अजय बोकिल
मैं न तो दीवानगी की हद तक क्रिकेट प्रेमी हूं, न किसी भी खेल को महज खेल भावना से खेलने या देखने का आग्रही हूं और न ही खेल को ‘युद्ध का प्रतिरूप’ मानने वाला दूराग्रही हूं। अलबत्ता क्रिकेट और वो भी विश्व कप क्रिकेट जैसे टूर्नामेंट को देशप्रेमी के नाते जरूर देखता और समझता आया हूं। वैसे भी अगर आप को आउट, बोल्ड, रन तथा चौके-छक्के जैसे चंद शब्दों का भी अर्थ पता हो तो आप घंटों क्रिकेट में टाइम पास कर सकते हैं। इसमें भी टी-20 जैसे क्रिकेट फार्मेट में सुविधा यह है कि यह आपको ज्यादा सोचने-समझने का वक्त नहीं देता।
इसमें बल्लेबाज या तो रन बनाने की जल्दी में होता है या फिर पेवेलियन में लौटकर आराम करने की। बाॅलरों की स्थिति भी कुछ ऐसी ही होती है, वो या तो पिटते जाते हैं या फिर अगली टीम को आउट करते जाते हैं। गेंद और बल्ले में मचे इस घमासान को बाकी फील्डर अपने हिसाब से ‘एंज्वाय’ करते रहते हैं। इस बार विराट कोहली के नेतृत्व में जो टीम यूएई में सातवां आईसीसी टी-20 वर्ल्ड कप टूर्नामेंट खेलने गई है, उससे ज्यादा विरक्त और निरपेक्ष भाव से खेलने वाली भारतीय टीम मैंने आज तक नहीं देखी। यानी ‘ना इज्जत की चिंता न फिकर किसी अपमान की, जय बोलो…!’
अपने पहले ग्रुप मैच में पाकिस्तानी टीम से पिटने पर िजतना गम और गुस्सा भारत में दिखा, भारतीय टीम में उसका दसवां भी नजर नहीं आया। जिस अदा से वो पाकिस्तान की उस टीम से खेली, जिसे टूर्नामेंट के पहले बहुत दमदार नहीं माना जा रहा था, उसी अदा से भारतीय क्रिकेट टीम अपेक्षाकृत ज्यादा ताकतवर न्यूजीलैंड की टीम से भी खेली। फर्क इतना पड़ा कि पाकिस्तान ने हमे 10 विकेटों से मात दी तो न्यूजीलैंड के साथ मैच में अपनी हार का यह अंतर घटाकर 8 विकेट हो गया। अब टूर्नामेंट में आगे भारतीय टीम का भगवान ही मालिक है।
अति आशावादी अभी भी गुणा-भाग लगाकर ‘ऐसा हुआ तो वैसा हो जाएगा’, टाइप भविष्यवाणियां कर रहे हैं, जिसके हकीकत में बदलने का रिमोट केवल ‘चमत्कार’ के पास ही है। दूसरी तरफ क्रिकेट विश्लेषक हमे हमारी टीम के हार का ‘औचित्य’ समझाने की जी-तोड़ कोशिश कर रहे हैं। इसमें एक मजेदार तर्क खिलाडि़यों की ‘बाॅडी लैग्वेंज’ सही न होने का है। ‘सही न होना’ बोले तो इंडियन प्लेयर्स में कहीं भी ‘करो या मरो’ का भाव दिखाई नहीं पड़ा। समझना मुश्किल है कि कोई भी मैच या मोर्चा ‘बाॅडी लैंग्वेज’ से कैसे फतह किया जाता है? क्या बाॅडी लैंग्वेज नतीजा तय करती है या नतीजा बाॅडी लैंग्वेज को पारिभाषित करता है?
