यह तो कमाल हो गया भाई, तुम्हें इंजेक्शन मिला कैसे?

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कर भला

रमेश रंजन त्रिपाठी

मैं और एक गरीब सा दिखनेवाला आदमी एकसाथ मेडिकल स्टोर पर पहुंचे। दुकान में एक ही इंजेक्शन बचा था। हम दोनों उसे लेने के लिए मरे जा रहे थे। वह दूसरा खरीददार रोते हुए गिड़गिड़ा रहा था कि अगर दो घंटे में यह इंजेक्शन न लगा तो उसकी मां मर जाएगी। मेरे सामने अपने पिता जी की जिंदगी का सवाल था। मैं इंजेक्शन के ज्यादा पैसे देने को तैयार हो गया। सामनेवाले ने भी अधिक पैसे देने की हिम्मत दिखाई लेकिन मैंने बोली बढ़ा दी। वह पैसे से हार गया। मैं दवा ले आया। वह लाचार रोता-बिलखता मुझे दवा ले जाते देखता रहा।

चलो इसे नर्स के पास जमा करा देते हैं। पता नहीं कब जरूरत पड़ जाए !

सुमेर के सामने कुछ घंटे पहले का दृश्य घूम गया। वे अपने कोरोना पॉजिटिव पिता जी को भर्ती कराने लाए थे। नर्स ने कहा था कि इनकी जांचें और फेफड़ों का सीटी स्कैन होगा। तब इस इंजेक्शन की जरूरत पड़ेगी। सुमेर को पता था कि शहर में इस इंजेक्शन की भारी कमी है। अपने भाई गोपाल को अस्पताल में पिता जी के पास छोड़कर वह सीधा दवा-दुकानों की ओर दौड़ पड़ा। बमुश्किल तमाम एक स्टोर मिला जिसमें एक इंजेक्शन बचा था। संयोगवश उसे खरीदने दो लोग एकसाथ पहुंच गए थे।

सुमेर के सामने गरीब का बेबस, लाचार, दयनीय और रोता हुआ चेहरा घूम रहा था। वह दीन व्यक्ति भी सुमेर के साथ दुकान पर पहुंच गया था इसलिए उसे इंजेक्शन न मिलने की वजह देरी नहीं, पैसा था। सुमेर सोचने लगा- ‘क्या उसे निर्धनता को मौत का और पैसे को जिंदगी का पर्याय बनने देना चाहिए? क्या एक मां को मौत देकर वह अपने पिता का जीवन खरीद रहा है? तभी उसके भीतर आवाज गूंजी कि मारनेवाले से बचानेवाला बड़ा होता है।

पिता जी को इंजेक्शन की आवश्यकता पड़ी भी, तो तलाश करने के लिए एक दिन का समय मिल सकता है।’ सुमेर निश्चय पर पहुंच गया था। उसने अपने भाई से इंजेक्शन वापस लिया और उस गरीब को ढूंढने चल दिया। सुमेर सही समय पर इंजेक्शन पहुंचाकर लौटा तो गोपाल ने खुशी के आंसू बहाते हुए बताया कि पिता जी की सभी जांचें पूरी हो चुकी हैं। डॉक्टर का कहना है कि उन्हें इंजेक्शन देने की जरूरत नहीं है। सुमेर की आंखें डबडबा आईं। दूर चमकता ‘भला’ शब्द उल्टा पढ़ने पर भी ‘लाभ’ दे रहा था।