नेताजी की अनसुनी कहानी

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By Ayushi JainPublished On: January 23, 2022
Subhash Chandra Bose

23 जनवरी 1897 (23 january 1897) को उड़ीसा (Odisha) के कटक शहर में पिता जानकीनाथ बोस और माता प्रभावती देवी के घर शुभाष चॉन्द्रो बोशु (Subhash Chandra Bose) (बांग्ला: সুভাষ চন্দ্র বসু ) का जन्म हुआ, प्रभावती और जानकीनाथ बोस की कुल मिलाकर 14 सन्तानें थी जिसमें 6 बेटियाँ और 8 बेटे थे। सुभाष उनकी नौवीं सन्तान और पाँचवें बेटे थे। कटक के प्रोटेस्टेण्ट स्कूल से प्राइमरी शिक्षा पूर्ण कर 1909 में उन्होंने रेवेनशा कॉलेजियेट स्कूल में दाखिला पन्द्रह वर्ष की आयु में ही सुभाष ने विवेकानन्द साहित्य का पूर्ण अध्ययन कर लिया था, 1916 में जब वे दर्शनशास्त्र (ऑनर्स) में बीए के छात्र थे किसी बात पर प्रेसीडेंसी कॉलेज के अध्यापकों और छात्रों के बीच झगड़ा हो गया सुभाष ने छात्रों का नेतृत्व सम्हाला जिसके कारण उन्हें प्रेसीडेंसी कॉलेज से एक साल के लिये निकाल दिया गया और परीक्षा देने पर प्रतिबन्ध भी लगा दिया बाद में सुभाष ने खूब मन लगाकर पढ़ाई की और 1919 में बीए (ऑनर्स) की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। कलकत्ता विश्वविद्यालय में उनका दूसरा स्थान था।


पिता की इच्छा थी कि सुभाष आईसीएस बनें, उस समय उनकी आयु को देखते हुए केवल एक ही बार में यह परीक्षा पास करनी थी, 15 सितम्बर 1919 को परीक्षा की तैयारी के लिये वो इंग्लैण्ड चले गये और 1920 की ICS परीक्षा में वरीयता सूची में चौथा स्थान प्राप्त किया, ऐसे जूनूनी और आत्मविश्वास से पूर्ण थे नेताजी, जो ठान लिया वो करके दिखाया । लेकिन उनका मन तो स्वामी विवेकानन्द और महर्षि अरविन्द घोष के आदर्शों में रमा हुआ था ऐसे में आईसीएस बनकर वह अंग्रेजों की गुलामी कैसे कर पाते अत: 22 अप्रैल 1921 आईसीएस से त्यागपत्र दे दिया यह समाचार मिलते ही उनकी माँ प्रभावती ने कहा “पिता, परिवार के लोग या अन्य कोई कुछ भी कहे उन्हें शुभाष के इस फैसले पर गर्व है” अंतत: जून 1921 में मानसिक एवं नैतिक विज्ञान में ट्राइपास (ऑनर्स) की डिग्री के साथ सुभाष देश सेवा के लिए स्वदेश वापस लौट आये। 1937 में एमिली शेंकल से उनका विवाह हुआ और उनकी अनीता नाम की बेटी हुई थी।

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1939 में उन्होने “मेन ऑल इंडिया फार्वर्ड ब्लाक” की स्थापना की, द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान, अंग्रेज़ों के खिलाफ लड़ने के लिये, उन्होंने जापान के सहयोग से आज़ाद हिन्द फौज का गठन किया था, 1940 में जब हिटलर के बमवर्षक लंदन पर बम गिरा रहे थे, ब्रिटिश सरकार ने अपने सबसे बड़े दुश्मन सुभाष चंद्र बोस को 2 जुलाई, 1940 को देशद्रोह के आरोप में गिरफ़्तार कर कलकत्ता की प्रेसिडेंसी जेल में कैद कर रखा 29 नवंबर, 1940 को सुभाष चंद्र बोस ने जेल में अपनी गिरफ़्तारी के विरोध में भूख हड़ताल शुरू कर दी थी। एक सप्ताह बाद 5 दिसंबर को गवर्नर जॉन हरबर्ट ने एक एंबुलेंस में बोस को उनके घर भिजवा दिया ताकि अंग्रेज़ सरकार पर ये आरोप न लगे कि उनकी जेल में बोस की मौत हुई है। हरबर्ट का इरादा था कि जैसे ही बोस की सेहत में सुधार होगा वो उन्हें फिर से हिरासत में ले लेंगे।

