क्या हार में क्या जीत में,
किंचित नहीं भयभीत मैं,
संघर्ष पर पर जो भी मिले,यह भी सही वह भी सही,
वरदान मांगूंगा नहीं!!
शिवमंगल सिंह सुमन की इन पंक्तियों का उद्घोष उनके योग्य शिष्य पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई ने लालकिले की प्राचीर से किया था। ये पंक्तियां इतनी प्रभावशाली और प्रेरक थीं कि बाद में आम लोगों से लेकर कई महत्वपूर्ण व्यक्तियों ने इसे अटलजी की कविता समझ लिया। यहां तक कि उप्र के राज्यपाल श्री राम नाइक ने अपनी आत्मकथा चरैवेति चरैवेति में इन पंक्तियों को अटलजी के नाम से प्रकाशित कर दिया।
Read More : श्वेता तिवारी के साड़ी लुक ने बढ़ाई फैंस के दिलों की धड़कने, देखें तस्वीरें
सुमन जी का जन्म उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले के झगरपुर गांव में 1915 में हुआ। शुरुआती शिक्षा रीवा और ग्वालियर में हुई।बीए और एमए काशी हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी से किया, वहीं से सुमन जी ने आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के मार्गदर्शन में अपना शोध प्रबंध “गीतिकाव्य का विकास”डीलिट उपाधि के लिए प्रस्तुत किया। शिक्षा के बाद सुमन जी ग्वालियर राज्य के उच्च शिक्षा विभाग में हिंदी के सहायक प्राध्यापक, विक्टोरिया कालेज ग्वालियर में नियुक्त हुए। 1948 में वे प्रोफेसर के रूप में पदोन्नत होकर माधव कालेज उज्जैन आए फिर मृत्यु पर्यन्त(27 नवंबर 2002) उज्जैन में रहे।वे आजीवन मालवा के सांस्कृतिक जीवन की धड़कन और शान बने रहे।
सुमन जी एक लोकप्रिय कवि के साथ ही शानदार और लाजवाब शिक्षक भी थे, उनकी कक्षाओं में अन्य विषयों के छात्र-छात्राओं की भीड़ भी बनी रहती थी। सुमन जी के माध्यम से कबीर, तुलसी, निराला, प्रेमचन्द को पढ़ना अपने आप में एक विलक्षण अनुभव होता था।उनका तुलनात्मक अध्ययन और सरस अध्यापन शैली श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर देती थी।
विक्टोरिया कालेज ग्वालियर में अटल बिहारी वाजपेई सुमन जी के शिष्य थे वहीं दूसरी ओर अटलजी के पिता श्री कृष्ण बिहारीलाल वाजपेई ने हाईस्कूल में सुमन जी को भी पढ़ाया था।
Read More : लोकायुक्त अधिकारी पीयूष अग्रवाल को रिश्वत लेते पकड़ा रंगे हाथों
सुमन जी 1957-1961 तक नेपाल के दूतावास में भारत के राजदूत श्री भगवान सहाय के सांस्कृतिक सहचारी रहे, वहीं से 1961 में माधव कालेज उज्जैन में प्राचार्य के रूप में पदस्थ हुए। इस दौरान माधव कालेज साहित्यिक और सांस्कृतिक कार्यक्रमों का अद्भुत केंद्र बना। सुमन जी के कारण साहित्य जगत की अनेक विभूतियों का आना कालेज में हुआ। 1968-78 तक सुमन जी विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन के कुलपति रहे। बाद में वे उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान के उपाध्यक्ष बने। सेवानिवृत्ति के बाद अनेक विश्वविद्यालयों में विजिटिंग प्रोफेसर रहे। अंत में वे कालिदास अकादमी उज्जैन के कार्यकारी अध्यक्ष के रूप में आजीवन पदस्थ रहे।
