रंग बरसाती गेरो ने किसी को गैर नही रखा, खूब बरसे रंग, अहिल्या नगरी की रंगपंचमी दुनिया में छाई

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नितिनमोहन शर्मा

अहिल्या नगरी में ऐसे रंग बरसे की धरती से अंबर तक सब लालमलाल हो गया। सब तरफ बस रंग ही रंग। नीला, पीला, हरा, गुलाबी, केसरिया, कच्चा पक्का रंग। हर तरह का रंग। रंगों में जैसे मुकाबला चल रहा हो कि कौन कितनी ऊंचाई तक जाता हैं और कितने चेहरे रँगीन करता हैं। रंगों की इस होड़ ने पुराने इन्दौर में इतना रंग उड़ाया की आसमान पर  रंग गुलाल के गुबार छा गए।

एक वक्त तो ऐसा भी आया कि सूरज भी रंगों की घटाटोप में चंदा जैसा हो गया। रंगों की रंगत ही ऐसी छाई की दिन के 3 बजते बजते सूरज भी अपनी असली रंगत छोड़ रंगों की इस बारात में शामिल हो गया और आसमान से अपने तेवर ढीले कर लिए। रंगों का ये उल्लास इतिहास लिख गया। लाखो लोग झूमते गाते नाचते इस उत्सव में शामिल हुए। हर चेहरा रँगीन था और गाल ग़ुलाबी। रंगों की बौछार से देह तरबतर थी तो मन कुलांचे मार रहा था।

रंगारंग गेर से बरसे रंगों ने किसी को गेर नही माना। सब रँगीन ओर सब एक ही जात के हो गये। वो जात थी रंग। ये रंग जात ही नही पहचान भी बन गए। लिहाजा गेर में कोई गैर नही रहा। सब अपने हो गए। एक जैसे रंगे पुते। ऐसी ही थी इन्दौर की रंगपंचमी जिसे निहारने यूनेस्को के दल के साथ विदेशी मेहमान भी आये थे। इंदोरियो के तो कहने ही क्या? अलसुबह से शुरू हुई उनकी रँगपंचमी की मस्ती दिन ढलने तक खत्म नही हुई।

पहली गेर झटपट, आखरी में हो गई देर 

टोरी कार्नर की गैर के साथ रंग पंचमी के रंगोत्सव का आगाज सुबह जल्दी 10 बजे ही हो गया। ये गेर दोपहर 12: 40 तक कांच मन्दिर तक लौटकर आ भी गई। लगा कि इस बार रंगों की बारात जल्द निपट जाएगी। लेकिन ऐसा हुआ नही। दोपहर 12 30 पर हिन्द रक्षक की फाग यात्रा ने भी राजबाड़ा चोक पर दस्तक दे दी। लम्बी चोंडी इस यात्रा की चोक से बिदाई में ही करीब पौन घण्टे लग गए। फिर छिपाबाखल की मारल क्लब की गैर आईं। उसके पीछे राजपाल जोशी की रसिया कार्नर की गैर राजबाड़ा पहुंची। सबसे आखरी में संगम कार्नर की गैर राजबाड़ा पहुंची। इस गेर ने राजबाड़ा पर तब दस्तक दी, जब रंगपंचमी का जलसा खत्म हो जाता हैं। 3 15 तक ये गेर राजबाड़ा के अगल बगल में ही थी जिसे लौटते 4 बज गए। इस गेर में सबसे ज्यादा रंग उड़े।

पहली बार राजबाड़ा लिहाफ में दुबका 

होश सम्भालने के बाद ये पहला मौका था, जब शहर की आन बान शान और पहचान राजबाड़ा रंगों का उल्लास खुल्लमखुल्ला नही देख पाया। राजबाड़ा लिहाफ में दुबककर रंगों का आनंद उठा रहा था। दरअसल कायाकल्प के बाद राजबाड़ा को जो रूप निखरकर आया था, उसको रंगों से बदरंग होने से बचाने के लिए पूरे राजबाड़ा को तिरपाल से ढाँक दिया गया था। गोपाल मंदिर भी ऐसे ही दुबका हुआ था और महालक्ष्मी मंदिर का एक हिस्सा भी ऐसे ही ढका हुआ था।

गलियों में बाड़बंदी, जनता हुई परेशान 

इस बार जिला प्रशासन कुछ ज्यादा ही चौकन्ना था। इसलिए उसने गेर मार्ग को जोड़ती गलियों में आवाजाही को बेरिकेड्स से रोक दिया। इससे रंगपंचमी की रंगत देखने आए लोग खूब परेशान हुए और उन्हें खूब पैदल चलना पड़ा। हुरियारों ने बाद में कई गलियों में बेरिकेड्स स्वयम ही हटा दिए। पुलिस को भी तब तक समझ आ गया था कि गलियां वाकई काम की है जो गेर मार्ग के जनसैलाब को अवैर लेती हैं।

दयालु नही झेल पाये ग़ुब्बारे 

दयालु कहे जाने वाले विद्यायक रमेश मेंदोला हुरियारों के आगे हार गए। दरअसल वो कमलेश खंडेलवाल की संगम कार्नर वाली गेर में थे। जिस वाहन में वो सवार थे, उसकी छत पर कमलेश बेठे थे। दयालु भी जोश जोश में वाहन की आगे वाली छत पर कमलेश के पास बैठ गए। चश्मा लगा लिया। पीछे कैलाश विजयवर्गीय भी थे पर उनकी सुरक्षाकर्मियों ने काले छाते पकड़े हुए थे जो हर ग़ुब्बारे को छाता अड़ाकर रोक रहे थे। मेंदोला को ये सुविधा नही थी। नतीजतन हुरियारों ने मेंदोला को निशाना बनाकर इतने गुब्बारे फेंके की चश्मा तक फिंका गया। पानी से धोया फिर चश्मा लगाया लेकिन ग़ुब्बारे फिर भी चलते रहे। हारकर मेंदोला ने पीछे जाकर कैलाश विजयवर्गीय की बगल में खड़ा रहना ही मुनासिब समझा और वे खजूरी बाजार के राजबाड़ा वाले मुहाने पर फिर पीछे हो लिए। विजयवर्गीय जरूर जोश में स्वयम भी नाचते रहे और जनता को भी नचवाते रहे। साथ मे हरा गुलाल भी उड़ाते चलते रहे।