बंगाल की सरकार ने न सिर्फ़ उनके 38/2 एल्गिन रोड के घर के बाहर सादे कपड़ों में पुलिस का कठोर पहरा बैठा दिया था बल्कि ये पता करने के लिए भी अपने कुछ जासूस छोड़ रखे थे कि घर के अंदर क्या हो रहा है, उनको भारत से गुप्त रूप से निकलने में उनके भतीजे शिशिर के नेतृत्व में योजना बनी कि शिशिर अपने चाचा को देर रात अपनी कार में बैठा कर कलकत्ता से दूर एक रेलवे स्टेशन तक ले जाएंगे। सुरक्षित निकलने की तैयारियो के लिए मध्य कलकत्ता के वैचल मौला डिपार्टमेंट स्टोर से बोस के भेष बदलने के लिए कुछ ढीली सलवारें और एक फ़ैज़ टोपी ख़रीदी गई, अगले कुछ दिनों में एक अटैची, दो कार्ट्सवूल की कमीज़ें, टॉयलेट का कुछ सामान, तकिया और कंबल ख़रीदा।

एक प्रिटिंग प्रेस से सुभाष के लिए मोहम्मद ज़ियाउद्दीन, बीए, एलएलबी, ट्रैवलिंग इंस्पेक्टर, द एम्पायर ऑफ़ इंडिया अश्योरेंस कंपनी लिमिटेड, स्थायी पता, सिविल लाइंस, जबलपुर नाम से विज़िटिंग कार्ड छपवाये गए, अंग्रेज़ों को धोखा देने के लिए सुभाष के निकल भागने की योजना घर वालों, यहाँ तक कि उनकी माँ से भी से छिपाई गई. सुभाष के पुराने सूटकेस पर लिखे हुए उनके नाम एससीबी को मिटा कर उसके स्थान पर चीनी स्याही से एमज़ेड लिखा गया। जब सारा कलकत्ता गहरी नींद में था, चाचा और भतीजे ने लोअर सरकुलर रोड, सियालदाह और हैरिसन रोड होते हुए हुगली नदी पर बना हावड़ा पुल पार किया।

दोनों चंद्रनगर से गुज़रे और भोर होते-होते आसनसोल के बाहरी इलाके में पहुंच गए. सुबह क़रीब साढ़े आठ बजे शिशिर ने धनबाद के बरारी में अपने भाई अशोक के घर से कुछ सौ मीटर दूर सुभाष को कार से उतारा अशोक के घर से देर रात सुभाष गोमो स्टेशन से कालका मेल पकड़ कर दिल्ली पहुंचे फिर वहाँ से उन्होंने पेशावर के लिए फ़्रंटियर मेल पकड़ी। 19 जनवरी की देर शाम जब फ़्रंटियर मेल पेशावर के केंटोनमेंट स्टेशन में घुसी तो मियाँ अकबर शाह बाहर निकलने वाले गेट के पास खड़े थे। अकबर शाह उनके पास गए और उनसे एक इंतज़ार कर रहे ताँगे में बैठने के लिए कहा. उन्होंने ताँगे वाले को निर्देश दिया कि वो इन साहब को डीन होटल ले चले। फिर वो एक दूसरे ताँगे में बैठे और सुभाष के ताँगे के पीछे चलने लगे, रास्ते में उनके ताँगेवाले ने कहा कि आप इतने मज़हबी मुस्लिम शख़्स को विधर्मियों के होटल में क्यों ले जा रहे हैं।

subhash chandra bose

आप उनको क्यों नहीं ताजमहल होटल ले चलते जहाँ मेहमानों के नमाज़ पढ़ने के लिए जानमाज़ और वज़ू के लिए पानी भी उपलब्ध कराया जाता है, और इस तरह एक बड़ी चूक होने से बच गई क्योंकि डीन होटल में पुलिस के जासूसों के होने की संभावना ज्यादा थी अगले दिन सुभाष चंद्र बोस को आबाद ख़ाँ के घर पर शिफ़्ट कर दिया। सुभाष स्थानीय पश्तो भाषा बोलना नहीं जानते थे अत: सुभाष ने बहरे होने का ढोंग रचा, सुभाष के पेशावर पहुँचने से पहले ही तय कर लिया गया था कि फ़ॉरवर्ड ब्लॉक के दो लोग, मोहम्मद शाह और भगतराम तलवार, बोस को सीमा पार कराएंगे, भगत राम का नाम बदल कर रहमत ख़ाँ कर दिया गया। तय हुआ कि वो अपने गूँगे बहरे रिश्तेदार ज़ियाउद्दीन को अड्डा शरीफ़ की मज़ार ले जाएँगे जहाँ उनके फिर से बोलने और सुनने की दुआ माँगी जाएगी, 26 जनवरी, 1941 की सुबह मोहम्मद ज़ियाउद्दीन और रहमत ख़ाँ एक कार में रवाना हुए।

