दिनेश निगम ‘त्यागी’
कमलनाथ की फिर सत्ता में वापसी भले न हो लेकिन उप चुनावों में कांग्रेस का माहौल इतना खराब नहीं है। ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसे नेता सहित 25 विधायकों के पार्टी छोड़ने के बावजूद कांग्रेस का हर प्रत्याशी भाजपा को कड़ी टक्कर देता दिखाई पड़ रहा है। वह भी तब जब भाजपा की ओर से ज्योतिरादित्य, शिवराज सिंह चौहान, नरेंद्र सिंह तोमर के साथ समूची भाजपा और सरकार मैदान में है। ऐसे में कांग्रेस नेताओं के ‘सेल्फ गोल’ वाले बयान समझ से परे हैं। कमलनाथ ने जब कहा कि ‘शिवराज नारियल जेब में लेकर चलते हैं और चाहे जहां फोड़ देते हैं’, पहले भाजपा ने इसे तत्काल लपका। कांग्रेस बचाव की मुद्रा में आई।
शिवराज ने एक सभा में घुटनों के बल बैठकर जनता का अभिवादन किया तो कमलनाथ सहित कांग्रेस नेताओं ने शिवराज का मजाक उड़ाया। भाजपा ने इसे भी लपका, कांग्रेस फिर बचाव की मुद्रा में। दिनेश गुर्जर ने कह दिया कि ‘शिवराज भूखे-नंगे परिवार’ से हैं और ‘कमलनाथ देश में दूसरे नंबर के उद्योगपति’। भाजपा ने इसे भी लपका और कमलनाथ के खिलाफ मुख्य मुद्दा बना डाला। अब कमलनाथ ने इमरती देवी को आइटम कह कर बवाल खड़ा कर दिया। इस लेकर शिवराज सहित समूची भाजपा कमलनाथ के खिलाफ सड़क पर आ गई।बयानों पर सफाई बेमानी हो गई है। यह ‘सेल्फ गोल’ और ‘अपने पैर में कुल्हाड़ी मारना’ नहीं तो क्या है?
‘गरीबी’ के मुकाबले ‘मर्यादा पुरुषोत्तम राम’….
राजनीति में मुद्दे और नेताओं के नजरिए में बदलाव होता रहता है। पहले हर चुनाव में कांग्रेस का पंसदीदा मुद्दा रहा है ‘गरीबी’। गरीबी हटाने के नाम पर वह वोट मांगती और जीतती रही है। भाजपा धर्म, संस्कृति एवं राष्ट्रीयता के नाम पर चुनाव लड़ती रही है। ‘मर्यादा पुरुषोत्तम राम’ आस्था के नाम पर वोट जुटाने के उसके पंसदीदा किरदार रहे हैं। ‘राम’ के नाम पर भाजपा ने कई चुनाव लड़े और लगातार सफलता का ग्राफ बढ़ाया। ‘राम’ की बदौलत ही भाजपा आज देश की सबसे पार्टी है और केंद्र के साथ कई राज्यों की सत्ता में भी। समय का चक्र देखिए, प्रदेश के उप चुनावों में भाजपा ‘गरीबी’ को मुद्दा बनाती दिख रही है जबकि कांग्रेस खुद को ‘मर्यादा पुरुषोत्तम राम’ के साथ खड़ी दिखाने की कोशिश में है। तब जब अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के लिए नरेंद्र मोदी भूमिपूजन कर चुके हैं। राम मंदिर निर्माण शुरू हो चुका है। ऐसे में यह भाजपा का मुख्य मुद्दा होना चाहिए था लेकिन ‘राम’ की बात कांग्रेस कर रही है। भाजपा दूसरे मुद्दों के साथ चुनावी वैतरणी पार करने की कोशिश में है। उप चुनाव में भाजपा की ‘गरीबी’ का सिक्का चलता है या भगवान राम की महिमा कांग्रेस का बेड़ा पार होता है, नतीजे का इंतजार है।
‘आगे खाई – पीछे मौत’ के भंवर में महाराज….
