प्रभाष जी आज होते तो चौरासी बरस के होते। देश की मौजूदा समस्याओं पर उनकी दृष्टि होती। ताकतवर राय होती। वे क्या लिखते यह लिखना मुश्किल है। क्यों कि संतों पर लिखना थोड़ा जोखिम भरा काम है, वजह संत के बारे में आप जितना जानते हैं, उससे कहीं ज्यादा उनके बारे में जानना बाकी रह जाता है। यह अशेष, एक किस्म का रहस्य पैदा करता है। उनका आभामंडल इतना विस्तृत होता है, जिसमें सारा संसार छोटा पड़ जाए। हम दुनियावी लोग उनके सामने सिर्फ श्रद्धा से सिर झुका सकते हैं।
प्रभाषजी को मैंने पत्रकारिता के संत के रूप में देखा। अखबार की दुनिया का एक मलंग साधु, जो धूनी रमाए सत्यं शिवं सुन्दरम् के अनुसंधान में लीन था। उनके साधुत्व में एक शिशु सी सरलता थी। उनकी आँखों में आत्मविश्वास के साथ करुणा-स्नेह की गंगा थी। उनके अद्भुत स्पर्श से मुझ जैसों को लुकाठी हाथ में लेकर सच कहने और सच के लिए किसी से मुठभेड़ करने की हिम्मत तथा ताकत मिलती थी। प्रभाषजी कबीर और कुमार गंधर्व के नजदीक किसी और वजह से नहीं, बल्कि अपनी अक्खड़ता और फक्कड़ता के कारण थे।
प्रभाष जोशी होने का मतलब उसे ही समझाया जा सकता है, जो गांधी, विनोबा, जयप्रकाश, कबीर, कुमार गंधर्व, सी.के. नायडू और सचिन तेंदुलकर होने का मतलब जानता हो। मेरे मित्र प्रियदर्शन का कहना है कि प्रभाषजी इन सबसे थोड़ा-थोड़ा मिलकर बने थे। यानी उनमें तेजस्विता, अक्खड़ता, सुर, लय, एकाग्रता और संघर्ष का अद्भुत समावेश था। कुमार गंधर्व की षष्टिपूर्ति पर प्रभाषजी ने लिखा था। उस प्रभाष जोशी के भाग्य से कोई क्या ईर्ष्या करेगा, जिसकी सुबह कुमारजी की भैरवी से, दोपहर आमीर खाँ की तोड़ी से और शाम सी.के. नायडू के छक्के से होती है। प्रभाषजी अपने गाँव देवास के आष्टा से कुछ बनने नहीं निकले थे, गांधी का काम करने घर से निकले थे। रास्ते में विनोबा मिले। अक्षर-पथ पर राहुल बारपुते मिले। कुमार गंधर्व की सोहबत मिली, गुरुजी विष्णु चिंचालकर का साथ मिला और यहीं के होकर रह गए। शब्द और सच के संधान में ‘प्रजानीति’ और ‘सर्वोदय’ से होते हुए उन्हें रामनाथ गोयनका मिले। गोयनका ने उन्हें एक्सप्रेस में बुलाया। और फिर देश व हिंदी समाज ने जाना प्रभाष जोशी होने का मतलब।
पॉंच नवम्बर २००९ की रात जब रामबहादुर राय जी ने मुझे एक बजे फोन पर बताया कि प्रभाषजी नहीं रहे, तो मेरे पाँव के नीचे से जमीन खिसक गई। सुबह ही उनसे बात की थी। फौरन एम्स पहुँचा तो देखा एंबुलेंस में प्रभाषजी की देह थी। चहरे पर वही चमक, वैसी ही दृढ़ता, जिसे मैं कोई ढाई दशक से देख रहा था। चश्मे के भीतर से झाँकती उनकी आँखें मानो कहने जा रही हैं, ‘पंडित कुछ करो। जो कर रहे हो, वह पत्रकारिता नहीं है।’ लगा पत्रकारिता में व्यावसायिकता के खिलाफ जंग लड़ते-लड़ते वे थककर आराम कर रहे हैं और कह रहे हैं—मैं फिर आऊँगा। लड़ाई अभी अधूरी है।