दोपहर तक उन्होंने तब के ब्रिटिश साम्राज्य की सीमा पार कर ली, वहाँ उन्होंने कार छोड़ उत्तर पश्चिमी सीमाँत के ऊबड़-खाबड़ कबायली इलाके में पैदल चलते हुए 27-28 जनवरी की आधी रात अफ़ग़ानिस्तान के एक गाँव में पहुँचे। वहाँ से चाय के डिब्बों से भरे एक ट्रक में लिफ़्ट ली और 28 जनवरी की रात जलालाबाद पहुँच गए। अगले दिन उन्होंने जलालाबाद के पास अड्डा शरीफ़ मज़ार पर ज़ियारत की। 30 जनवरी को उन्होंने ताँगे से काबुल की तरफ़ बढ़ना शुरू किया. फिर वो एक ट्रक पर बैठ कर बुद ख़ाक के चेक पॉइंट पर पहुँचे। वहाँ से एक अन्य ताँगा कर वो 31 जनवरी, 1941 की सुबह काबुल में दाख़िल हुए, इस बीच सुभाष बोस के एल्गिन रोड वाले घर के उनके कमरे में रोज खाना पहुँचाया जाता रहा। वो खाना उनके भतीजे और भतीजियाँ खाते रहे ताकि लोगों को आभास मिलता रहे कि सुभाष अभी भी अपने कमरे में हैं। सुभाष ने शिशिर से कहा था कि अगर वो चार या पाँच दिनों तक मेरे भाग निकलने की ख़बर छिपा गए तो फिर उन्हें कोई नहीं पकड़ सकेगा।

27 जनवरी को एक अदालत में सुभाष के ख़िलाफ़ एक मुकदमें की सुनवाई होनी थी। तय किया गया कि उसी दिन अदालत को बताया जाएगा कि सुभाष का घर में कहीं पता नहीं है, 27 जनवरी को सुभाष के गायब होने की ख़बर सबसे पहले आनंद बाज़ार पत्रिका और हिंदुस्तान हेरल्ड में छपी. इसके बाद उसे रॉयटर्स ने उठाया। जहाँ से ये ख़बर पूरी दुनिया में फैल गई, ये जानकार ब्रिटिश खुफ़िया अधिकारी न सिर्फ़ आश्चर्यचकित रह गए बल्कि शर्मिंदा भी हुए. 31 जनवरी को पेशावर पहुँचने के बाद रहमत ख़ाँ और उनके गूँगे-बहरे रिश्तेदार ज़ियाउद्दीन, लाहौरी गेट के पास एक सराय में ठहरे। इस बीच रहमत ख़ाँ ने वहाँ के सोवियत दूतावास से संपर्क करने की कोशिश की लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली।

तब सुभाष ने जर्मन दूतावास से संपर्क किया उनसे मिलने के बाद काबुल दूतावास में जर्मन मिनिस्टर हाँस पिल्गेर ने 5 फ़रवरी को जर्मन विदेश मंत्री को तार भेज कर कहा, ‘सुभाष से मुलाक़ात के बाद मैंने उन्हें सलाह दी है कि वो भारतीय दोस्तों के बीच बाज़ार में अपने-आप को छिपाए रखें। मैंने उनकी तरफ़ से रूसी राजदूत से संपर्क किया है, बर्लिन और मास्को से उनके वहाँ से निकलने की सहमति आने तक बोस सीमेंस कंपनी के हेर टॉमस के ज़रिए जर्मन नेतृत्व के संपर्क में रहे। इसी बीच एक अफ़ग़ान पुलिस वाले को उन पर शक हो गया, उसको कुछ रुपये और सुभाष की सोने की घड़ी दे कर बमुश्किल पिंड छुड़ाया. ये घड़ी सुभाष को उनके पिता ने उपहार में दी थी। कुछ दिनों बाद सीमेंस के हेर टॉमस के ज़रिए सुभाष बोस के पास संदेश आया कि अगर वो अपनी अफ़ग़ानिस्तान से निकल पाने की योजना पर अमल करना चाहते हैं तो उन्हें काबुल में इटली के राजदूत पाइत्रो क्वारोनी से मिलना चाहिए, 22 फ़रवरी, 1941 की रात को बोस ने इटली के राजदूत से मुलाक़ात की।

