और आनंद देश की उपेक्षित और दलित मानवता को समर्पित था उसी का नाम है राममनोहर।
लोहिया ने देश को जमीन का चप्पा-चप्पा ही भर नहीं छाना था दुनिया के हर देशों में जाकर वहां का गहराई से अन्वेषण भी किया था। उनके अंतर्राष्ट्रीय सम्पर्क गहरे और महत्वपूर्ण रहे हैं। उनके अमेरिका भ्रमण पर आयोजक वर्तमान सिनेटर हैरिस वोफर्ड ने लोहिया अमेरिका मिलन नामक पुस्तक भी प्रकाशित की थी। दूसरी बार अमेरिका जाने में उन्हें रंगभेद कानून तोड़ने पर गिरफ्तार होना पड़ा। सत्याग्रही जो दुनिया में अन्याय नहीं देख सकता था। जिसकी नजर में चुनी हुई संसद और विश्व सरकार और बिना पासपोर्ट वीसा का आवागमन ही मानवता की मुक्ति और विश्व बंधुत्व का मार्ग रहा है।
लोहिया ने पक्षपात विहीन समदृष्टि से देश और दुनिया को देखा, परखा, अनुसंधान कर अपने निर्णय लिये। यदि विश्व प्रसिद्ध वैज्ञानिक अल्बर्ट आइन्सटाइन से उनकी भेंट हुई तो विश्व प्रसिद्ध अभिनेत्री ग्रेटा गावरे से भी।अगर वे पेरियार रामस्वामी नायकर से भेंट करते थे तो महर्षि रमण से भी। वे नास्तिक भी थे और रामायण मेला के प्रति भी उनकी दृष्टि सम थी। राम, कृष्ण, शिव के अनुसार भारतीय जनता के मानस की आदर्श कल्पना के प्रतीक थे। लोहिया के अनुसार राम का तात्पर्य मर्यादित जीवन कृष्ण का पर्याय उन्मुक्त हृदय और शिव का प्रतिमान असीम विवेक था। मर्यादित जीवन उन्मुक्त हृदय और असीम विवेक से ही कोई देश ऊंचाईयों पर पहुंच सकता है। जिसकी परिकल्पना भारत माता की संतानों ने कभी की थी।
लोहिया सन् 1963 से उप चुनाव द्वारा लोकसभा में पहुंचे। अखबारों ने लिखा कि कांच की दुकान में सांड़ घुस आया है। लेकिन लोहिया ने देश की आजादी के सोलहवें वर्ष में देश में गरीबी का प्रश्न उठाकर भारत की जनता को वास्तविकता से अवगत करा कर चकित कर दिया। “तीन आने बनाम पंद्रह आने वाली” बहस ने देश की दबी पिसी उपेक्षित जनता के मन में एक हल्की आशा की किरण जगाई कि गांधी के बाद आज भी भारत में कोई है जो टूटी झोपड़ी में बुझते दिये में आधी सूखी टिक्कड़ निगलने को देख रहा है।
उसी संसद में उन्होंने खर्च की सीमा बांधने का भी प्रश्न उठाया। न्यूनतम और अधिकतम का अंतर एक और दस के बीच में हो तभी संभव बराबरी की मंजिल पर पहुंचा जा सकता है। उन्होंने सरकार से आग्रह किया कि देश को उपभोग मुखी व्यवस्था की बजाय उत्पादन मुखी व्यवस्था की ओर ले जाना ही सही मार्ग है। देश के सम्पूर्ण सोने को देश के खजाने में गिरवी रख कर पानी, बिजली और स्वास्थ्य की अपूरणीय सुविधा जुटाने का जहां एक ओर सुझव दिया वहीं उन्होंने देश के कलम घिस्सू अनुत्पादक कर्मचारियों की फौज को नहर, सड़क, तालाब खोदेन के काम में नियोजित करने का आग्रह किया।
