सुरेन्द्र बंसल
कुछ समय उनके साथ रहा, लेकिन उनसे जुड़ा तो कभी जुदा ही नहीं हुआ, क्यों ….अवसर तो बहुत थे..चाहे जितना आगे निकल जाते…होता भी यही है..हर कोई अपने अवसर की तलाश में रहता है… लेकिन सीखने की वृत्ति हो और एक समूचा गुरुकुल आपके समक्ष हो तो आप भटकाव में नहीं जी सकते…बहुत कुछ सीखा..पत्रकारिता भी और उनके आदर्श भी….उनकी गुणात्मकता इतनी रच बस गई कि फिर कहीं जाने और काम करने का मन ही नहीं हुआ, लगता था जनसत्ता के अतिरिक्त कोई जगह अपने लिए अनुकूल ही नहीं है . . आखिर प्रभाष दा का संस्कारित प्रवाह भीतर इतना हो गया था कि कहीं और जाना याने सब शून्य कर देना था… दरअसल प्रभाष दा संस्कारित पत्रकारिता की उपज थे , आज जब वे नहीं है हम देख रहे हैं देश में आज भी जहां तहां उनकी यह उपज लहलहा रही है।
प्रभाष दा जब भी इंदौर होते तो उनके कागद कारे की पोस्टिंग मेरी ही जिम्मेदारी होती , वे अक्सर मेरे आने के बाद ही लिखने बैठते , मैं उन्हें लिखते हुए निहारता रहता । जब उनकी कॉपी पूरी हो जाती कभी मुझे देते कहते बंसल साब ( यही सम्बोधन करते) इसे चेक करो। मैं अत्यंत छोटा और सामने आपके महागुरु । बहुत संकोच होता और संकोच से मैं उनकी कॉपी आदर से रख देता…. तब भी वे पढ़वाये बिना नहीं रहते। नतीजा यह हुआ कि मेरी लेखन शैली उनके अनुरूप ढल गयी । मुझे इस बात का बहुत फख्र है।