फिलहाल/जयराम शुक्ल
ईमानदारी और बेईमानी का सर्टिफिकेट जारी करने वाली फोर्ब्स, ट्रान्सपेरेसी इंटरनेशनल जैसी विदेशी एजेंसियां अपनी रिपोर्ट में हमें परम भ्रष्ट बताती हैं तो बदन में आग सी लग जाती है। इसका मतलब यह नहीं कि हम भ्रष्ट नहीं हैं सवाल ये है कि हमें भ्रष्ट कह कौन रहा है और वह कहने वाला कौन होता है। कायदे से हमसब को चौबीस घंटों में जक बार खुद से पूछना चाहिए कि हम इतने भ्रष्ट क्यों हैंं तो सभी बुनियादी सूत्र हाथ लग जाएंगे।
..हम..से मतलब देश से है। मैं इन एजेंसियों को शक की नजर से देखता हूँ। क्योंकि इसके पीछे मल्टीनेशनल्स और कुछ ऐसी शक्तियों का हाथ होता है जो इस प्रचार के जरिये अपना उल्लू सीधा करती रहती हैं। अभी कल ही अखबार में पढ़ रहा था कि नार्वे की एक एजेंसी ने अपने अध्ययन से निष्कर्ष निकाला है कि शुगर के मरीज तीन पैग तक दारू पी सकते हैं क्योंकि इससे सुगर कन्ट्रोल होता है।
शुगर नापने की मशीन और दवाइयां भी ज्यादातर यूरोप की कंपनियां बनाती हैं और दुनिया भर में इनका लाखों अरब का धंधा होता है। विदेशी शराब जैसा कि नाम से जाहिर है का फार्मूला भी यही कंपनियां बेंचती हैं। शुगर का लेबल भी इन्हीं कंपनियों के प्रभाव में स्वास्थ्य एजेंसियां समय समय पर जारी करती हैं।
जाहिर है कि ये मल्टीनेशनल्स शराब भी बेचना चाहती हैं और शुगर की दवा भी। इनके पास लिवर को खराब करने का भी इंतजाम है और उसके ट्रांसप्लांट का भी। अकबर इलहबादी कई साल पहले कह गए हैं–
बड़ा मुंशिफ है अमरीका बयौमें सबको बराबर प्यार देता है,
किसी को देता है मीसाईल किसी को बचने के लिए राडार देता है।
इसलिए जब कोई विदेशी एजेंसी ऐसी रिपोर्ट जारी करे तो उसके पीछे उसके छुपे हुए न्यस्त स्वार्थ को देखने की कोशिश करना चाहिए। लेकिन इसका मतलब ये कतई नहीं कि हम भ्रष्ट नहीं हैं। चिंता की बात ये है कि वे हमारे भ्रष्ट होने में भी अपना फायदा देखते हैं।
कुछ साल पहले एनरान..नाम की विदेशी कंपनी द्वारा भारतीय नेताओं को रिश्वत देने का मामला उठा था। जब जाँच हुई और कंपनी से पूछा गया कि ये रिश्वत क्यों दी? तो कंपनी ने मासूमियत के साथ जवाब दिया कि ये तो वातावरण निर्माण के मद का फंड था उसी से लिया दिया इसमें बेईमानी कहाँ। अब एनरान घपले की जांच का क्या हुआ..मैं नहीं जानता।
याद करिए जब सन् 90 में आर्थिक उदारीकरण का दौर शुरू हुआ तो अचानक यूरोपियन कम्युनिटी को भारत में निरक्षरता को लेकर बड़ी चिंता हुई। पहले चरण में तीन-चारसौ करोड़ रुपये आए। मानव संसाधन विभाग ने इसका जिम्मा लिया। बुद्धिजीवियों से देश को साक्षर करने की की अपील की गई।
बडे़ सुनियोजित तरीके से इस अभियान के साथ वामपंथी बौद्धकों, कलाकारों को जोड़ा गया। फिर इनका नेटवर्क जिले से लेकर ब्लाक तक फैला। भारत में धंधा फैलाने वाले मल्टीनेशनल्स को अनुमान था कि उन्हें सबसे ज्यादा विरोध वामपंथी यूनियनों की ओर से झेलना पड़ेगा चुनांचे पहले उन्हीं को फंसाया जाए। वे फँस भी गए देश के निरक्षरों को अक्षरग्यान देने निकल पडे़।