प्रभाषजी में ऐसा क्या था, जो उन्हें खास बनाता था। गर्व, हौसला और मुठभेड़। उन्हें अपनी परंपरा पर गौरव था। हिंदी समाज पर गर्व था। वे लगातार हिंदी समाज के सम्मान और उसके लेखक की सार्वजनिक हैसियत के लिए अभियान छेडे़ हुए थे। और मुठभेड़… बिना मुठभेड़ के प्रभाषजी के जीवन में गति और लय नहीं होती थी। अकसर फोन पर बातचीत में यही कहते कि पंडित आजकल अपनी मुठभेड़ फलाँ से चल रही है। इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, चंद्रशेखर, विश्व हिंदू परिषद्, भाजपा, बाजारी अर्थव्यवस्था या फिर उदारीकरण, कुछ नहीं तो पत्रकारिता में आई गिरावट ही सही। प्रभाषजी हर वक्त किसी-न-किसी से मुठभेड़ की मुद्रा में होते थे। आखिर कौन सी ताकत थी उनमें, जो पूरा देश एक किए होते थे। आज मणिपुर में, कल पटना में, फिर वाराणसी में हर वक्त ढाई पग में पूरा देश नापने की ललक थी उनमें। सोचता हूँ कैसे एक पेसमेकर के भरोसे उन्होंने ढेर सारे मोरचे खोल रखे थे।वे गांधीवादी निडरता के लगभग आखिरी उदाहरण थे। यही वजह थी कि पचीस साल से डायबिटीज, एक बाईपास सर्जरी, एक पेसमेकर के बावजूद प्रतिबद्धता की कलम और संकल्पों का झोला लिये हमेशा यात्रा के लिए तैयार रहते थे।
प्रभाषजी का नहीं रहना एक बड़े पत्रकार का नहीं रहना मात्र नहीं है। उनका न रहना मिशनरी पत्रकारिता का अंत है। चिंतन-प्रधान पत्रकारिता का अंत है। सच के लिए लड़ने और अड़नेवाली पत्रकारिता का अंत है। वे पत्रकारिता में वैचारिक-विमर्श लौटाने की कोशिश में लगे रहे। शायद इसी वजह से लोक संस्कृति और साहित्य पर पहली बार ‘जनसत्ता’ में उन्होंने अलग से एक-एक पेज तय किए थे। हमारे लिए ‘जनसत्ता’ सिर्फ अखबार नहीं, पत्रकारिता और समकालीन राजनीति का जीवंत इतिहास है; और प्रभाषजी उसके इतिहासकार। जिसने ‘जनसत्ता’ में काम नहीं किया, उसे नहीं पता अखबार की आजादी का मतलब।
हमें मालूम है कि हर युग में विरोध के अपने खतरे हैं। उन्हें भी मालूम था। उस कद के संपादक की माली हालत आप भी देख सकते हैं। दो मौकों पर उन्होंने राज्यसभा की मेंबरी सिर्फ इसलिए ठुकराई कि उन्होंने विरोध के रास्ते पर चलना मंजूर किया था। कभी सत्ता-प्रतिष्ठान से जुड़ने की रत्ती भर इच्छा नहीं रही। वे कबीर की तरह हमेशा प्रतिपक्ष में रहे। बड़वाह में नर्मदा के किनारे चिता पर प्रभाषजी की देह थी और आकाश में ‘अमर हो’ की गूँज। तब मुझे यही लग रहा था कि इस पाँच फीट दस इंच के शरीर के जरिए आखिर क्या छूट रहा है। पत्रकारिता की एक पूरी पीढ़ी छूट रही है। एक संकल्पबद्ध कलम छूट रही है। वैकल्पिक राजनीति की जमीन तैयार करनेवाला एक विचार छूट रहा है। भाषा को लोक तक पहुँचानेवाला एक शैलीकार छूट रहा है। अदम्य साहस और निडरता से किसी सत्ता प्रतिष्ठान से मुठभेड़ करनेवाला एक योद्धा छूट रहा है। लोक और समाज के गर्भनाल रिश्तों की तलाश करनेवाला एक समाजविज्ञानी छूट रहा है। हम छूट रहे हैं। पत्रकारिता में ‘निर्भय निर्गुण गुण रे गाऊँगा’ की जिद्द छूट रही है। प्रभाषजी अपने पसंदीदा गायक कुमार गंधर्व के इस गीत को ताउम्र सुनकर रीझते रहे। मृत्यु के बाद भी जलती चिता के पास उनके भाई सुभाष और बेटी सोनाल वही भजन उन्हें गाकर सुना रहे थे।