रविवारीय गपशप: भारत और मातृभाषा के प्रति दीवानगी देश से बाहर रहने वाले लोगों अधिक है – आनंद शर्मा

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By Mohit DevkarPublished On: March 27, 2022
aanand sharma

अपने देश से भला कौन प्यार नहीं करता पर देश और मातृभाषा के प्रति दीवानगी देश से बाहर रहने पर और अधिक बढ़ जाती है । बात बड़ी पुरानी है , तब मैं ग्वालियर में परिवहन विभाग में उपायुक्त परिवहन के पद पर पदस्थ था । भारत सरकार के एक शासकीय प्रशिक्षण कार्यक्रम के लिए मुझे सिंगापुर जाने का मौक़ा मिला । क़रीब बत्तीस देशों के लोग इसमें शामिल थे और भारत से मैं अकेला प्रतिभागी था । सिंगापुर जाते हुए बस दो ही चीजें थीं जो दिमाग़ में चिंता का सबब बनी हुईं थीं । पहली तो ये कि इतने दिनों बिना अपनी बोली भाषा के कैसे रहेंगे और दूसरी क्षुधा की तृप्ति भारतीय भोजन के बिना कैसे होगी । संयोगवश प्रशिक्षण के इस दल में एक सज्जन नेपाल से एक श्रीलंका से और एक मोहतरमा मारिशस से थीं और हम सब हिंदी बोलते और समझते थे तो स्वाभाविक रूप से हम चारों का एक समूह बन गया सो पहली चिंता तो समाप्त हुई दूसरा प्रश्न भोजन का था ।

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सिंगापुर के नानयांग विश्वविध्यालय में दिन भर की कक्षाओं के बीच लंच ब्रेक होता था । पहले ही दिन दोपहर को जब खाने की छुट्टी हुई तो मैं विश्वविध्यालय के विशालकाय भोजनालय ढूँढ कर उस लाइन में लग गया जहाँ वेज़िटेरियन लिखा हुआ था । जब काउण्टर के समीप पहुँचा और मैंने देखा दाल चावल और सब्ज़ी के साथ वहाँ मछली भी थी तो मैंने घबरा कर पूछा यहाँ तो वेजिटेरियन खाना लिखा था ? काउंटर पर बैठा नवजवान मुस्कुरा का बोला अरे फ़िश तो वेज ही होती है । ख़ैर जैसे तैसे सम्भल कर भोजन लिया पर फीका फीका सा खाना खाने से पेट ही नहीं भरा । आख़िरकार भारतीय खाने की खोज ख़त्म हुई लिटिल इंडिया इलाक़े की खोज के साथ । हम सभी भारतीय खाने के प्रेमी साथ साथ रोज़ाना लिटिल में जाते जहाँ मुस्तफ़ा मॉल भी था जो उस ज़माने में बड़ा ज़बरदस्त था ।

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एक बार हम रात का खाना खा रहे थे तभी पास बैठा एक नौजवान हमारे पास आया और अंग्रेज़ी में कहने लगा की क्या मैं यहाँ बैठ सकता हूँ , मैंने थोड़ा असमंजस से कहा क्यूँ नहीं । वो बैठ गया फिर हिंदी में बोला क्या मैं आप लोगों से थोड़ी देर हिंदी में बात कर सकता हूँ । मैंने उसे अपने पास में बिठा कर पूछा क्या बात है ? उसने कहा कि भाई साहब मैं भारत का रहने वाला हूँ और पिछले नौ सालों से रोज़गार के सिलसिले में घर से बाहर हूँ । छह साल हांगकांग रहने के बाद अब तीन सालों से यहाँ हूँ तो अपने वतन की भाषा बोलने तरस जाता हूँ | इस इलाक़े में भारत के लोग आते हैं तो ऐसे ही हिंदी में बात करने का अवसर मिल जाता है और अपने वतन की खोज ख़बर भी मिल जाती | हिंदी में बात करने के लिए बेक़रार उस नौजवान से हमने आधे घंटे बात की और परदेस में भाषा की क्षुधा को भी महसूस किया |