जब महाप्राण निराला ने हिन्दू राष्ट्रवादी शक्ति को संगठित होने का आह्वान किया..।

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जयंती/जयराम शुक्ल
आज वसंतपंचमी के साथ महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निरालाजी की जयंती है। पाँच साल पहले जब “शिवाजी का पत्र मिर्जा राजा जय सिंह के नाम” को केंद्र में रखते हुए महाप्राण निराला की लंबी कविता के संदर्भ के साथ मेरा एक लेख .पत्र-पत्रिकाओं में छपा तो कथित बौद्धिकों के बीच हाहाकार सा मच गया। कारण यह था कि लेख में मैंने निराला जी को प्रखर और मुखर राष्ट्रवादी प्रवक्ता के रूप में  प्रस्तुत किया था। बौद्धिकों ने इसकी काट में साहित्यिक पत्रिकाओं के विशेषांक छापे। सोशल मीडिया में फेसबुक में निराला बचाओ पेज बन गया।

जनसत्ता में एक महीने बहस चली। देश भर के अखबारों, पत्र पत्रिकाओं में विमर्श चला। सवाल ये कि ‘राष्ट्र’ शब्द मात्र से ही इन बौद्धिकों को बुखार क्यों आ जाता है…?

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बहरहाल निराला जी की वह कालजयी रचना पढिए जो आज भी जनजन की चेतना को झंकृत करने का सामर्थ्य रखती है। कविता के बाद फारसी  में लिखा मूल पत्र भी पढ़ें……

महाराज शिवाजी का पत्र

औरंगजेब के कारिंदे जय सिंह के नाम

वीर?- सर्दारा के सर्दार! – महाराज!

बहु-जाति, क्यारियों के पुष्प-पत्र-दल-भरे

आन-बान-शानवाला भारत-उद्यान के

नायक हो, रक्षक हो,

वासन्ती सुरभि को हृदय से हरकर

दिगन्त भरनेवाला पवन ज्यों।

वंशज हो-चेतन अम अंश,

हृदयाधिकारी रवि-कुल-मणि रघुनाथ के।

किन्तु हाय! वीर राजपूतों की

गौरव-प्रलम्ब ग्रीवा

अवनत हो रही है। आज तुमसे महाराज,

मोगल-दल-विगलित-बल

हो रहे हैं राजपूत,

बाबर के वंश की

देखो आज राजलक्ष्मी

प्रखर से प्रखरतर-प्रखरतम दीखती

दुपहर की धूप-सी,

दुर्मद ज्यों सिन्धुनद

और तुम उसके साथ

वर्षा की बाढ़ ज्यों

भरते हो प्रबल वेग प्लावन का,

बहता है देश निज

धन-जन कुटुम्ब भाई-

अपने सहोदर-मित्र-

निस्सहाय त्रस्त भी ‘उपायÓ-शून्य!

वीरता की गोद पर

मोद भरनेवाले शूर तुम,

मेधा के महान्,

राजनीति में हो अद्वितीय जयसिंह

सेवा हो स्वीकृत

है नमस्कार साथ ही

आसीस है बार-बार।

कारण संसार के विश्वरूप,

तुम पर प्रसन्न हों,

हृदय की आँखें दें,

देखो तुम न्याय-मार्ग।

सुना है मैंने, तुम

सेना से पाट दक्षिणा-पथ को

आये हो मुझ पर चढ़ाई कर,

जय-श्री, जयसिंह!

मोगल-सिंहासन के-

औरङ्ग के पैरों के

नीचे तुम रक्खोगे,

काढ़ देना चाहते हो दक्षिण के प्राण-

मोगलों को तुम जीवनदान,

काढ़ हिन्दुओं का हृदय,

सदय ऐसे! कीर्ति से

जाओगे अपनी पताका ले।

हाय री यशोलिप्सा!

