भारतीय लोकतंत्र के सामने कई सवाल, जिनके लिए उत्तरदायी कौन?

Author Picture
By Ayushi JainPublished On: January 25, 2021

सतीश जोशी

लोकतंत्र में सत्ता परिवर्तन और दलों की हार-जीत होती रहेगी, समस्याएं बनती-बिगड़ती रहेंगी और जनता उनसे जूझती रहेगी परंतु हमें सोचना होगा कि कहीं हमारे पूर्वजों की कुर्बानी व्यर्थ तो नहीं जा रही? जिस तेजी से वर्तमान पीढ़ी अपने अतीत से कटती जा रही है वह एक बहुत बड़ा कारण है कि हम अपने पूर्वजों की कुर्बानियों के प्रति असंवेदनशील हो गए हैं और अपने लोकतंत्र की वर्तमान स्थिति से समझौता कर बैठे हैं।

स्वतंत्रता के सात दशकों से अधिक समय और संविधान लागू होने के इतने वर्षों के बाद भी हमारे लोकतंत्र के समक्ष कुछ ज्वलंत प्रश्न अनुत्तरित हैं। क्या हम स्वतंत्रता और स्वराज्य में समरसता स्थापित कर सके हैं? आखिर आम आदमी को गरीबी, भुखमरी, अशिक्षा और बीमारी से छुटकारा क्यों नहीं मिल सका? आज भी वह अपने वोट को नोट से क्यों तौल देता है? अनगिनत सरकारी योजनाओं पर असीमित धन व्यय होने के बावजूद अन्नदाताओं के नाम पर राजनीति जारी है। भ्रष्टाचार के दीमक ने विकास को खोखला कर दिया है।

संविधान द्वारा राजनीतिक समानता दिए जाने के बावजूद सामाजिक असमानता आज भी क्यों बनी हुई है? हम प्राय: जाति-प्रथा का रोना रोकर सामाजिक असमानता का औचित्य सिद्ध करते हैं, लेकिन क्या आरक्षण के अलावा हमने कोई प्रयास किया उसे दूर करने का? आरक्षण तो एक ‘सीमित-समाधान’ है।

भारतीय लोकतंत्र के सामने कई सवाल, जिनके लिए उत्तरदायी कौन?

आरक्षण का मुद्दा हमेशा सामाजिक संघर्ष को हवा देता है। वह सामाजिक समानता और न्याय को सुनिश्चित करने का कोई ‘जादुई-चिराग’ नहीं। अलबत्ता उससे समाज में दुर्भाव, हिंसा, घृणा, विद्वेष, अन्याय और दुष्प्रवृत्तियां जरूर बलवती होती हैं। क्या हमने कभी विचार किया कि सामाजिक असमानता दूर करने के और क्या-क्या तरीके हो सकते हैं? प्रश्न यह भी है कि हम वैयक्तिक और सामाजिक विकास में समरसता क्यों स्थापित नहीं कर सके?

भारतीय संविधान व्यक्ति और समाज, स्वतंत्रता और समानता, दोनों में सामंजस्य स्थापित करने का संकल्प लेकर चला था, लेकिन हम इतने व्यक्ति केंद्रित हो गए कि उन तमाम सामाजिक इकाइयों को बहुत पीछे छोड़ आए जो हमारे वैयक्तिक उन्नयन की आधारशिला थीं। हम केवल अपने, अपनी जाति और अपने धर्म के बारे में सोचते हैं।

समाज और देश के बारे में नहीं। सच्चे लोकतंत्र के लिए केवल लोकतांत्रिक संरचनाएं और प्रक्रियाएं ही नहीं, लोकतांत्रिक मनोविज्ञान भी जरूरी है। क्या हमने इस जरूरी मनोविज्ञान की स्थापना के लिए कुछ किया? भारतीय लोकतंत्र ऐसे ही अनेक प्रश्नों से जूझ रहा है। क्या कभी इनके समाधान हो सकेंगे? जनता किसे दोषी माने? उसके पास संविधान, संवैधानिक संस्थाओं और जनप्रतिनिधियों को उत्तरदायी मानने के अलावा विकल्प भी क्या है?