सुमन जी का जीवन घटनाओं और संस्मरणों का एक अंतहीन सिलसिला रहा है। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में अध्ययन के दौरान उन्होंने महात्मा गांधी और महामना मदनमोहन मालवीय के समक्ष अपनी कविता “हमारा विश्वविद्यालय”पढ़ी और दोनों महापुरुषों से आशीर्वाद पाया। दिल्ली के लालकिले की प्राचीर से उन्होंने अपनी प्रसिद्ध रचना “मेरा जवाहर, मुझको लौटा दो “पढी, इसमें यह पंक्तियां –
तुम जिनके कंधों पर चालीस कोटि जन की आशा,
तुम यदि बूढ़े तो बदलनी होगी यौवन की परिभाषा।
पंडित नेहरू ने एक सार्वजनिक समारोह में कहा था ” अब मैं बूढ़ा हो चला हूं।”इसी कथन पर सुमन जी ने यह कविता लिखी थी।अगले दिन पंडित नेहरू के निवास पर सुमन जी बुलाए गए, पंडित जी को पुनः वही रचना सुनाई। पंडित नेहरू प्रसन्न हुए, सुमन जी ने हस्ताक्षर के लिए अपनी डायरी पंडित नेहरू को दी जिसपर नेहरू जी ने लिखा- “अपने जीवन को एक कविता बनाओ।”
सुमन जी के साहित्यकारों से जुड़े अनेक संस्मरण हैं जिनमें पंडित केशव प्रसाद मिश्र, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, महाकवि निराला, प्रसाद, प्रेमचन्द, महादेवी,पंत, दिनकर, बच्चन, अज्ञेय, डॉ कर्ण सिंह,जिगर मुरादाबादी, जांनिसार अख्तर,अली सरदार जाफरी, कैफ़ी आज़मी आदि प्रमुख हैं। सुमन जी हिंदी की उत्तरछायावादी दौर के प्रगतिशील धारा के महत्वपूर्ण कवियों में से एक हैं। उनकी कविताई में प्रकृति, प्रेम, सौंदर्य के अलावा परिवर्तन की अनवरत गूंज सुनाई देती है।
युवावस्था में ही उन पर मार्क्सवाद का गहरा असर पड़ा। सुमन जी के व्यक्तित्व पर मार्क्स, गांधी और नेहरु की अमिट छाप को देखा जा सकता है। उनके कविता संग्रहों में युग का मोल, हिल्लोल,जीवन के गान,प्रलय सृजन,पर आंखें नहीं भरी, विंध्य हिमालय, विश्वास बढ़ता ही गया,मिट्टी की बारात, वाणी की व्यथा,कटे हुए अंगूठों की वंदनवारें आदि प्रमुख हैं।आज सुमन साहित्य हमें सुमन समग्र (५ खंड) में वाणी प्रकाशन से उपलब्ध है।
सुमन जी की कुछ लोकप्रिय कविताओं के अंश इस प्रकार हैं–
तूफानों की ओर घुमा दो
नाविक!निज पतवार,
यह असीम निज सीमा जाने
सागर भी तो यह पहिचाने
मिट्टी के पुतले मानव ने
कभी ना मानी हार…!!
दस दिन दस साल हो गए
मास्को अब भी दूर है,
यह दलितों की तीर्थभूमि है,
युग का प्रबल तकाजा,
सर्वप्रथम साम्राज्यवाद का
निकला यहीं जनाजा।
चाहता हूं ध्वंस कर देना विषमता की कहानी,
हो सबको सुलभ जगत में वस्त्र भोजन अन्न पानी।
जीवन क्षणिक त्योहार है,
जो कुछ अमर है प्यार है।
आश्चर्य पितामह की हत्या कैसे
सह ली तरुणाई ने,
हम खड़े देखते रहे और गो-वध
कर दिया कसाई ने।
मैं शिप्रा सा ही तरल सरल बहता हूं
मैं कालिदास की शेषकथा कहता हूं
मुझको न मौत भी भय दिखला सकती है
मैं महाकाल की नगरी में रहता हूं।
हिमगिरि के उर का दाह दूर करना है,
मुझको सर सरिता,नद निर्झर भरना है,
मैं बैठूं कब तक केवल कलम संभाले
मुझको इस युग का नमक अदा करना है।