अन्धे की दिवस तू-

अन्धकार रात्रि-सी।

लपट में झपट

प्यासों मरनेवाले

मृग की मरीचिका है।

चेतो वीर, हो अधीर जिसके लिए

अमृत नहीं, गरल है-

अति कटु हलाहल है;

कीर्ति-शोणिमा में यह

कालिमा कलङ्क की

दीखती है छिपी हुई-

काला कर देगी मुख,

देश होगा विगत-सुख, विमुख भी,

धर्म को सहेगा नहीं

इतना यह अत्याचार,

करो, कुछ विचार,

तुम देखो वस्त्रों की ओर,

शराबोर किसके खून से ये हुए?

लालिमा क्या है कहीं कुछ?

भ्रम है वह,

सत्य कालिमा ही है।

दोनों लोक कहेंगे,

होता तू जानदार,

हिन्दुओं पर हरगिज तू

कर न सकता प्रहार।

अगर निज नाम से,

बाहुबल से, चढक़र

तुम आते कहीं दक्षिणा में

विजय के लिए वीर,

पत्र-से प्रभात के

इन नयन-पलकों को

राह पर तुम्हारी मैं

सुख से बिछा देता-

सीस भी झुका देता सेवा में

साथ भी होता वीर,

रक्षक शरीर का, हमरकाब,

साथ लेता सेना निज,

सागराम्बरा भूमि

क्षत्रियों की जीतकर,

विजय सिंहासन-श्री

सौंपता ला तुम्हें मैं-

स्मृति-सी निज प्रेम की।

किन्तु तुम आये नहीं अपने लिए

आये हो, औरङ्गशाह

देने मृदु अङ्ग निज काटकर।

धोखा दिया है यह

उसने तुम्हें क्या ही!-

दगाबाज, लाज जो उतारता है

मारजादवालों की,

खूब बहकाया तुम्हें!

सोचता हूं अपना कर्तव्य अब-

देश का उद्देश,

पर, क्या करूँ मैं,

निश्चय कुछ होता नहीं-

द्विधा में पड़े हैं प्राण।

अगर मैं मिलता हूँ,

”डरकर मिला हैÓÓ

यह शत्रु मेरे कहेंगे।-

नहीं यह मर्दानगी।

समय की बाट कभी

जोहते नहीं हैं पुरुष-

पुरुषकार उपहार में है संयोग से

जिन्हें मिला-

सिंह भी क्या स्वाँग कभी

करता है स्यार का?

क्या कहूँ मैं,

लूँ गर तलवार,

तो धार पर बहेगा खून

दोनों और हिन्दुओं का, अपना ही।

उठता नहीं है हाथ

मेरा कभी नरनाथ,

देख हिन्दुओं को ही

रण में-विपक्ष में।

हाय री दासता!

पेट के लिए ही-

लड़ते हैं भाई-भाई-

कोई तुम ऐसा भी कीर्तिकामी।

वीरवर! समर में

धर्म-घातकों से ही खेलती है रण-क्रीड़ा

मेरी तलवार, निकल म्यान से।

आये होते कहीं

तुर्क इस समर में,

तो क्या, शेरमर्दों के

वे शिकार आये होते।

किन्तु हाय!

न्याय-धर्म-वञ्चित वह

पापी औरङ्गजेब-

राक्षस निरा जो नर-रूप का,

समझ लिया खूब जब

दाल है गली नहीं

अफजल खाँ के द्वारा,

कुछ न बिगाड़ सका,

शाइश्त: खान आकर,

सीस पर तुम्हारे तब

सेहरा समर का बाँध

भेजा है फतहयाब होने को दक्षिण में।

शक्ति उसे है नहीं

चोटें सहने की यहाँ

वीर शेरमर्दों की।

सोचो तुम,

उठती जब नग्न तलवार है स्वतन्त्रता की,

कितने ही भावों से

याद दिला घोर दु:ख दारुण परतन्त्रता का,

फूँकती स्वतन्त्रता निज मन्त्र से

जब व्याकुल कान,

कौन वह सुमेरु

रेणु-रेणु जो न हो जाय?

इसीलिए दुर्जय है हमारी शक्ति!

और भी-

तुम्हें यहाँ भेजा जो,

कारण क्या रण का?