लोहिया के अनुसार भारत में आर्य अनार्य, द्रविड़, मंगोल आदि परिभाषाओं से देश को बांटने का प्रयास विदेशी इतिहासकारों ने किया था। उनके अनुसार संस्कृत में आर्य किसी बड़े आदमी को कहा जाता है। आर्य कोई अन्य जाति या गिरोह नहीं था जो भारत में आया। भारतीयता की एकात्मकता के लिए उनके पास अकाटय़ तर्क थे। लोहिया के अनुसार राम और राम के साथी उत्तर दक्षिण एकता के प्रतीक थे इसी प्रकार कृष्ण और कृष्ण के साथी पश्चिम पूर्व के एकता के प्रतिनिधि थे। इसी तरह उन्होंने अपने गंभीर अध्ययन से भारत की विभिन्न भाषाओं के अक्षरों की समानता भी सिद्ध की है।
दुर्भाग्य है कि देश के अनेक स्वनामधन्य भाषा शास्त्री उस पर अधिक गंभीर खोज नहीं कर सके। लोहिया शिव को आदर्श प्रेमी और द्रौपदी को आदर्श महिला मानते रहे हैं। उनके अनुसार दुनिया के किसी साहित्य में इतना जबरदस्त प्रेमी नहीं कल्पित है जो आपनी मृत पत्नी के शव लगातार ढोता रहे जब तक कि उसके अंग-अंग गल कर गिर न जाएं। लोहिया महज राजपुरुष या सत्याग्रही भर नहीं थे उनके अनुसंधान की परिधि में सौंदर्य भी आता था। उनके अनुसार सुन्दरता का आनंदड भी सत्ता और सम्पन्नता के साथ बनता बिगड़ता है। जब रंगीन दुनिया विश्व सभ्यता की अग्रणी थी तब सौंदर्य का प्रतिमान “तन्वी श्यामा, शिखिर दशना” के रूप में था।
सांवली सलोनी सूरत ही सौंदर्य की पहिचान थी। अंग सौष्ठव मुख्य अंग है सौंदर्य का। जब गोरे लोग सभ्यता सम्पन्नता के शिखर पर हैं तब गोरी चमड़ी की महिला ही सौंदर्य की प्रतीक है। लोहिया की कल्पना थी कि जब अफ्रीका सशक्त और सम्पन्न हो जाएगा तब रंगीन ही सुन्दरता बनेगी। उन्होंने भारत में हिन्दु मुसलमान के प्रश्न को ऐतिहासिक दृष्टि से देखा और समझ। झगड़ा हिन्दू -मुसलमान का न होकर देशी- परदेशी का रहा है। अगर हिन्दू शासक दिल्ली की कुर्सी में रहा तो उसका विरोधी हिन्दू राजा ही हमलावर को ले आता है।
मुसलमानों में भी गुलामवंश, लोदीवंश, पठानवंश, मुगलवंश, फारसीवंश, हमलावर रहे हैं उन्होंने पहला वध इस्लाम मानने वालों का ही किया है। लेकिन जो यहां आकर बस टिक गए राज्य करने लगे वे क्रमश: पुंसत्वहीन होते गये और हमलावरों के प्रवाह को नहीं रोक सके।राजनीति के अलावा साहित्य कला, स्थापत्य सौन्दर्य प्रकृति, मानवीय आवेग और अनुभूति, ज्ञान-विज्ञान अनुसंधान कोई ऐसा प्रश्न नहीं है जिस पर लोहिया के स्पष्ट और सपाट विचार न हों। उन्होंने देश के लेखकों, रचनाकारों और राजपुरुषों को भारतीयता की दृष्टि भर नहीं वरन उन्हें समस्त मानव समाज की वेदना के प्रति संवेदनशील बनने को प्रेरित किया।
( यह लेख प्रख्यात समाजवादी चिंतक व लेखक स्व. जगदीश जोशी की पुस्तक कहि न जाय का कहिए.. से लिया गया है
लेखक -जगदीश जोशी