अजय बोकिल
साहित्य, संस्कृति और कला की मासिकी ‘Kathadesh’ का कथाकार, चित्रकार, पत्रकार, चिंतक या कहूं कि अपनी मिसाल आप प्रभु जोशी ( जिन्हें मैं प्रभुदा ही कहता आया) पर एकाग्र यह एक यादगार और जरूरी अंक है। यादगार इसलिए कि शायद पहली बार प्रभु जी के जीवन पर हर कोण से प्रकाश डालता यह शाब्दिक कोलाज है तो जरूरी इसलिए कि प्रभुदा जैसे नितांत ‘अस्त व्यस्त’ रचनाकार को समझने के लिए अभी ऐसे और अंकों की गरज है। मुझे इस अंक की जानकारी प्रभुदा के अनुज हरि जोशी के फोन से मिली।
हालांकि हरिजी से मेरा भी यह पहला परिचय ही था। उन्होंने मुझसे कहा कि आपने वह अंक देखा कि नहीं? मैं तब गाड़ी ड्राइव कर रहा था। जवाब में इतना ही कहा कि अच्छा..मैं देखता हूं। बाद में मित्रवर कैलाश मंडलेकर से बात हुई तो उसने कहा कि हां, तुम जरूर देखना। इसमें मेरा भी लेख है। काश, तुम भी कुछ भेजते।‘
सही है। मैं इस अंक के लिए कुछ नहीं भेज सका। इसलिए सोचा कि अंक ही पढ़ डालूं। पढ़ा तो लगा कि मानो प्रभुदा को ही नए सिरे से पढ़ रहा हूं।
खासकर इसलिए कि प्रभुदा से मेरे नईदुनिया में उप संपादक के रूप में जुड़ने के बाद अग्रज-अनुज का जो अटूट रिश्ता बना, वो आखिरी वक्त तक कायम रहा। डेढ़ साल पहले जब क्रूर कोरोना ने प्रभु दा को असमय लील लिया तब मैंने बेहद तनाव प्रभुदा को शाब्दिक श्रद्धांजलि देने का प्रयास किया था। बीती 12 दिसंबर प्रभुदा की जन्मतिथि थी। यानी वो आज अगर होते तो 72 के होते। बीते 35 साल में प्रभु जोशी को मैं जितना आंक सका, उसका कुल जोड़ यह है कि उनके भीतर कई व्यक्तित्व और रचनाकार थे। लेकिन वो आपस में गड्ड मड्ड नहीं थे।
प्रभु दा में एक बड़े लेखक, अनूठे चित्रकार या चिंतक होने का लेश मात्र भी गुरूर नहीं था। वो कई बार निजी जीवन की बातें भी वैसे ही शेयर करते थे, जैसे वो विश्व साहित्य पर साधिकार बात करते थे । एक बार उन्होंने मुझसे फोन पर कहा भी’ अजय इतने साल बाद भी हम एक दूसरे की पारिवारिक जिंदगी के बारे में कितना कम जानते हैं, यह हमने कभी सोचा ही नहीं।‘ मुझसे कई बार कहते, तुम कहानी लिखना बंद मत करना। जब मैं पत्रकारिता में रमा तो मेरे लेखन को लेकर भी बहुत बारीकी से विश्लेषण कर दिशा निर्देश देते रहे।
‘कथादेश’ का यह विशेषांक प्रभु जोशी के व्यक्तित्व के विविध और विरोधाभासी आयामो को पूरी ईमानदारी से बयान करता है। बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि यह प्रभु जोशी की समूची शख्सियत को लेकर कई सवाल खड़े करता है तो उन सवालों के कई जवाब भी इसी में मिलते हैं। पत्रिका के संपादक ओम शर्मा ने अपने संपादकीय प्रभु जोशी होने के मायने’ में ठीक ही लिखा है ‘लेखन के शैशवकाल में ही उन्होंने ( प्रभु जोशी) पाठकों लेखको के बीच जो मुकाम हासिल कर लिया था, वह नितांत अभूतपूर्व था।
बाद में वे चित्रकला में एकाग्र हो गए, लेकिन वहां भी अपनी शिखर पहचान कायम रखी। एक जनबुद्धिजीवी के बतौर उन्होंने अपनी भाषा, संस्कृति, स्त्रीवाद और भूंडलीकृत व्यवस्था के प्रपंचों, यहां तक कि राजनीति की दुरभिसंधियों समेत दूसरे अनेक समकालीन मसलों की जांच परख में उत्तरोत्तर अपनी सोच निवेशित संप्रेषित की, जो किसी हिंदी लेखक के लिए कतिपय दुस्साहसिक वर्जित इलाका है।‘
इस अंक के पहले खंड में प्रभु दा की अद्भुत और ‘पितृऋण’ जैसी कालजयी कहानियां व लेख हैं। लेकिन उनके चिंतक व्यक्तित्व को सामने लाने वाला अनूप सेठी का प्रभु दा से वह दुर्लभ साक्षात्कार है, जो प्रभु जोशी को प्रथम पंक्ति के कला व साहित्य चिंतको में शुमार करता है। इसमें उन्होंने शब्द, रंग, ध्वनि, कला और साहित्य की भाषा के बारे में बहुत गहरे तथा आत्म चिंतन से उद्भूत विचार रखे हैं। प्रभु जी की विशेषता यही थी कि उनके पास कला की लाजवाब भाषा और भाषा की अनुपम कला एक साथ थी।