एक यही निस्सन्देह,

हिन्दुओं में बलवान्

एक भी न रह जाय।

लुप्त हो हमारी शक्ति

तुर्कों के विजय का।

आपस में लडक़र

हो घायल मरेंगे सिंह,

जङ्गल में गीदड़ ही

गीदड़ रह जायेंगे-

भोगेंगे राज्य-सुख।

गुप्त भेद एकमात्र

है यही औरङ्ग का,

समझो तुम,

बुद्धि में इतना भी नहीं पैठता?

जादू के मारे, हाय

हारे तुम बुद्धि भी?

समझो कि कैसा बहकाया है?

मिला है तुम्हें

गन्ध-व्याकुल-समीर-मन्द-स्पर्श सरस,

साथ मरुभूमि में

सेना के संग तुम

झुलस भी चुके हो खूब

लू के तप्त झोंकों में

सुख और दु:ख के

कितने ही चित्र तुम देख चुके।

फूलों की सेज पर सोये हो,

काटों की राह भी

आह भर पार की।

काफी ज्ञान वयोवृद्ध!

पाया है तुमने संसार का।

सोचो जरा,

क्या तुम्हें उचित है कभी

लोहा लो अपने ही भाइयों से!

अपने ही खून की

अञ्जलि दो पूर्वजों को,

धर्म-जाति के ही लिए

दिये हों जिन्होंने प्राण-

कैसा यह ज्ञान है!

धीमान् कहते हैं तुम्हें लोग,

जयसिंह सिंह हो तुम,

खेलो शिकार खूब हिरनों का,

याद रहे-

शेर कभी मारता नहीं है शेर,

केसरी

अन्य वन्य पशुओं का शिकार करता है।

सिंहों के साथ ही चाहते हो गृह-कलह?-

जयसिंह?

अगर हो शानदार,

जानदार है यदि अश्व वेगवान्,

बाहुओं में बहता है

क्षत्रियों का खून यदि,

हृदय में जागती है वीर, यदि

माता क्षत्राणी की दिव्य मूर्ति,

स्फूर्ति यदि अंग-अंग को है उकसा रही,

आ रही है याद यदि अपनी मरजाद की,

चाहते हो यदि कुछ प्रतिकार

तुम रहते तलवार के म्यान में,

आओ वीर, स्वागत है,

सादर बुलाता हूँ।

हैं जो बहादुर समर के,

वे मरके भी

माता को बचायेंगे।

शत्रुओं के खून से

धो सके यदि एक भी तुम मा का दाग,

कितना अनुराग देशवासियों का पाओगे!-

निर्जर हो जाओगे-

अमर कहलाओगे,

क्या फल है,

बाहुबल से, छल से या कौशल से

करके अधिकार किसी

भीरु पीनोरु नतनयना नवयौवना पर,

सौंपो यदि भय से उसे

दूसरे कामातुर किसी

लोलुप प्रतिद्वन्द्वी को?

देख क्या सकोगे तुम

सामने तुम्हारे ही

अर्जित तुम्हारी उस

प्यारी सम्पत्ति पर,

प्राप्त करे दूसरा ही

भोग-संयोग निज, आँख दिखा,

और तुम वीर हो?

रहते तूणीर में तीर, अहो,

छोड़ा कब क्षत्रियों ने अपना भाग?-

रहते प्राण-कटि में कृपाण के?

सुना नहीं तुमने क्या वीरों का इतिहास?

पास ही तो-देखों,

क्या कहता चित्तौड़-गढ़?

मढ़ गये ऐसे तुम तुर्कों में?

करते अभिमान भी किन पर?

विदेशियों-विधर्मियों पर?

काफिर तो कहते न होंगे कभी तुम्हें वे?

विजित भी न होंगे तुम औÓ गुलाम भी नहीं?

कैसा परिणाम यह सेवा का!-

लोभ भी न होगा तुम्हें सेवा का महाराज!

बादल घिर आये जो विपत्तियों के क्षत्रियों पर,

रहती सदा ही जो आपदा,

क्या कभी कोशिश भी की कोई

तुमने बचाने की?

