देश में जब भी एक संजीदा और कर्तव्यनिष्ठ राजनेता की चर्चा चलेगी उसमें एक नाम होगा स्वर्गीय माधवराव सिंधिया का। (जन्म 10 मार्च 1945 को मुंबई में, निधन 30 सितंबर 2001 को मैनपुरी में) 1971 से संसदीय राजनीति में इस अपराजेय योद्घा को सिर्फ मौत ही हरा सकी। कीमत-वसूल दौर में वे मूल्यों की राजनीति करने वालों में से विरले थे। लालबहादुर शास्त्रीजी की तरह एक रेल दुर्घटना की जिम्मेदारी लेते हुए मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया था। आज के नेतागण तो इस्तीफा देना दूर लाशों की ढेर पर खड़े होकर माला-सेल्फी से भी परहेज नहीं करते।
मेरी उनसे कुलजमा दो मुलाकातें हुईं। पहली जब केंद्रीयमंत्री रहते हुए वे और मोतीलाल वोराजी 1988 में प्रदेश दौरा करते विंध्य में पड़ाव डाला। अर्जुन सिंह के मुख्यमंत्री रहते हुए इस दौरे को मीडिया ने राष्ट्रीय सुर्खियों में रखा था। सिंधिया इतने बड़े नेता होते हुए भी अपने छोटों से न सिर्फ अपना फीडबैक पूछते थे बल्कि उसकी राय को भी महत्व देते थे। डिनर पर उन्होंने विंध्य की राजनीति की अंदरूनी कथा तो मेरी जुबान से सुनी ही, 1984 से रीवा-सतना की बंद पड़ी रेल परियोजना पर मेरी फरियाद भी सुनी।
विंध्यवासियों को शुक्रगुज़ार होना चाहिए कि सिंधियाजी की पहल और मानीटरिंग के चलते रीवा-सतना रेल लाईन रिकार्ड समय पर लोकार्पित हो पाई। उन्होंने भूमिपूजन के दिन ही इस परियोजना को पूरा करने की मियाद घोषित कर दी थी। दूसरी मुलाकात 1997 में तब जब रीवा भीषण बाढ़ से घिरा हुआ था। उन्होंने स्वयं फोनकर सर्किट हाउस आमंत्रित किया और मुझसे हुई बातचीत के आधार पर नोट्स तैयार की फिर उसे तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह को बाढ़ की विभीषिका को लेकर लिखा।
इतना संजीदा और यथार्थ के धरातल पर राजनीति करने वाला अब शायद कोई मिले। इस दौरान कार्यकर्ता की मोटरसाइकिल पर सवार होकर वहां-वहां पहुंचे जहाँ प्रशासन भी नहीं पहुँच पाया था। वे कांग्रेस की राजनीति के ऐसे सूर्य थे जो दोपहर को ही अस्त हो गए। 1984 का लोकसभा चुनाव उनके जीवन की बड़ी अग्निपरीक्षा थी जब उनकी अम्मा हजूर राजमाता विजयाराजे सिंधिया ने उनके मुकाबले भाजपा के शीर्ष नेता अटलबिहारी वाजपेयी को खड़ा कर दिया और खुद ही चुनाव अभियान की बागडोर थाम ली।
जनसत्ता के पहले पन्ने पर काक का वह कार्टून आज भी स्मृतिपटल पर है जिसमें राजमाता एक बेबीकार्ट में अटलजी को बिठाए गली-गली वोट माँग रही हैं। यह चुनाव भी सिंधिया जी ने भारी मतों के अंतर से जीता था। सिंधिया ने 1971 का चुनाव जनसंघ की टिकट पर लड़ा, 77 में वे निर्दलीय चुनकर संसद पहुंचे। 80 का चुनाव कांग्रेस से लड़ा। नरसिंराव ने 96 में उनकी टिकट काट दी तो सिंधियाजी ने विकास कांग्रेस बना ली उसी से लड़े और लोकसभा पहुँचे। वे अपराजेय थे, एक महाराजा आम आदमी को अभीष्ट मानकर ऐसी भी मूल्यपरक राजनीति कर सकता है वे इसके अद्वितीय उदाहरण थे। आज उनका पुण्यस्मरण दिवस है.. आइए उन्हें याद करते हुए नमन करें।
लेखक – जयराम शुक्ल