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वो समान अधिकार के साथ रंगों की भाषा से खेल सकते थे और भाषा के रंगों को पूरी ताकत से उछाल सकते थे। इसी साक्षात्कार में एक सवाल के जवाब में प्रभुदा कहते हैं कि ‘हर शब्द का एक स्वप्न होता है कि वह दृश्य बन जाए।‘ अपनी कथा रचना प्रक्रिया ( हालांकि कहानी लेखन उन्होंने बहुत पहले बंद कर दिया था) कहा कि मैं खुद भी कहानी का आरंभ लिखता हूं तो बार-बार बदलता हूं। ऐसा नहीं कि जो कहानी लिखी वह एक बार में ही हो गई।‘
लेकिन रचनाकार-कलाकार प्रभु जोशी के अलावा एक इंसान के रूप में प्रभु जोशी क्या थे, किन अतंर्दवद्वों से जूझ रहे थे, उनकी मानवीय कमजोरियां क्या थीं, जिन्हें उन्होंने अपनी बहुआयामी रचनात्मकता से ढंके रखने की हरदम कोशिश की। इन पहलुओं के बारे में बहुत शिद्दत से रोशनी प्रख्यात व्यंग्यकार और प्रभुदा के अनन्य मित्र ज्ञान चतुर्वेदी ने अपने स्मृति लेख ‘कोरोना ने बचा लिया उसे’ में डाली है। यह समूचा लेख दरअसल प्रभु जी के कुछ विरोधाभासी, अजब लापरवाही भरे और खुद संकटो को न्यौतने के विचित्र आग्रहो और उसके कारण सतत तनावों में जीने की अभिशप्तताओं से भरा हुआ है।
इस लेख में ज्ञानजी ने कई ऐसे खुलासे किए हैं, जिससे यह सवाल मन को मथता है कि प्रभु जोशी जैसा एक इतना बड़ा और प्रतिभाशाली रचनाकार एक आम मनुष्य की तरह जिंदगी सरल जिंदगी क्यों नहीं जी पाता? दूसरी तरफ शायद यही बात है जो उसे दूसरों से अलग और अन्यतम बनाती है। उनमें एक अलग तरह का ‘जिद्दीपन’ था, जिसे उनके चाहने वाले कभी अफोर्ड नहीं कर सकते थे। यानी कोरोना दूसरों के लिए भले मौत का कारण बना हो लेकिन अपने ही अंतर्विरोधो से जूझ रहे प्रभुदा के लिए ‘मोक्षदायी’ साबित हुआ, ऐसा कथित मोक्ष जिसके लिए हममे से शायद कोई भी मानसिक रूप से तैयार नहीं था।
‘कथादेश’ के इस अंक में प्रभु जोशी के अनुज हरि जोशी ने उनके बचपन की यादों को संजोया है तो प्रभुजी के भतीजे अनिरूद्ध जोशी ने अपने काका को अलग अंदाज में सहेजा है। प्रभु जोशी के दो परम मित्रों जीवन सिंह ठाकुर तथा प्रकाश कांत ने भी अपने दोस्त के स्वभाव और दोस्ती की निरंतरता के अजाने पहलुओं पर रोशनी डाली है। आकाशवाणी में उनके सहकर्मी और अभिन्न मित्र रहे कवि लीलाधर मंडलोई ने कहा कि प्रभु जोशी पक्के मालवी थे, इसलिए तमाम प्रलोभनो के बाद भी उन्होंने इंदौर नहीं छोड़ा।
कैलाश मंडलेकर ने भी प्रभु जोशी के सहज व्यक्तित्व को अपनी नजर से देखा है। इनके अलावा मुकेश वर्मा, रमेश खत्री, मनमोहन सरल तथा अशोक मिश्र, ईश्वरी रावल, सफदर शामी, जय शंकर, डाॅ कला जोशी के संस्मरण भी प्रभु दा की शख्सियत के नए आयाम खोलते हैं। प्रभुदा के सुपुत्र इंजीनियर और कला मर्मज्ञ पुनर्वसु जोशी का समीक्षात्मक लेख अपने पिता की जलरंग चित्रकारी पर है। वो लिखते हैं- ‘प्रभु जोशी ने कवितामय गद्य के अपने लेखन की विशिष्ट भाषा की तरह,पारदर्शी जलरंगों के माध्यम को साधते हुए जलरंगों में भी एक कविता ही रची है।‘
यह सही है कि प्रभु जोशी की महासागर-सी प्रतिभा को वो सम्मान और प्रतिसाद नहीं मिला, जिसके वो हकदार थे। इसका एक बड़ा कारण वो खुद भी थे। ‘कॅरियर’ और ‘ग्रोथ’ के लिए किसी किस्म का जोखिम उठाना उनकी फितरत में ही नहीं था। चाहे इसका कितना ही नुकसान क्यों न उठाना पड़े। प्रभु जोशी का समूचा रचनाकर्म उनके अपने कठिन संघर्ष और मनुष्य की पीड़ाओं से उपजा नायाब खजाना है।
प्रभु जोशी कथा और उपन्यास लेखन में तो अनुपम थे ही, जल रंगो में काम करने वाले वो ऐसे बिरले चित्रकार थे, जिन्होंने रंगों और रेखाओं से बिल्कुल नया आयाम दिया। ‘कथादेश’ के इस अंक का अंतर्निेहित संदेश यही है कि साहित्य और चित्रकला के क्षेत्र में प्रभु जोशी के अवदान का समुचित मूल्यांकन होना आवश्यक है। ऐसा अब तक क्यों नहीं हुआ, यह चुप सवाल भी यह विशेषांक मन में छोड़ जाता है।
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