जानते हो,

वीर छत्रसाल पर

होगा मोगलों का

बहुत शीघ्र ही वज्र-प्रहार।

दूसरे भी मलते हैं हाथ,

हैं अनाथ हिन्दू,

असहनीय हो रहा है अत्याचार।

सच है मोगलों से

सम्बन्ध हुआ है तुम्हारा

किन्तु क्या अन्ध भी तुम हो गये?

राक्षस पर रखते हो

नीति का भरोसा तुम,

तृष्णा, स्वार्थ-साधना है जिसकी-

निज भाई के खून से,

प्राणों से पिता के

जो शक्तिमान् है हुआ?

जानते नहीं हो तुम?

आड़ राजभक्ति की

लेना है इष्ट यदि,

सोचो तुम,

शाहजहाँ से तुमने कैसा बर्ताव किया।

दी है विधाता ने

बुद्धि यदि तुम्हें कुछ-

वंश का बचा हुआ

यदि कुछ पुरुषत्व है-

तत्व है,

तपा तलवार

सन्ताप से निज जन्म-भू के

दुखियों के आँसुओं से

उस पर तुम पानी दो।

अवसर नहीं है यह

लडऩे का आपस में

खाली मैदान पड़ा हिन्दुओं का महाराज,

बलिदान चाहती है जन्म-भूमि,

खेलोगे जान ले हथेली पर?

धन-जन-देवालय

देव-देश-द्विज-द्वारा-बन्धु

ईंधन हैं हो रहे तृष्णा की भ_ी में-

हद है अब हो चुकी।

और भी कुछ दिनों तक

जारी रहा ऐसा यदि अत्याचार, महाराज,

निश्चय है, हिन्दुओं की

कीर्ति उठ जायेगी-

चिह्न भी न हिन्दू-सभ्यता का रह जायेगा।

कितना आश्चर्य है!

मु_ी-भर मुसलमान

पले आतंक से हैं

भारत के अङ्क पर।

अपनी प्रभुता में

हैं मानते इस देश को,

विशृंखल तुम-सा यह हो रहा।

देखते नहीं हो क्या,

कैसी चाल चलता है रण में औरंगजेब?

बहुरूपी, रंग बदला ही किया।

साँकलें हमारी हैं

जकड़ रहा है वह जिनसे हिन्दुओं के पैर।

हिन्दुओं के काटता है सीस

हिन्दुओं की तलवार ले।

याद रहे,

बरबाद जाता है हिन्दू-धर्म, हिन्दुस्तान।

मरजाद चाहती है आत्मत्याग-

शझ्ति चाहती है, अपनाव, प्रेम

क्षिप्त हो रहे हैं जो

खण्डश: क्षीण, क्षीणतर हुए-

आप ही हैं अपनी

सीमा के राजराजेश्वर,

भाइयों के शेर और क्रीतदस तुर्कों के,

उद्धत विवेक-शून्य,

चाहिए उन्हें कि रूप अपना वे पहचानें,

मिल जायें जल से ज्यों जलराशि,

देखो फिर

तुर्क-शक्ति कितनी देर टिकती है।

संगठित हो जाओ-

आओ, बाहुओं में भर

भूले हुए भाइयों को,

अपनाओ अपना आदर्श तुम।

चाहिए हमें कि

तदबीर औÓ तलवार पर

पानी चढ़ावें खूब,

क्षत्रियों की क्षिप्त शक्ति

कर लें एकत्र फिर,

बादल के दल मिलकर

घेरते धरा को ज्यों,

प्लावित करते हैं

निज जीवन से जीवों को।

ईंट का जवाब हमें

पत्थर से देना है,

तुर्कों को तुर्कीं में,

घूँसे से थप्पड़ का।

यदि तुम मिल जाओ महाराज जसवन्त सिंह से

हृदय से कलुष धो डालो यदि,

एकता के सूत्र में

यदि तुम गुँथो फिर महाराज राजसिंह से,

निश्चय है,

हिन्दुओं की लुप्त कीर्ति

फिर से जग जायगी,

आयेगी महाराज

भारत की गयी ज्योति,

प्राची के भाल पर

स्वर्ण-सूर्योदय होगा,

तिमिर-आवरण

फट जायगा मिहिर से,

भीति-उत्पात सब रात के दूर होंगे।

घेर लो सब कोई,

शेर कुछ है नहीं वह,

मु_ी-भर उसके सहायक हैं,

दबकर पिस जायेंगे।

शत्रु को मौका न दो

अरे, कितना समझाऊँ मैं ?

