शरद जोशी
लोग तो मरते रहते हैं –जो हो रहा है ,वह कोई नई बात नहीं है ,यद्यपि यह सब कोई पुरानी बात भी नहीं है ! ये चिंता नहीं सूचना है | हाथी के दिखाने के दांत की तरह प्रकट करने के लिए दुःख काफी होता है | और वाक्य रचनाओं के ड्राफ्ट इतने सुनिश्चित और साइक्लोस्टाइल किए रखे हैं कि लोगों की कहीं मरने भर की देर है फ़ौरन नाम ,समय ,जगह आदि लिखकर शोक सन्तप्तों के प्रति संवेदना प्रकट कर दी जाती है | लोग यों तो संतप्त होते ही हैं ,दुर्घटना होने पर वो शोक संतप्त हो जाते हैं |
लोग मरते हैं ,चूंकि वे मरने के लिए ही होते हैं ,इसलिए ये निर्णय भी उनपर छोड़ दिया जाता है कि वो कैसे कहाँ मरें | सरकार तो रात को चैन की नींद सोती है और सुबह उठने पर पूछती है आज लोग कैसे-कहाँ मरे ? कितने मरे ?
यूँ ऐसी खबर पढ़कर सरकारी हैलीकॉप्टर को चलानेवाला फ़ौरन ही पैट्रोल भरने लगता है |