भोपाल।साहित्य अकादमी के निरंतर श्रृंखला में आज दिनांक 10 फरवरी, 2021 को निमाड़ी, मालवी, बुंदेली, बघेली एवं पचेली बोलियों पर व्याख्यान एवं रचनापाठ के अवसर पर साहित्य अकादमी के निदेशक डाॅ. विकास दवे ने सभी अतिथियों का स्वागत किया।
कार्यक्रम की सफलता और स्वीकार्यता का सबसे बड़ा उदाहरण यह बना कि अनायास ही श्रोता दीर्घा में उपस्थित बोली प्रेमी साहित्यकारों ने वरिष्ठ रचनाकार श्रीमती कांता राय के नेतृत्व में कार्यक्रम के तुरंत पश्चात साहित्य अकादमी के निदेशक डॉक्टर विकास दवे का साहित्य जगत की ओर से पुष्पगुच्छ देकर सम्मान किया। श्री दवे ने सब के प्रति इस विशेष स्नेह के लिए कृतज्ञता व्यक्त की ।
प्रारंभ में अपने स्वागत वक्तव्य और विषय प्रवर्तन में डॉ दवे ने कहा कि-” बोलियाँ माँ की गोद जैसा सुकून देती हैं। यह देश का दुर्भाग्य था की कल तक ‘पीयर री वाट’ की चर्चा औरंगजेब रोड और अकबर रोड पर एयर कंडीशन कमरों में होती रही। मध्यप्रदेश शासन और संस्कृति विभाग के सान्निध्य में साहित्य अकादमी ने इस बोली विमर्श को ‘लोक’ का हिस्सा बनाया है। आज इन बोलियों, लोक गीतों और लोकोक्तियों की वैज्ञानिकता पर शोध करने की आवश्यकता है। इनमें निहित समाज, लोक, राजनीति और पर्यावरण विज्ञान से जुड़े आयामों को नई पीढ़ी के समक्ष रखना होगा। यह प्रथम प्रयास है जब म प्र की पांचों बोलियां एक जाजम पर बैठकर एक दूसरे की ‘साता’ (कुशलक्षेम) पूछ रही है।”
डाॅ श्रीनिवास शुक्ल सरस-सीधी जो बघेली के वरिष्ठ साहित्यकार हैं ने कहा कि बोलियों की सरिता का पानी भाषा के सागर में जाता है। अतएव हमारी बोलियों का साहित्य ऐसा होना चाहिए, जिसमें राष्ट्रीयता का स्वर हो, स्वदेशीपन की अपनी मिट्टी में सोंधाई और लोनाई हो। डाॅ सरस ने बघेली भाषा के सामथ्र्य को आरेखित करते हुए कहा कि हमारे बघेली का साहित्य सम्पुष्ट एवं समृद्ध है। अब इसके पास स्वयं का बघेली शब्दकोश, बघेली व्याकरण और बघेली साहित्य का इतिहास है। डाॅ सरस ने ‘बेटी बचाओ बेटी पढाओ’ के समर्थन में बघेली गजल प्रस्तुत करते हुए राष्ट्र भक्ति एवं देश प्रेम पर आधारित बघेली सबैया के माध्यम से काव्य पाठ भी किया। ‘‘हमहूँ का आमै देय कहै बिटिया/दूबी कस जामैं देय कहै बिटिया/माया केर नाव अउ बबुल केर गाॅव/हमूं का चलामैं देय कहै बिटिया।’’
श्री हरीश दुबे-महेश्वर वरिष्ठ साहित्यकार ने कहा कि संत सिंगाजी के आंगन में फूली-फली, मां नर्मदा की चंचल लहरों पर झूला झूली। निमाड़ी एक संस्कारवान बोली है। सैकड़ों वर्षों की संघर्ष यात्रा में अनेक पड़ावों से गुजरने वाली निमाड़ी आज अपने तेज और ताप को प्रकट कर रही है। नई पीढ़ी द्वारा निमाड़ी में हो रहा विपुल मात्रा में सृजन कर्म और वृहद व्याकरण का निर्माण आज उसे भाषा बनने की योग्यता के निकट पा रहा है। यह हम सब निमाड़ियों के लिए गर्व का विषय है। उन्होंने निमाड़ी गीत- निमाड़ी मीठी बोली छे/एक कावे तमे बी आवजो/म्हारा निमाड़ मे स/नरबदा मैया तू महाराणी छे भी प्रस्तुत किया।
जबलपुर से पधारे वरिष्ठ साहित्यकार डाॅ. कौशल दुबे ने पचेली पर बोलते हुए कहा कि किसी भी देश या प्रदेश का भौगोलिक विस्तार कितना भी वृहत् हो मगर उसका केन्द्र-बिंदु तो एक अत्यन्त सीमित क्षेत्रा ही हो सकता है। मध्यप्रदेश के दो महानगरों जबलपुर और कटनी के बीच का क्षेत्र ही पचेल नाम से लोकजीवन में अभिहित होता आया है। 