तुमने ही रेणु को सुमेरु बना रक्खा है।

महाराज!

नीच कामनाओं को

सींचने के ही लिए

पल्लिवत विष-वल्लरी को करने के हेतु,

मोगलों की दासता के

पाश मालाएँ हैं

फूलों की आज तुम्हें।

छोड़ों यह हीनता,

साँप आस्तीन का

फेंको दूर,

मिलो भाइयों से,

व्याधि भारत की छूट जाय।

बँधे हो बहा दो न

मुक्त तरङ्गों में प्राण,

मान, धन, अपनापन;

कब तक तुम तट के निकट

खड़े हुए चुपचाप

प्रखर उताप के फूल-से रहोगे म्लान,

मृतक, निष्प्राण जड़।

टूट पड़ो-बह जाओ-

दूर तक फैलाओ अपनी श्री, अपना रङ्ग,

अपना रूप, अपना राग।

व्यक्तिगत भेद ने

छीन ली हमारी शक्ति।

कर्षण-विकर्षण-भाव

जारी रहेगा यदि

इसी तरह आपस में,

नीचों के साथ यदि

उच्च जातियों की घृणा

द्वन्द्व, कलह, वैमनस्य,

क्षुद्र ऊर्मियों की तरह

टक्करें लेते रहे तो

निश्चय है,

वेग उन तरङ्गों का

और घट जायगा-

क्षुद्र से वे क्षुद्रतर होकर मिट जायेगी,

चञ्चलता शान्त होगी,

स्वप्न-सा विलीन हो जायगा अस्तित्व सब,

दूसरी ही कोई तरङ्ग फिर फैलेगी।

चाहते हो क्या तुम

सनातन-धर्म-धारा शुद्ध

भारत से वह जाय चिरकाल के लिए?

महाराज!

जितनी विरोधी शक्तियों से,

हम लड़ रहे हैं आपस में,

सच मानो खर्च है यह

शक्तियों का व्यर्थ ही।

मिथ्या नहीं,

रहती है जीवों में विरोधी शक्ति,

पिता से पुत्र का,

पति का सहधर्मिणी से

जारी सदा ही है कर्षण-विकर्षण-भाव

और यही जीवन है-सत्ता है,

किन्तु तो भी

कर्षण बलवान् है

जब तक मिले हैं वे आपस में-

जब तक सम्बन्ध का ज्ञान है-

जब तक वे हँसते हैं,

रोते हैं एक-दूसरे के लिए।

एक-एक कर्षण में

बँधा हुआ चलता है

एक-एक छोटा परिवार

और उतनी ही सीमा में

बँधा है अगाध प्रेम-

धर्म-भाषा-वेश का,

और है विकर्षणमय

सारा संसार हिन्दुओं के लिए!

धोखा है अपनी ही छाया से!

ठगते वे अपने ही भाइयों को,

लूटकर उन्हें ही वे भरते हैं अपना घर।

सुख की छाया में फिर रहते निश्चिन्त हो

स्वप्न में भिखारी ज्यों।

मृत्यु का क्या और कोई होगा रूप?

