साँच कहै ता/जयराम शुक्ल
प्रछन्न राष्ट्रप्रेम की चाशनी में गाली-गलौज भरे इन विधानसभा चुनावों को यदि स्वर्ग से सरदार पटेल, विवेकानंदजी या बापू देख रहे होंगे तो वे निश्चित ही अफसोस करते होंगे कि उनके झंडाबरदारों के रगों में ये कौन सा लूहू हिलारें ले रहा है।
उन्हें कौन बताए कि बापू आप के जाने के बाद अपने यहां कई नई उज्जवल परंपराएं चल निकली हैं। सबसे बड़े अधर्मी आपके लोकतंत्र के मठ-मंदिरों में रहने वाले लोग ही निकल रहे हैं।
बापू आप तो नोट-नोट में बसे हो, यहां आपकी तस्वीर वाले कई लाख करोड़ नोटों के वारे-न्यारे हो जाते हैं। और सरदार साहब वारदोली से जिन किसानों की लड़ाई आपने शुरू की थी न उनकी जमीनें छीनकर धन्ना सेठों को औने-पौने दी जा रही हैं। वे बेचारे फसल के कीटनाशक पीकर अपनी जानें दे रहे हैं।
कुछेक किसान जो सीधे स्वर्ग पहुंचें होंगे उनसे आप पूछ सकते हैं। वे सब सच-सच बता देंगे कि कैसे आपके राजनीतिक वंशधर बड़े सेठों की दलाली खाकर ये सब कर रहे हैं।
वे सभी आपके और पूज्य बापू के नाम पर चुनाव लड़ रहे और वोट मांग रहे हैं। और विवेकानंदजी क्या आपको पता है कि जिस युवा तरूणाई के लिए आपने उत्तिष्ठ-जागृत को नारा दिया था वे पबों और रेव्ह पार्टियों में धमाल मचा रहे हैं। सोशल मीडिया के मायाजाल में फंसकर जवानी गवां रहे हैं।
इस देश का अब तक सत्यानाश इसलिए नहीं हुआ कि अभी भी वे कुछ लोग बचे हैं जो चुपचाप बिना चुनाव लड़े देश के बारे में सोचते हैं। देश समस्याओं और मुश्किलों से कैसे निकलेगा इस पर बातें होने की बजाय हम दूसरों को कितने मुश्किल में डाल सकते हैं बहस इसकी चल रही है।
हर दल एक दूसरे को धमकाता हुआ सा दिख रहा है। कौन किसको बंगाल की खाड़ी में विसर्जित कर देगा चैनलों के पैनलिए टीवी पर यही ‘खेला’ कर रहे हैं।
अफवाह, प्रचार, खबर और विज्ञापन में इतना घालमेल से भ्रम का ऐसा वितान तान दिया गया है कि सचमुच तय कर पाना मुश्किल है कि हकीकत क्या है।
सबकी अपनी-अपनी हकीकत है जो एक दूसरे को अज्ञानी, राष्ट्र व समाज विरोधी साबित करने में लगा है।
वोटरों की बात करें तो वह कुछ बोल नहीं रहा। लहर चलती है तो पतवार वोटर के हाथों में होती है।
क्या ये चुनाव जनता लड़ती हुई दिख रही है? अपन को तो ये चुनाव पूरा सिविल वॉर सा लग रहा है। नेता और उनके सरहंग आरोपों की भीषण लठ्ठबाजी करते हुए से दिख रहे हैं।
उनकी जुबान पर जाएं तो ऐसे लगता है कि यह चुनाव आदमी नहीं जानवर लड़ रहे हैं। कोई लकड़बग्घा, तो कोई गीदड़, कोई पिल्ले का बाप तो कोई गधे का बच्चा। लगता है ये चुनाव जंगलों की सल्तनत के लिए हो रहा है। विधानसभा/संसद का ख्वाब देखने वाले इतने भी असंसदीय …..राम-राम, तौबा-तौबा।
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