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इस मुलाक़ात के 16 दिन बाद 10 मार्च, 1941 को इटालियन राजदूत की रूसी पत्नी सुभाष चंद्र बोस के लिए एक संदेश ले कर आईं जिसमें कहा गया था कि सुभाष दूसरे कपड़ो में एक तस्वीर खिचवाएं. सुभाष की उस तस्वीर को एक इटालियन राजनयिक ओरलांडो मज़ोटा के पासपोर्ट में लगा दिया गया. 17 मार्च की रात सुभाष को एक इटालियन राजनयिक सिनोर क्रेससिनी के घर शिफ़्ट कर दिया गया. सुबह तड़के वो एक जर्मन इंजीनियर वेंगर और दो अन्य लोगों के साथ कार से रवाना हुए. वो अफ़ग़ानिस्तान की सीमा पार करते हुए पहले समरकंद पहुँचे और फिर ट्रेन से मास्को के लिए रवाना हुए. वहाँ से सुभाष चंद्र बोस जर्मनी की राजधानी बर्लिन पहुंचे और इस तरह जेम्स बांड की किसी कहानी जैसी पल पल के अद्भुत रोमांच से भरपूर इस सत्यकथा का सुखद अंत हुआ।

भारत की आजादी की अपनी इस लड़ाई के दौरान नेताजी ने कुछ कालजयी नारे दिये थे, उनके द्वारा दिया गया “जय हिंद” का नारा भारत का राष्ट्रीय नारा बन गया है, “तुम मुझे खून दो मैं तुम्हे आजादी दूँगा” एक सार्वकालिक अद्भुत नारा माना गया है जिसने पूरे भारत में चेतना जगा दी थी, 21 अक्टूबर 1943 को सुभाष बोस ने आज़ाद हिंद फौज के सर्वोच्च सेनापति की हैसियत से स्वतंत्र भारत की अस्थायी सरकार बनायी जिसे जर्मनी, जापान, फिलीपींस, कोरिया, चीन, इटली, मान्चुको और आयरलैंड सहित 11 देशो की सरकारों ने मान्यता दी थी। जापान ने अंडमान व निकोबार द्वीप इस अस्थायी सरकार को दे दिये। 1944 को आज़ाद हिंद फौज ने अंग्रेजों पर दोबारा आक्रमण किया और कुछ भारतीय प्रदेशों को अंग्रेजों से मुक्त भी करा लिया।

कोहिमा का युद्ध 4 अप्रैल 1944 से 22 जून 1944 तक लड़ा गया एक भयंकर युद्ध था। इस युद्ध में जापानी सेना को पीछे हटना पड़ा था और यही एक महत्वपूर्ण मोड़ सिद्ध हुआ। 5 जुलाई 1943 को सिंगापुर के टाउन हाल के सामने ‘सुप्रीम कमाण्डर’ के रूप में सेना को सम्बोधित करते हुए नेताजी ने “दिल्ली चलो” का नारा दिया और जापानी सेना के साथ मिलकर ब्रिटिश व कामनवेल्थ सेना से बर्मा सहित इंफाल और कोहिमा में एक साथ जमकर मोर्चा लिया। 6 जुलाई 1944 को उन्होंने रंगून रेडियो स्टेशन से महात्मा गांधी के नाम एक प्रसारण जारी किया जिसमें उन्होंने इस निर्णायक युद्ध में विजय के लिये उनका आशीर्वाद और शुभकामनाएँ माँगीं थी ।

18 अगस्त 1945 को उनकी मौत की खबर आई थी लेकिन नेताजी की मृत्यु को लेकर आज भी विवाद है। जहाँ जापान में प्रतिवर्ष 18 अगस्त को उनका शहीद दिवस धूमधाम से मनाया जाता है वहीं भारत में रहने वाले उनके परिवार के लोगों का आज भी यह मानना है कि सुभाष की मौत 1945 में नहीं हुई थी ।

आज़ाद हिन्द सरकार के 75 वर्ष पूर्ण होने पर इतिहास में पहली बार वर्ष 2018 में भारत के प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी ने लाल किले पर उसकी याद में तिरंगा फहराया था 23 जनवरी 2022 को नेताजी की 126 वीं जयन्ती है जिसे पूरे देश में पराक्रम दिवस के रूप में मनाया जा रहा है ।

अगस्त 1941 में अपनी मृत्यु से कुछ पहले लिखी अपनी अंतिम कहानी ‘बदनाम’ में रवीद्र नाथ टैगोर ने आज़ादी की तलाश में निकले एक अकेले पथिक की अफ़ग़ानिस्तान के बीहड़ रास्तों से गुज़रने का बहुत मार्मिक चित्रण खींचा था .

– राजकुमार जैन (स्वतंत्र विचारक)

नेताजी की अनसुनी कहानी