23 डिग्री 35 मिनट उत्तरी अक्षांश और 80 डिग्री 20 मिनट पूर्वी देशांतर का क्षेत्रा ही वह क्षेत्रा है, जो विंध्याचल पर्वतमाला की शाखा भितरीगढ़ की पहाड़ियों के रूप में जाना जाता है। यहीं पर केंचुआ नाम की पहाड़ियों के बीच भारत का भौगोलिक केन्द्र करौंदी (मनोहर ग्राम, राममनोहर लोहिया के नाम पर) स्थित है, जिसकी पहचान चिह्न के रूप में चार सिंह चारों दिशाओं को देखते हुए मूर्तिमान हैं। यहीं पर महर्षि महेश योगी द्वारा स्थापित वैदिक विश्व विद्यालय भी है। यह परिचय इसलिए महत्त्वपूर्ण है कि इसी स्थल से पश्चिम दिशा की ओर संकेत करके हम कह सकते हैं कि इस तरफ शौरसेनी अपभ्रंश से उद्भूत पश्चिमी हिंदी की शाखा बुंदेली का क्षेत्रा है और पूर्व की ओर इंगित करते हुए कह सकते हैं कि यह अर्धमागधी अपभ्रंश की शाखा पूर्वी हिंदी क्षेत्रा है। यहीं से दक्षिण दिशा की ओर अर्धमागधी की एक और शाखा छत्तीसगढ़ी की उपशाखा गोंड़ी की ओर इंगित किया जा सकता है। वस्तुतः पचेल के पूर्व में बघेली, पश्चिम में बुंदेली और दक्षिण में गोंड़ रियासतों के प्रभाव से यहाँ का लोकस्वर स्थानीय बोलियों और कुछ अरबी फारसी शब्दों के पंचमेल से पंचमेल खिचड़ी जैसे भाषायी स्वाद जैसा है। पंचमेल खिचड़ी के इस परिपाक में जिन तत्त्वों ने योगदान किया उनमें, सामाजिक संबंध, भौगोलिक स्थिति, राजनीतिक प्रभाव और परम्परागत सांस्कृतिक चेतना को प्रमुख माना जा सकता है। पश्चिम दिशा में विवाह संबंध होने से संपर्क बढ़ते रहे और धीरे-धीरे बुंदेली का स्वाद बढ़ता रहा। पूर्व में विवाह संबंध होने और आवागमन बढ़ने से बघेली के भाषायी तत्त्व मिलते गये। छोटी-बड़ी अनेक गोंड़ी रियासतों जैसे भँड़रा, पचेलगढ़, खँदवारा, खलरी, भनपुरा, दिमापुर आदि के प्रभाव से गोंड़ी शब्द भी खिचड़ी का हिस्सा बने। पूर्वी हिंदी की शाखा बघेली, छतीसगढ़ी की उपशाखा गोंड़ी और पश्चिमी हिंदी की शाखा बुंदेली की संगमस्थली है पचेल जहाँ की बोली है पचेली। प्रचलित जनश्रुति है –
गाँव पाँच सौ बसै पचेल
बीचै बीच जिखे परसेल।
यह भारत के भौगोलिक केन्द्र की मातृभाषा या बोली है जो इसका वैशिष्ट्य है। इसमें देशज के साथ कुछ अरबी और फारसी के शब्द भी मिश्रित हैं। बिखलीपत (वृषलीपति), खटकरम (षट्कर्म) जैसे संस्कृत के अपभ्रंश शब्द भी मिलते हैं।
प्रदीप जोशी-इंदौर ने अपने वक्तव्य में कहा कि मालवा धरती गगन गंभीर पग-पग रोटी डग-डग नीर कहते हैं कि मालवा के निवासियों में होमसिकनेस होती है जो सही भी है वस्तुतः मालवा का रहने वाला व्यक्ति मालवा में ही जिंदगी बसर कर देता है। बोलियां वाचिक परंपरा से ही पुष्पित पल्लवित एवं फलित होती है मालवी के इतिहास पर दृष्टि डाले तो ऐसा कोई साक्ष्य सामने नहीं आता है कि मालवी में साहित्य लेखन कब से प्रारंभ हुआ फिर भी पन्नालाल नायाब मालवी कविता के पितामह कहे जा सकते हैं। जिस प्रकार से भाषाओं को जानने एवं मानने वाले लोग जब मिलते हैं तो अपनी भाषा में ही बात करना पसंद करते हैं उसी प्रकार से क्षेत्राीय बोलियो को जानने वालों को भी चाहिए कि वह अपनी ही बोली में बात करें हम मालवा वासियों को मालवी ने ही चर्चा परिचर्चा वार्तालाप संवाद करना चाहिए।
अशोक सिंहासने ने अपने वक्तव्य में कहा कि बुंदेली बुंदेलखंड में बोली जाने वाली भाषा है। बुन्देलखण्ड की भौगोलोक सीमा का परिज्ञान बुंदेली के विविध रूपों एवम क्षेत्रों से होता है। यह प्रदेश प्राकृतिक वैभव, पुरातत्व, साहित्यिक सांस्कृतिक परंपराओं आदि की दृष्टि से भारत वर्ष का सर्वाधिक समृद्ध भू-भाग है तथा देश का मध्य भाग होने के कारण यहाँ विदेशी आक्रमणों का प्रभाव विलंब से एवम अल्पकाल के लिए हुआ है। केंद्रीय शासन की दृष्टि इस प्रदेश पर कम ही पड़ी है। प्राकृतिक निधियों को यहाँ के निवासियों ने विरासत में पाया है। सर्व साधारण का जीवन आदिकाल से ही सरल और श्रम पूर्ण रहा है। इसीलिए बुंदेलीजन सदैव संघर्ष शील रहे हैं उनके रीति रिवाज, संकल्प, व्यवसाय, आजीविका के अन्य साधन, धार्मिक विचार, साहित्यिक योगदानों में प्राकृतिक परिवेशों के साथ साथ सांस्कृतिक वातावरण का महत्वपूर्ण योगदान है।