सपाट : कब, कब और कब—!

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By Ayushi JainPublished On: January 15, 2022

सतीश जोशी

जिन्दगी, कितनी भी तंग हो, त्रस्त हो, दुखी हो, उसको सफर तो जारी रखना ही है। धुंध से घिरे, बादलों में घिरे सूरज की तरह बढते जाना है। सारी ऊर्जा को नष्ट करती बर्फीली हवाए और कांपती जिन्दगी, ठिठुरते सूरज की तरह ही तो है। उस सुबह के इंतजार में है सूरज जब हवाए शीतलता से मुक्त हो जाएगी। कभी जिन्दगी अमावस की रात हो जाती है और अपने आगोश में चांद, तारों को बेरोशन कर देते हैं। यदा-कदा जिन्दगी बरसती रात में  उस गरीब की तरह हो जाती है, जिसकी छप्पर से टपकता पानी उसे दरिद्र होने के अभिशाप की याद दिलाती है।

कभी-कभी जिन्दगी अमीर के बार रूम में सजी सुरा की बोतल हो जाती है, कितना ही पी ले पर नशा चढता ही नहीं।  जिन्दगी ठर्रा है जो थोडी सी पी लेने पर भी नाले में सुख की नींद सुला देती है। नाले में नशे के हाल में पडे गरीब की तकदीर उस नेता के वादे की तरह है, जो बार-बार दोहराए जाते हैं और उसकी जिन्दगी ठर्रे से महंगी बोतल में नहीं बदलती। वाह रे जिन्दगी, तेरे भी अजीब रंग हैं, कभी ये कभी वो रंग सपने दिखाते हैं पर पूरे नहीं होते। चुनावी सभाओं में बदलते चेहरों के भाषण वही हैं पर सुनने वाली जिन्दगियो के सपने हर पांच साल में दम तोड़ते हैं।

आजकल सपनों की कीमत लगने लगी है, मुफ्त की बिजली, पानी और राशन से काशनमनी, महंगाई भत्ते तक और बेरोजगारी की कीमत लगाती जिन्दगी का सफर जारी है। कब तक चलेगा यह, कब सूरज का ताप लौटेगा? कब अमावस की रात का अंत होगा? गरीब की छप्पर कब टपकना बंद होगी ? ठर्रा बनी जिन्दगी कब नाले की बदबू से मुक्त होगी। गरीब की रोटी राशन माफिया का ग्रास कब तक बनती रहेगी ? कब तक सपने भाषण बने रहेंगे ?  खैराती नारों से कब तक लोकतंत्र कलंकित होता रहेगा ? न्याय की चौखट पर कब जिन्दगी के मुकदमे की पैरवी होगी? कब, कब और कब !!