विजय की इबारत टीम की बाॅडी लैंग्वेज से ज्यादा जीत की जिद और जुनून मिलकर रचते हैं। इस भारतीय क्रिकेट टीम में कहने को बड़े-बड़े नाम जरूर हैं, लेकिन दर्शन सबके खोटे ही साबित हो रहे हैं। इसके विपरीत पाकिस्तान और न्यूजीलैंड टीमो के खेल में जीत की जिद और सुनिश्चित रणनीति साफ दिखाई दे रही थी। जीत का यह जुनून खेल के हर डिपार्टमेंट यानी बल्लेबाजी, गेंदबाजी, फील्डिंग में नजर आ रहा था। जबकि भारतीय टीम तफरीह के लिए दुबई गई ज्यादा लगती है।
भारतीय टीम की हार को ‘नियति’ ठहराने वाले जो कारण िगनाए जा रहे हैं, उनमें अोपनिंग जोड़ी बेवजह बदल देना, फ्लाॅप और ‘अनफिट’ आॅल राउंडर हार्दिक पांड्या को फिर मैदान में उतारना, कथित ‘ट्रंप कार्ड’ स्पिनर वरूण चक्रवर्ती को रायता फैलाने का भरपूर मौका देना, कप्तान का टीम पर कोई नियंत्रण न दिखना और न्यूजीलैंड के साथ मैच में भारतीय बल्लेबाजों द्वारा देर तक बाउंड्री लगाने में भी सहज संकोच बरतना इत्यादि शामिल हैं।
टीम, और वो भी वर्ल्ड कप खेलने वाली टीम में कोई रणनीति, संकल्प और जीतने की इच्छाशक्ति न हो तो ‘सफेद हाथी’ किसी काम के नहीं होते। पाकिस्तान के साथ मैच में तो तय था कि यह दो शत्रु देशों के बीच प्रच्छन्न युद्ध, हिंदू-मुस्लिम विभाजन और दोनो तरफ ‘हर हाल में जीत’ के दुराग्रह में लिपटा होगा। भारत वैसे भी आतंकवाद को खुला प्रश्रय देने के कारण पाकिस्तान के साथ कोई भी खेल सम्बन्ध 12 साल से स्थगित किए हुए है। लेकिन वर्ल्ड कप में आंतकवाद को राजनीतिक हथियार बनाना घाटे का सौदा साबित हो सकता था, इसलिए टी-20 वर्ल्ड कप में विराट की टीम पाकिस्तान के बाबर आजम की टीम से भिड़ी और पिट के पेवेलियन में आकर सुस्ताने लगी।
अब तो लगता है कि जो लोग टी-20 वर्ल्ड से पहले ही भारत को पाकिस्तान के साथ नहीं खेलने देने की दुहाई इसलिए दे रहे थे क्योंकि आंतकवाद के मामले में पाक के रवैए में कोई बदलाव नहीं आया है, उन ‘दूरदर्शियों’ के पास अंदरखाने यह खबर जरूर रही होगी कि टीम दुबई जाकर भी पिटने ही वाली है। लिहाजा उन्होंने पहले ही माहौल बनाने की एक ईमानदार लेकिन असफल कोशिश जरूर की। मोदी सरकार अगर उनकी मान लेती तो शायद यूं शर्म से सिर झुकाने की नौबत ही नहीं आती। वैसे हमारी टीम की कुछ मदद कोरोना ने भी की है। तयशुदा कार्यक्रम के हिसाब ये यह टी 20 वर्ल्ड कप पिछले साल भारत में होना था। लेकिन कोरोना की वजह से यूएई में हो रहा है। यहां होता तो भारत-पाक मैच के बाद पता नहीं क्या होता ?
