शरद जोशी
मरा हुआ कवि व्यवस्था के लिए बड़ा उपयोगी साबित होता है, जीते-जी वह जिस व्यवस्था को कोसता रहा, घुट-घुटकर जिसके खिलाफ उसने कविताएँ लिखी, बयान दिए, उसके मरने के बाद वही व्यवस्था उसके नाम का सहारा ले बाज़ार में भीड़ का यश लूटती है। कवि मरने के बाद ऐसे सब लोगों के लिए बड़े काम की चीज़ बन जाता है। मरा हुआ हाथी सवा लाख का होता है। जीते-जी चाहे उसने आपके सम्मान में कभी सूंड न उठाई हो।
मरा हुआ मुक्तिबोध, नारकीय कष्टों से गुजरने के बाद अब स्वर्गीय मुक्तिबोध मध्यप्रदेश सरकार के सांस्कृतिक झंडे पर लटका हुआ है और उस झंडे के तले नेता अफसर, छुटभैये, तथाकथित बुद्धिजीवी, जनता के टैक्स पर पेरेसाइट का सुख भोगते साहित्यकार एक-दूसरे को मधुर-मधुर कोहनियाँ मारते, मुस्काते खड़े हैं। कितने काम की चीज है मुक्तिबोध। उसका नाम लेकर प्रतिभाहीन पिलपिले कवि लेफ्टिस्ट होने का ऐयाशी-भरा गौरव जीते हैं। उसकी समीक्षा कर, या अपनी समीक्षाओं में उसका जिक्र कर आलोचक, सतह से उठता हुआ आलोचक हो जाता है।
उसकी रचनाओं का संकलन भर कर देने से संपादक कहाने का लाभकारी गौरव मिलता है। उस पर आयोजन कर देना यारों-रिश्तेदारों से मिलने-मिलाने, खाने-पिलाने का एक जोरदार बहाना। कितना आनंद दे रहा है मरा हुआ मुक्तिबोध उर्फ स्वर्गीय मुक्तिबोध। झंडे से लटका हुआ आज कितने स्वार्थों को सैद्धांतिक रीढ़ प्रदान कर रहा है। बजट फूँकने का एक भावनात्मक बहाना देता है। आओ, श्राद्ध पक्ष के बामनो, हर लॉन पर दारू तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही है। तर्पण करो यजमान, चुल्लू भर-भर के, जय बोलो उस गुजरे हुए कवि की। पैसा फूंकने का साहित्यिक अनुष्ठान जारी है। बंगले के बाहर तार पर बैठे स्थानीय कौवे लपलपाई निगाहों से देख रहे हैं। तुम्हें भी मिलेगा, तुम्हें भी मिलेगा। अभयमुद्रा में हाथ उठाकर कहता है सरकारी अश्वमेध का वाजपेयी पुरोहित-सबको मिलेगा।
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झंडे पर लटका मुक्तिबोध देख रहा है। पूरे जीवन चाय का कप, बीड़ी का बंडल और कविता पूरी कर पाने का मुंतज़िर मुक्तिबोध देख रहा है। अस्पताल में उसके बिस्तर के पास कुछ देर खड़े हो जाने का कैसा दाम वसूल कर रहे हैं बाबू लोग। साहित्य, संस्कृति और सरकार के ये बाबू लोग। जीवन-भर वह समझता रहा कि स्वार्थ, शोषण और व्यवस्था के इन बड़े-बड़े भवनों के नीचे गलियारे हैं, जो आपस में जुड़े हुए हैं, जिनसे लोग आते-जाते हैं और गुप्त सभाऍं कर षड़यंत्रों की रूपरेखाएँ बनाते हैं। वह नहीं जानता था कि साहित्य और कला के भवन के नीचे भी वैसे गलियारे हैं जो उसी तंत्र से जुड़े हुए हैं। उसके मरने के बाद ये गलियारे उसके नाम पर जीवंत हो जाएंगे। व्यवस्था अपनी साख जमाने के लिए, यश लूटने के लिए उसके ही नाम का इस्तेमाल कर लेगी। नहीं जानते थे बेचारे मुक्तिबोध एक एक दिन उसके ही खून से लिखी रचनाएँ उसकी ही पत्नी को भेंट कर व्यवस्था अखबारों में छापने के लिए अपने ताजे फोटू खिंचा लेगी।