कई अवसरों पर ‘आगे खाई और पीछे मौत’ की नौबत आ जाती है। न आगे जा सकते और न पीछे। महाराज ज्योतिरादित्य सिंधिया को लेकर उनके कुछ समर्थक भी ऐसा महसूस करने लगे हैं। वजह, उप चुनाव वाली 28 में से 22 सीटों में महाराज के कट्टर समर्थक चुनाव लड़ रहे हैं। यहां भाजपा की ओर से प्रचार के लिए जो हाईटैक रथ भेजे गए हैं, उनमें मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और प्रदेश भाजपा अध्यक्ष वीडी शर्मा के फोटो हैं लेकिन महाराज नदारद। कांग्रेस में जो महाराज पहली पंक्ति के वरिष्ठ नेताओं में शुमार थे, वे भाजपा स्टार प्रचारकों की सूची में दसवें नंबर पर हैं। लगता है, भाजपा गद्दारी का मुद्दा तूल पकड़ने के कारण महाराज से दूरी बनाने में जुट गई है। उसे किसी भी हालत में उप चुनाव जीत कर अपनी सत्ता बरकरार रखनी है। महाराज की उपेक्षा के सवाल पर भाजपा का तर्क है कि भाजपा अपने काम का तरीका नहीं बदल सकती, यह महाराज को भी मालूम है। महाराज के इस समर्थक ने पीड़ा व्यक्त करते हुए कहा कि बाजी हाथ से निकल गई। अब महाराज जहां हैं वहां रहने के अलावा दूसरा कोई चारा नहीं। खुदा न खास्ता 22 में से आधे से ज्यादा समर्थक हार गए, तब महाराज कहीं के नहीं रहेंगे।
‘संयम खोने’ और ‘मर्यादा तोड़ने’ की होड़….
प्रदेश की 28 विधानसभा सीटों के उप चुनाव दो मायनों में हमेशा याद किए जाएंगे। पहला, संभवत: ये ऐसे पहले उप चुनाव हैं, जिनके नतीजों पर सरकार का बने रहना, न रहना टिका है। हमेशा सरकार का फैसला आम चुनावों में ही होता रहा है। दूसरा और सबसे महत्वपूर्ण, ये उप चुनाव नेताओं के ‘बिगड़े बोलों’ के लिए चुनावी इतिहास में दर्ज होंगे। शिवराज सिंह चौहान, कमलनाथ, कैलाश विजयवर्गीय, सज्जन सिंह वर्मा, कमल पटेल तथा जीतू पटवारी सहित हर नेता ‘संयम खोने’ और ‘मर्यादा तोड़ने’ की होड़ में शामिल है। एक दूसरे के लिए ऐसे-ऐसे शब्दों का इस्तेमाल किया जा रहा है, जिन्हें सुनकर ‘गालियां’ भी शरमा जाएं। बिहार एवं उत्तरप्रदेश के चुनावों में भले ऐसा होता रहा हो लेकिन मप्र की राजनीतिक संस्कृति ऐसी कभी नहीं रही। व्यक्तिगत टीका-टिप्पणियों के साथ ‘बे सिर-पैर’ के आरोप लगाए जा रहे हैं। दलाल, ठग, भ्रष्ट, दुष्ट, रावण, चांडाल, चुन्नू-मुन्नू, नन्नू, जयचंद, आइटम, जलेबी जैसी उपमाओं से बड़े नेताओं को नवाजा जा रहा है। इससे जनता से जुड़े जरूरी मुद्दे परिदृष्य में चले गए हैं। इनका स्थान नेताओं की अभद्र भाषा ने ले लिया है। शायद नेता नहीं जानते कि जनता का बहुमत ऐसी भाषा पसंद नहीं करता। इसका खमियाजा भुगतना पड़ सकता है।
बीमारी में मदद पर श्रेय लेने की बेशर्म होड़….
राजनीति में गंदगी की बदौलत नेता मौत और बीमारी पर भी राजनीतिक रोटियां सेकने से बाज नहीं आते। सागर का ही एक उदाहरण ले लीजिए। पान का ठेला लगाने वाले मिथलेश चौरसिया की बच्ची गंभीर रूप से बीमार है। उसके इलाज के लिए लगभग 15 लाख रुपए की जरूरत थी। यह खबर जैसे ही फैली सबसे पहले स्वयंसेवी संगठन, पत्रकार एवं अन्य समाजों के लोग सामने आए और प्रयास कर लगभग 8 लाख इकट्ठे कर बच्ची के पिता को दे दिए। अब भी 7 लाख रुपए की जरूरत थी। बीमारों एवं गरीबों की मदद के लिए चर्चित प्रदेश के लोक निर्माण मंत्री गोपाल भार्गव तक यह खबर पहुंची। उन्होंने तत्काल मुख्यमंत्री के नाम नोटशीट भेजकर 7 लाख रुपए मदद देने का आग्रह किया। उनका आग्रह स्वीकार कर मुख्यमंत्री ने 7 लाख रुपए स्वीकृत कर राशि दिल्ली के अपोलो अस्पताल पहुंचा दी। अब राजनीति का खेल देखिए। सागर के एक विधायक ने मुख्यमंत्री के स्वीकृत पत्र को सोशल मीडिया में जारी कर यह जताने की कोशिश की यह राशि उनके प्रयास से स्वीकृत हुई है। भला बीमारी में मदद पर श्रेय लेने की इस होड़ की क्या जरूरत थी। पर राजनीति है ही ऐसी। इसीलिए कोई सज्जन इस दलदल में नहीं फंसना चाहता।