कारोबारी ताकतें ने एक तीर से दो शिकार किए बुद्धिजीवियों को इधर फँसा दिया और निरक्षरों के लिए बस अपने फायदे का यह इंतजाम कर लिया कि वे उनके विग्यापनों की इबारत समझने लगें। साक्षरता अभियान से यूरोपियन कम्युनिटी ने हाथ खींच लिए लेकिन संघर्ष और ईमानदारी का झंडा उठाने वालों को भ्रष्ट बनाकर।
भ्रष्ट कैसे बनाया वह भी जानिये। पूरे बजट में दस से पंद्रह प्रतिशत तक का बजट वातावरण निर्माण के लिए रख। फर्ज करिए कि एक प्रदेश का बजट हुआ 100 करोड़ तो इसमें से 10 करोड़ वातावरण निर्माण के लिए। वातावरण निर्माण का जिम्मा साहित्यकारों, कलाकारों को दिया गया। ये पैसे ढोल, मजीरे नारे रैली में उड़ा दिए गए। बड़ी रकम जेबों में गई। चेक करने के लिए न कोई पैमाना न कोई जवाब देही। इसलिए 90 के दशक में जब मल्टीनेशनल भारत में घुस रहे थे तो हमारे बुद्धिजीवी कलाकार साक्षरता के लिए ढोल मजीरे बजा रहे थे।
अधिकारपूर्वक ये बातें मैं इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि अनजाने इस धतकरम में मैं भी कुछ दिनतक फँसा रहा जैसे ही माजरा समझ में आया वैसे ही छोड़ दिया। अब कोई सरकार चाहे तो नब्बे के दशक में चले साक्षारता अभियान के गड़बड़झाले की जाँच कराए तो कई ऐसे बौद्धिक चेहरे बेनकाब होंगे आज जो बड़ी बड़ी बातें करते हैं।
. इन सब बातों का बखान करने के पीछे इस गुनाह से बरी हो जाना कदापि नहीं है कि हम भ्रष्ट नहीं हैं। मुझे तकलीफ़ के साथ ऐतराज इस बात का है कि हमारी भ्रष्टता का सर्टिफिकेट वे विदेशी एजेंसियां दे रही हैं जो मल्टीनेशनल्स के हितों को साधती हैं। यह उन ताकतों का मिशन भी होता है जो दुनिया में अन्य देशों को विफल व भ्रष्ट करार देकर अपनी नैतिक श्रेष्ठता कायम रखना चाहते हैं।
हमारे भ्रष्टाचार को नापने का हमारा अपना मीटर होना चाहिए । हमें गुनाहों के सलीब पर लटकाए तो हमारा अपना लटकाए। भ्रष्टाचार के खिलाफ लोकपाल बिल के लिए जब अन्ना का आंदोलन चला तो सड़कों पर सैलाब उमड़ आया। जो नहीं जा पाए उनका नैतिक समर्थन था। उस समय भाजपा विपक्ष में थी। उसने भी अन्ना के आंदोलन का बढचढकर समर्थन किया। संभवतः चुनाव घोषणा पत्र में भी लोकपाल बनाने की बात थी।
इधर केंद्र की सरकार का दूसरी पारी का पहला साल शुरू है। लोकसभा, राज्यसभा दोनों सदनों में उसका बहुमत है। कश्मीर के लिए अनुच्छेद 370 हटाना, तीन तलाक को गैर कानूनी करार देना, नागरिकता का कानून बनाना इससे पहले नोटबंदी और जीसटी का कानून बनाना विरोध के बाद जब यह सब संभव है तो अब लोकपाल बिल पास होने में कोई अड़चन नहीं। मोदी के नेतृत्व को यह श्रेय तो जाता है कि इन छह सालों में घपले घोटालों का कोई प्रकरण नहीं आया।
मैं ये मानता हूँ कि मोदी भ्रष्टाचार के सख्त खिलाफ हैं। लेकिन उनकी इस सद्इच्छा पर पक्की मुहर तभी लग पाएगी जब वे देश को ऐसा लोकपाल देंगे जिसकी नजर बारीक से बारीक बेईमानी पर रहेगी। वह इतना सक्षम हो कि तीनों पालिकाओं के प्रमुखों को भी अदालत के कठघरे में खड़ा कर सके।
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