सोचो कि कितनी नीचता है आज

हिन्दुओं में फैली हुई।

और यदि एकीभूत शक्तियों से एक ही

बन जाय परिवार,

फैले समवेदना,

एक ओर हिन्दू एक और मुसलमान हों,

व्यक्ति का खिंचाव यदि जातिगत हो जाय,

देखो परिणाम फिर,

स्थिर न रहेंगे पैर यवनों के-

पस्त हौसला होगा-

ध्वस्त होगा साम्राज्य।

जितने विचार आज

मारते तरङ्गें हैं

साम्राज्यवादियों की भोग-वासनाओं में,

नष्ट होंगे चिरकाल के लिए।

आयेगी भाल पर

भारत की गयी ज्योति,

हिन्दुस्तान मुक्त होगा घोर अपमान से,

दासता राजपूतों से,

घेरो तुम दिल्ली-गढ़,

तब तक मैं दोनों सुलतानों को देख लूँ।

सेना घनघटा-सी,

मेरे वीर सरदार

घेरेंगे गोलकुण्डा, बीजापुर,

चमकेंगे खङ्ग सब

विद्युद्द्युति बार-बार,

खून की पियेंगी धार

सङ्गिनी सहेलियाँ भवानी की,

धन्य हूँगा, देव-द्विज-देश को

सौंप सर्वस्व निज।

– सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला!

शिवाजी का मूल पत्र जिसे  फारसी में  जय सिंह को भेजा था।(हिंदी तर्जुमे के साथ)

जयसिंह खुद को राम का वंशज मानता था। उसने युद्ध में जीत हासिल करने के लिए एक सहस्त्र चंडी यज्ञ भी कराया। शिवाजी को इसकी खबर मिल गयी थी जब उन्हें पता चला की औरंगजेब हिन्दुओं को हिन्दुओं से लड़ाना चाहता है। जिस से दोनों तरफ से हिन्दू ही मरेंगे। तब शिवाजी ने जयसिंह को समझाने के लिए जो पत्र भेजा था। उसके कुछ अंश नीचे दिये हैं –

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1 जिगरबंद फर्जानाये रामचंद ज़ि तो गर्दने राजापूतां बुलंद।

हे रामचंद्र के वंशज, तुमसे तो क्षत्रिओं की इज्जत उंची हो रही है।

2 शुनीदम कि बर कस्दे मन आमदी -ब फ़तहे दयारे दकन आमदी।

सुना है तुम दखन कि तरफ हमले के लिए आ रहे हो

3 न दानी मगर कि ईं सियाही शवद कज ईं मुल्को दीं रा तबाही शवद।

तुम क्या यह नही जानते कि इस से देश और धर्म बर्बाद हो जाएगा।

4 बगर चारा साजम ब तेगोतबर दो जानिब रसद हिंदुआं रा जरर

अगर मैं अपनी तलवार का प्रयोग करूंगा तो दोनों तरफ से हिन्दू ही मरेंगे।

5 बि बायद कि बर दुश्मने दीं ज़नी बुनी बेख इस्लाम रा बर कुनी।

उचित तो यह होता कि आप धर्म दे दुश्मन इस्लाम की जड़ उखाड़ देते।

6 बिदानी कि बर हिन्दुआने दीगर न यामद चि अज दस्त आं कीनावर।

आपको पता नहीं कि इस कपटी ने हिन्सुओं पर क्या क्या अत्याचार किये है।

7 ज़ि पासे वफ़ा गर बिदानी सखुन चि कर्दी ब शाहे जहां याद कुन

इस आदमी की वफादारी से क्या फ़ायदा। तुम्हें पता नही कि इसने बाप शाहजहाँ के साथ क्या किया।

8 मिरा ज़हद बायद फरावां नमूद -पये हिन्दियो हिंद दीने हिनूद

हमें मिल कर हिंद देश हिन्दू धर्म और हिन्दुओं के लिए लड़ाना चाहिए।

9 ब शमशीरो तदबीर आबे दहम ब तुर्की बतुर्की जवाबे दहम।

हमें अपनी तलवार और तदबीर से दुश्मन को जैसे को तैसा जवाब देना चाहिए।

10 तराज़ेम राहे सुए काम ख्वेश – फरोज़ेम दर दोजहाँ नाम ख्वेश

अगर आप मेरी सलाह मामेंगे तो आपका लोक परलोक नाम होगा।