भोपाल पर स्थाई कर्ज छोड़ गये हैं डाक्टर एन पी मिश्रा

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कमलेश पारे

कोई भी व्यक्ति जब अपनी पूरी क्षमता से या उससे भी आगे जाकर अपने समाज और शहर के लिए काम करता है,तो वह उसका कर्तव्य जरूर होता है,लेकिन वह उस समाज और शहर पर एक कर्ज भी छोड़ देता है। ठीक ऐसे ही 5 सितंबर को हमसे विदा हुए डॉक्टरों के डॉक्टर और डॉक्टरों की तीन पीढ़ियों के शिक्षक डॉ एन पी मिश्रा ने अपने शहर पर एक बहुत बड़ा कर्ज भी छोड़ा है,जिसे चुकाने की क्षमता हममें शायद कभी न आ पाए। याद कीजिए 2 और 3 दिसम्बर’1984 की दरमियानी रात। पुराने शहर की हर बस्ती और हर गली में मौत नंगी होकर नाच रही थी। लोग मक्खियों और मच्छरों की तरह गिरकर मर रहे थे।

तबके महात्मा गांधी मेडिकल कालेज के डीन और हमीदिया अस्पताल में चिकित्सा सेवाओं के प्रमुख डॉ एन पी मिश्रा उस दिन किसी शादी समारोह से घर लौटे थे,और उन्हें यूनियन कार्बाईड के जनरल मैनेजर मुकुंद का फोन आया  कि सर एक आपात स्थिति आ चुकी है। डाक्टर मिश्रा ने तब कपड़े भी नहीं बदले थे। मिश्रा जी के मुंह से तत्काल एक शब्द निकला “फाॅस्जीन”। क्योंकि इसके पिछले साल वे इस मारक गैस से पीड़ित यूनियन कार्बाइड के ही एक कर्मचारी मोहम्मद अशरफ का इलाज कर उसे बचा नहीं पाए थे।

सामने से आवाज आई नहीं। ‘मिथाइलआइसोसाइनेट'(एमआईसी)।

डॉ मिश्रा के लिए उस दिन यह एक नया नाम था,क्योंकि यूनियन कार्बाईड प्रबंधन ने स्थानीय चिकित्सक समुदाय को कभी इसकी सूचना नहीं दी थी कि वे इस तरह की किसी मारक गैस का अपने कारखाने में उपयोग कर रहे हैं,और इससे होने वाली किसी दुर्घटना की स्थिति में क्या इलाज हो सकता है। वे इसके लिए कानूनी रूप से बाध्य थे। उधर हमीदिया अस्पताल में आपातकालीन ड्यूटी पर तैनात दो युवा डॉक्टर दीपक गंध्ये व मोहम्मद शेख ने देखा कि जानलेवा खांसी,मितली,उल्टी और आंखों में जलन लेकर मरीजों का भयंकर रेला चला आ रहा है। उन्होंने अपनी क्षमता तक इलाज किया व घबरा कर अपने गुरू और पालक डाक्टर एन पी मिश्रा को सूचना दी।

डाक्टर साहब ने आकर तत्काल टेलीफोन एक्सचेंज को फोन किया,क्योंकि तब एक्सचेंज से ही दूसरे शहरों के लिये या अंतर्राष्ट्रीय काल लगते थे। ‘काल’ का मिल जाना भी तब बहुत आसान नहीं होता था। डॉ मिश्रा ने कॉल लगते ही “हैलो” कहा तो वहां उपस्थित टेलिफोन ऑपरेटर जमील इशाक़ तुरंत वह आवाज पहचान गए,और उन्होंने कहा कि सर,आपने मेरा इलाज कर मेरी जान बचाई है, इसलिए आज आपके लिए मैं जान दे दूंगा,पर आपके बताए हुए सब कॉल लगाकर ही दूंगा। उस दिन वहां ड्यूटी पर  जमील इशाक़ के दूसरे साथी आपरेटर थे संतोष विनोबाद।

डाक्टर मिश्रा ने उस दिन एक घंटे से कम समय में विश्व स्वास्थ्य संगठन के जेनेवा कार्यालय सहित सारी दुनिया से सम्पर्क कर एमआईसी के प्रभाव से बचने के इलाज तो पूछे ही सबको कहा कि  जितनी जल्दी सम्भव हो,जितनी मात्रा में सम्भव हो, उतनी दवाइयां हमें भेज दें। इसी तरह मध्य प्रदेश के सभी मेडिकल कॉलेजों के डीन्स को रात में ही उठाकर कहा कि जितने संभव हों उतने डॉक्टर भोपाल के लिए आपके पास उपलब्ध दवाओं के साथ भेज दें।  सारी प्रमुख दवा कंपनियां,जो इस तरह के इलाज में काम आने वाली दवाइयां बनाती थीं को कहा कि वे अपना सारा का सारा ‘स्टॉक’ हमीदिया अस्पताल में भेज दें।

इसी बीच कब उन्हें समय मिला होगा। लेकिन वे पूरी तेजी से दौड़ कर अपने कॉलेज की हॉस्टल में गए । विद्यार्थियों से कहा “बच्चों अभी तुम्हारे पास तैयार होने का भी टाइम नहीं है,तुम जैसे हो वैसे ही अस्पताल पहुंचो, क्योंकि संकट बहुत बड़ा है। उस दिन उनको दौड़ते हुए जिन्होंने भी देखा वे आश्चर्यचकित हो गए थे क्योंकि डॉ मिश्रा एक धीर-गंभीर और धीमी चाल से चलते हुए ही सब को दिखे थे। उन्होंने शहर के सबसे बड़े टेंट व्यवसायी महमूद परवेज से कहा कि उनके पास व शहर में जितने भी टेंट,कनात और दरियां हैं हमीदिया अस्पताल ले आएं।इलाज के मामले में महमूद परवेज भी डॉक्टर साहब का एहसान मानते थे इसलिए उन्होंने मरीजों की संख्या को देखते हुए व्यवस्था सुबह होते होते कर दी थी।

अस्पताल परिसर में मरीजों की बहुत बहुत बड़ी संख्या को देखकर उनके भोजन की व्यवस्था भी जरूरी थी।इसी चिंता में डॉ मिश्रा ने शहर के सबसे बड़े भोजन-प्रदाता ‘अग्रवाल पूड़ी भंडार’ से यह व्यवस्था करने की बात की तो ईश्वर के बंदे उस व्यापारी ने कहा कि  सर,हम पर आपके एहसान हैं -“आप कहेंगे तो मैं पूरे शहर को एक महीने तक अबाध भोजन करा सकता हूं। उस रात और उस हफ्ते की दर्द भरी हजारों कहानियां हैं। लेकिन, डॉ मिश्रा से जुड़ी हुई ये कहानियां हमें शहर और समाज के रूप में उनका ताजिंदगी एहसान मानने के लिए मजबूर करती हैं। ऊपर जो भी लिखा हुआ है, उसे इन शब्दों से हजार गुना मार्मिक शब्दों में एक पुस्तक ‘फाइव पास्ट मिडनाइट एट भोपाल’ में लिखा गया है।