जिंदगी-भर जो माध्यम बन न सका, वह कवि मरने के बाद कैसा माध्यम बन गया उन ही लोगों का ।छला हुआ मुक्तिबोध बुरी तरह स्वार्थो से भरी इस नकली, नाटकीय दुनिया में। उस पर एक न समझ में आने वाली अजीब फिल्म बनाकर जेब में रुपया डालकर लौट गया एक फिल्मवाला अपने शहर। अमूर्तता के अपने ही बनाए मकड़जाल में फँसे तथाकथित समझदार दर्शक उसे देख तालियाँ बजाने लगे, बिना यह जाने कि उनके हाथ भी कठपुतली के हाथों की तरह है जो ऊपर से बंधी डोर की मजबूरी में तालियाँ बजाती हैं। तुम छले गए मुक्तिबोध । और तुम किस तरह छले गए इसकी फिल्म कभी नहीं बनेगी। कोई कभी नहीं बनाएगा। सर्वहारा के कवि को आनेवाली पीढ़ियाँ नकली सरकारी आयोजनों और नासमझ इसफिल्मों में पहचानेंगी। कितनी ट्रेजेडी है नीच मुक्तिबोध तेरे साथ तू दो पाटों के बीच खुद फँस गया जैसा कि तूने अपनी कविता में लिखा था। तेरे शव पर चढ़ बौने अपनी ऊँचाइयाँ बढ़ा गए। सब सतह से उठ गए तेरी मिट्टी के ढेर पर पैर रखकर तेरे दुश्मन, तेरे दोस्त। तुझे पिलाई हर चाय की स्मृति को सरकारी काउण्टर पर दारू की बोतल और क्रॉस्ड चेक में भुना लिया उन लोगों ने जिनके बारे में तुझे ज़िंदगी भर यह भ्रम रहा कि वे तेरी कविता को समझते और जीते हैं। तेरे जाने के बाद तेरे चाहनेवाले। तेरी कविताओं का समझदार संपादन करनेवाले उसी व्यवस्था में अफसर बने, नेता बने और वही सब करने लगे जिसके खौफ और आतंक में तूने कविताएँ लिखी थीं। उन्हें तेरा नाम और तेरी कविताओं का जिक्र बड़ा उपयोगी साबित हुआ तेरे मरने के बाद।
दक्षिणपंथी तेरा नाम लेकर वामपंथी हो गये और वामपंथी तेरा नाम लेकर दूसरे वामपंथी के सिर चढ़ गये। तूने किसकी साख बढ़ाई, तुझे नहीं पता। किसे फायदा पहुँचाया, तू नहीं जानता। वो तुझे जानते हैं या नहीं यह बात भी बेमानी है। मेला कमेटी का यह जानकर क्या करना कि समाधि किसकी है? उन्हें तो तंबू और माइकवाले के बिल में अपने कमीशन से मतलब । हर कविता पूरी कर मुक्तिबोध तुम समझते थे कि एक अंकुर फूटा है। वह अंकुर अब एक ध्वजा बन गया है, कवि, जिसे लेकर वे ही लोग शोभायात्रा निकाल रहे हैं जिन्होंने इस धरती को बंजर किया। वे पूरे तामझाम के साथ उन अंकुरों को सिर पर उठा बंजर जमीन पर उछल-नाच रहे हैं। वे जानते है कि अंकुर खतरा है बंजर के लिए, उसे उखाड़ने की बदमाशी पर लोग चौंक सकते हैं। वे समीक्षा की भाषा में मंत्र बोलते हुए पूरे गाजे-बाजे और शोर-शराबे से अंकुर को उखाड़ सिर पर उठा नाचते हैं। यह है वह अंकुर जो बंजर में क्रांति लाएगा। लोग हर्ष और भावुकता से देख रहे हैं। अंकुर का कैसा सम्मान हो रहा है।
तुम बुरे छले गये मुक्तिबोध। अगर इन सुनहरे और नाटकीय आयोजनों से तुम्हारी आत्मा प्रसन्न हो रही है तो मैं कहूॅंगा, तुम्हारी आत्मा मूर्ख है। ऐसा कहने के लिए मुझे क्षमा करना मुक्तिबोध।
(मुक्तिबोध की जयंती पर व्यंग्यर्षि शरद जोशी का लिखा एक व्यंग्य लेख जो सरकारी आयोजनों पर करारा कटाक्ष है)