जैसी कि संभावना थी, पाक से करारी हार के बाद सोशल मीडिया पर भारतीय टीम की ट्रोलिंग का कर्मकांड पूरे जोर से शुरू हुआ। इसके विपरीत ग्रुप मैच में अगर पाक टीम हार जाती तो शायद बहुत फर्क नहीं पड़ता क्योंकि वो 29 सालों से वर्ल्ड कप में हमसे हारती ही आ रही है तथा पहली बार और वो भी धमाकेदार तरीके से जीती है। उधर पाकिस्तान के एक मंत्री ने क्रिकेट में पाक टीम की जीत को ‘इस्लाम की जीत’ जैसा विवादास्पद बयान दिया तो भारत में भारतीय टीम के बाॅलर मोहम्मद शमी पर हार का ठीकरा फोड़ने की निंदास्पद कोशिश की गई।
यह सही है कि पाक के साथ मैच में शमी सबसे महंगे बाॅलर साबित हुए, लेकिन शमी ही क्यों, दूसरे किसी बाॅलर की गेंद भी पाक का कोई विकेट नहीं उखाड़ सकी। हकीकत यही पाकिस्तान और न्यूजीलैंड की टीमे वर्ल्ड कप में वर्ल्ड कप की भावना से ही खेल रही हैं, भारतीय टीम जैसी बेफिकरी के अंदाज में नहीं।
क्रिकेट की मामूली समझ रखने वाले मुझ जैसे दर्शक को उम्मीद थी कि पाकिस्तान से मैच वाली गलतियां विराट की टीम कम से कम न्यूजीलैंड के साथ नहीं दोहराएगी। हारेंगे भी तो इज्जत के साथ। ‘उम्मीद’ से तात्पर्य सिर्फ इतना था कि बल्लेबाज अच्छे से रन बनाएंगे, गेंदबाज रन कम देंगे और ज्यादा विकेट लेंगे, फील्डर चौकों-छक्कों वाले शाॅट यथा संभव नाकाम करेंगे और हाथ आए कैच को हाथ से जाने नहीं देंगे। विकेट कीपर हर बाॅल पर चीते-सी नजर रखेंगे। और अम्पायर सही फैसले देंगे।
लेकिन ये तमाम अपेक्षाएं भारतीय टीम के बजाए पाकिस्तान और न्यूजीलैंड के क्रिकेटर पूरी करते दिखे। भारतीय खिलाडि़यों का ध्यान शायद इस बात में ज्यादा था कि आईपीएल की नवघोषित दो टीमों में िकस-किस को जगह मिलती है। इसके पीछे खिलाडि़यों का दोष कम, पैसे की महिमा ज्यादा है। आज से 14 साल पहले जब आईपीएल शुरू हुआ था, तब माना गया था कि यह भारतीय क्रिकेटरों को ‘प्रोफेशनल’ बनाने में मदद करेगा। महेन्द्रसिंह धोनी के नेतृत्व में 2011 का वन डे वर्ल्ड कप जीतने वाली भारतीय क्रिकेट की कामयाबी में आईपीएल को भी एक बड़ा कारण माना गया था। लेकिन उसके बाद भारतीय क्रिकेटर आईपीएल में ही इतने धंस गए हैं कि उन्हें बाकी कुछ शायद ही नजर ही आता है। वैसे भी विराट कोहली आईपीएल में सबसे ज्यादा रन बनाने वाले खिलाड़ी हैं।
आईपीएल के बारे में अपना शुरू से मानना रहा है िक यह क्रिकेट कम, करंसी का खेल ज्यादा है। ऐसा नहीं है कि इसके पहले भारतीय क्रिकेट टीम का परफार्मेंस इतना ‘पुअर’ कभी नहीं रहा हो, लेकिन यह बात तो एक आम क्रिकेटप्रेमी भी समझ रहा है कि कप्तान ‘विराट’ की अगुवाई में जो भारतीय टीम गई है, वो वास्तव में ‘वामन’ टीम है। जुझारूपन के हिसाब से, बाॅडी लैंग्वेज के लिहाज से, जिद और जुनून की दृष्टि से और कप्तान, कोच और टीम में आपसी तालमेल के हिसाब से भी। लगता है हर खिलाड़ी अपनी खिचड़ी पकाने में लगा है।
वो खेलने इसलिए गए हैं कि उन्हें भेजा गया है, वरना मन तो आईपीएल में रमा है। माल है तो ताल है। वर्ल्ड कप की जीत-हार में क्या रखा है। ‘विराट’ खुद बेहतरीन बल्लेबाज हैं, लेकिन क्रिकेट के सुपरस्टार होने के बाद भी कोई ट्राॅफी उनके नाम नहीं है। इसके पीछे भी कुछ कारण होगा। ट्राॅफी तो दूर, इस टी 20 वर्ल्ड कप में वो अभी तक ‘टाॅस’ भी नहीं जीत पाए हैं। क्या यह भी मात्र संयोग है?