हिंदी पत्रकारिता का संकट – 6
अर्जुन राठौर
अब समय आ गया है कि इस बात पर गंभीरतापूर्वक विचार किया जाए कि क्या देशभर के पत्रकारिता कालेजों को बंद कर दिया जाना चाहिए? इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि पत्रकारिता कालेज और इनके पाठ्यक्रम आज की पत्रकारिता के सामने अप्रासंगिक हो गए हैं जो कोर्स इन कॉलेजों में पढ़ाया जाता है उसका आज की पत्रकारिता से कोई लेना-देना बचा नहीं है और यही वजह है कि इन कॉलेजों से निकलने वाले हजारों छात्र न केवल नौकरी की तलाश में दर-दर भटकते हैं बल्कि उन्हें ऐसा भी लगता है कि पत्रकारिता के कोर्स की आड़ में उनके साथ सबसे बड़ा छल किया गया है ।
पत्रकारिता कॉलेजों से डिग्री लेकर निकले छात्रों को कोई भी संस्थान बड़ी मुश्किल से नौकरी देता है क्योंकि उन्हें प्रैक्टिकल जनर्लिज्म का कोई अनुभव नहीं है मसलन रिपोर्टर की नौकरी की बात करें तो पता चलता है कि जो कुछ उन्हें पढ़ाया गया है उसका आज की रिपोर्टिंग से कोई लेना देना नहीं है अब जो रिपोर्टर अखबारों में रखे जा रहे हैं उनसे यह अपेक्षा की जाती है कि वे अखबार के लिए बिजनेस पर भी ध्यान देंगे लेकिन पत्रकारिता के कालेजों में ऐसी कोई ट्रेनिंग नहीं दी जाती कि वे रिपोर्टिंग के साथ-साथ अखबार के लिए विज्ञापन का बिजनेस कैसे लाएं ।
यह बात बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है लेकिन इसे स्वीकार ही करना पड़ता है किअखबारों में अब संपादकों की आवश्यकता भी नहीं बची है अखबारों में जो ऑपरेटर काम करते हैं यही अब संपादक की भूमिका में आ गए हैं वे इधर-उधर से मैटर चुराकर अखबार की पूर्ति कर देते हैं मालिकों के लिए भी इससे बड़ी खुशी की और कोई बात नहीं होती कि उनके ऑपरेटर अब संपादक के रूप में भी काम करने लगे हैं लेकिन पत्रकारिता के कालेजों में आज भी संपादक का जो पाठ्यक्रम पढ़ाया जाता उसमें संपादक की महत्वपूर्ण भूमिका बताई जाती है जो अब पूरी तरह से समाप्त हो गई है ।
संपादकों के साथ ही अखबारों में सब एडिटर चीफ सब एडिटर के पद भी समाप्त कर दिए गए हैं क्योंकि मैटर अन्य न्यूज़ वेबसाइट से ले लिया जाता है आज हालत यह है कि किसी भी अखबार को चलाने के लिए एक ऑपरेटर ही काफी है बशर्ते उसे मैटर चुराने की कला आना चाहिए जब आपरेटर ही संपादक बन जाएंगे तो पत्रकारिता का बंटाधार होना तय है फिर ऐसी बंटाधार पत्रकारिता के लिए आज के युवा लाखों रुपये क्यों खर्च करे ?